प्रेस की आजादी की जब भी बात होती है, तो दो बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि आजादी छीन कौन रहा है और दूसरी यह कि आजादी छीनी कोई क्यों रही है। पहली बात तो सीधी और सपाट है, कि यह आजादी वही छीनना चाहेगा, जिसकी अपनी नकारात्मक आजादी खतरे में होगी। इसे आजादियों का आपसी झगड़ा भी कह सकते हैं। यानी नकारात्मक आजादी सकारात्मक आजादी को छीन लेना चाहती है। इस पर तो हमारा जोर नहीं है। अगर कोई आजादी छीन रहा है, तो हम लड़ेंगे और लड़ते रहेंगे। बेशक यह होना भी चाहिए। मगर क्या इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि आजादी आपकी बची रहेगी। यह निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है। कभी आप अपनी आजादी को बचा पाएंगे, तो कभी नहीं। मगर दूसरी बात जरूर आपके हाथ में है और नतीजे लेकर आने वाली मजबूत बात है।
यह बात है कि आजादी छीनी क्यों जा रही है। अगर हम इसके मंथन में जाएंगे, तो 5 प्रमुख बातें पाएंगे।
पहली, तो यह कि आजादी छीनने के लिए हम खुद ही दोषी हैं। जब हम कमिश्नर के बंगले पर बिल्ली और मिका सिंह के किस वाले केस लगातार दिखाते हैं, तभी हम अपनी आजादी को गिरबी रख देते हैं।
दूसरी, जब हम किसी खास मामले में यहां उदाहरण नहीं दूंगा, बाइस्ड होकर बात करने लगते हैं, तो अपनी आजादी को बेच देते हैं.
तीसरी, टीआरपी और आईआरएस के सर्वे हमें परेशान करते हैं। उदाहरण दूंगा, कि आईआरएस के सर्वे में कोई अखबार बहुत आगे है, इसके दो कारण हैं एक तो वह बेहद कस्टमाइज खबरें छापता है, दूसरा वह भाषाई स्तर पर अंग्रेजी का बेइंमतहां इस्तेमाल करता है। ठीक ऐसे ही अंग्रेजी को अखबार भी हैं, जो बेहद सरल इज आर एम वाली अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हुए फख्र से कहते हैं, वी आर नॉट इन जर्नलिज्म, रादर इन एटवर्टाजिंग इंडस्ट्री। बस यहीं खत्म हो जाते हैं।
चौथी, ऑगसटस हिक्की से लेकर आज के कोई मुहल्ला अखबार तक, कहीं भी कोई ऐसा सिस्टम नहीं है, कि कोई विचारशील व्यक्तित्व सीधा किसी स्थान पर बैठ सके। अकेडमीज क्या पढ़ाती हैं और क्या जमीन पर होता है, इस फर्क को बताने की जरूरत नहीं है।
पांचवी, मालिकान के अपने व्यावसायिक हित। यह बात निबंध की तरह लगेगी, किंतु इसका समाधान है।
समाधान है, हमारे पास। इस दिशा में हम काम भी कर रहे हैं। हम लोग ऐसे केस खोज रहे हैं, कि जिससे यह साबित कर सकें, कि फलां सार्वजनिक हित का ऐसा केस था, जिसे मीडिया ने ऐसा बना दिया, इसके पीछे मीडिया की यह मंशा थी। अगर हम इसे कर पाए, तो जरूर दुनिया में यह मील का पत्थर साबित होगा। इसमें हम ऐसे कमसकम 200 केस लेंगे, जिनके बीहाफ पर कोर्ट में एक पीआईएल के रूप में लिटिगेशन दायर की जा सके। इसमें हमारी मांग होगी कि देश में अखबार को व्यवसाय से दूर कर दिया जाए।
जो व्यक्ति भी अखबार निकालेगा वह किसी दूसरे व्यवसाय में नहीं जा सकता। यह चौंकाने वाली बेहूदा सी बात है। बेशक ऐसा ही है। चूंकि सवाल उठेंगे, कि पत्रकारों का आर्थिक हालत खराब हो जाएगी, मालिकान के संपादक होने से संपादक नाम की संस्था खत्म हो जाएगी, कई बड़े संस्थान हैं, जो नो लॉस नो प्रॉफिट में काम कर रहे हैं वे ऐसा नहीं कर पाएंगे, मालिक जब दूसरा धंधा नहीं करेगा, तो वह इसमें ही काला पीला करेगा। तमाम सारे ऐसे सवाल हैं, जो मौजूं हैं। बहुत सही हैं।
किंतु दोस्तों हम करना भी यही चाहते हैं। पहली आशंका कि पत्रकारों की आर्थिक हालत खराब हो जाएगी, तो बिल्कुल सही है। हो जाएगी, मगर अभी कौन सी अच्छी है। नौकरीनुमा पत्रकारिता में एक रिपोर्टर न्यूज एक्जेक्यूटिव बन कर रह गया है। उसे अपने स्रोत को पटाए रखते हुए संस्थान की चाही गईं खबरों में से खबरें देना है। तब वह पत्रकार कहां रहा? जब वह अपने दिल के विद्रोह को जाहिर ही नहीं कर पा रहा तो कैसा पत्रकार। जबकि स्वतंत्र पूर्ण समय पत्र से जुड़ेगा, तो वह खुद की अपनी एक इमेज स्थापित करेगा। टैग जर्नलिस्ट नहीं रहेगा, कि फलां के ढिमकां जी। जब यह एक मिशन बन जाएगा, तो खुदबखुद इसमें पत्रकार अपनी हिस्सेदारी करेगा, न कि नौकरी। सुबह उंगली से पंच करो, शाम को रिपोर्ट बनाओ कि कितनी खबरें पढ़ीं आपने।
अब आशंका नंबर 2 पर आते हैं, कि संपादक नाम की संस्था खत्म हो जाएगी, तो भैया अभी कौन सी जिंदा है। कितने संपादकों के केबिन में बुक शेल्फ है, कितने संपादकों के पास अपना कोई दुनिया को बदल देने का जज्बा है। संपादक शब्द से यही उम्मीद की जाती है। यह भैया नौकरी है, बस। पाठक को केंद्र में रखकर उसके लिए कुछ ऐसी सूचनाएं देना, जो उसके काम की हों। यानी रायपुर की चमक को बस्तर की तपती जिंदगी नहीं देनी।
तीसरी बात यानी आशंका मालिक जब दूसरा धंधा नहीं करेगा, तो इसीसे कालापीला करेगा। भैया इसमें कौन सी बुराई है, अभी ऐसे लोग कालापीला कर रहे हैं, जो नीचे वालों को चूस रहे हैं। अगर तब हमारा अपना आदमी कोई कालापीला कर लेगा तो क्या हो जाएगा। यह तो मजाक रहा, किंतु सत्य यह है कि इस उद्योग से सबसे पहले तो कचरा हटेगा, पैसा कमाने वालों का। दूसरा विचारवानों के पास बहुत कुछ रहेगा, अपना करने का.
हम कोई ऐसी स्वर्ण व्यवस्था की बात भी नहीं करने जा रहे, जिससे कि सतयुग आ जाएगा, हम तो बस इसे रिप्लेस करके इससे बेहतर लाना चाहते हैं। ऐसे ही रिप्लेसमेंट से एक दिन वास्तव में सतयुग ला पाएंगे।
अगर आपके पास ऐेसे केस दस्तावेजों के साथ हैं, जिनसे यह साबित हो कि फलां मामला इतनी बड़ी जनसंख्या से जुड़ा था, इतने व्यापक असर वाला था, लेकिन मीडिया ने अपने इस आर्थिक कारण से उसे दबा डाला, तो हमें बताएं। हम इस पर काम कर रहे हैं।
धन्यवाद।
-सखाजी
1 टिप्पणियाँ:
dhanywad sir
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Thanks for your valuable comment.