तो जब सब सही हैं दुनिया में तो फिर गलत कौन है? आखिर इतनी परेशानिया हैं हमारी पर्सनल लेवल पर और सामाजिक लेवल पर तो कहीं न कहीं कोई न कोई गलत पक्ष में तो है? अगर सब लोग इस बात को समझ लें तो दुनिया की सारी समस्याएं एक झटके में खत्म हो जाएं...लेकिन क्या ऐसा होता दिख रहा? नहीं. क्या है कारण और क्या है समााधान. चलिए थोड़ा इसे आध्यात्मिक पक्ष से समझने की कोशिश करते हैं...
12वीं सदी में ही रूमी ने लिख दिया था-
''पता है
यहां से बहुत दूर, गलत और सही के पार,
एक मैदान है.. मैं वहां मिलूंगा तुझे…
तुम, तुमसे मिलना, तुम्हारे बारे में सोचना,
सारी दुनिया भर के काम छोड़ कर तुमसे मिलना,
जो कभी नहीं किया, वो करना… सब,
सब गलत है…
लेकिन अगर गलत है तो गलत लग क्यूं नहीं रहा..
कहां है ये सही और गलत…? जहां मैं हूं, वहां से कुछ सफ़ेद या काला नहीं है…
सब कुछ, कई रंगों का है, सब कुछ, हर पल , नया रंग ओढ़ता है..
सब कुछ…. सही भी है, और गलत भी…
मेरी सारी दुनिया ही, उस सही और गलत के पार का मैदान है…
और यहां, इस मैदान में, मुझे वो सब लोग मिलते हैं, जो मेरी तरह, सबरंग में देखते हैं..
सब की आंखें ख़राब हैं… दिमाग भी… सब एक जैसे हैं…''
हम अक्सर खुद को इस उलझन में पाते हैं कि जीवन में क्या चीजें सही दिशा में हैं या नहीं? साथ ही ये भी कि सही क्या है और गलत क्या है? हमें किस राह पर होना चाहिए? हमसे जुड़ी चीजें कहीं गलत राह पर तो नहीं हैं? आपको इन उलझनों का जवाब खुद खोजना होगा. अपने इर्द-गिर्द खोजना होगा. दूसरों के अनुभवों से आपकी जिंदगी के सवाल हल नहीं होंगे. आपको अपने जीवन को सरलता की ओर ले जाना होगा.
हां, आप दूसरों की जिंदगी की समस्याओं और उनके समाधान को कॉपी नहीं कर सकते लेकिन उनके अनुभवों से जरूर सीख सकते हैं. कैसे? सरल होकर, खुद को थोड़ा हल्का करके... आखिर ज्यादा बोझ लेकर जाना कहां है? ज्यादा लोड लेकर करना क्या है?
स्वेट माडर्न लिखते हैं-
'मैं प्रकृति के निकट रहने का यत्न करता हूं. अपने जीवन में उसका अनुकरण करता हूं. फल यह मिलता है कि खूब निद्रा आती है. पाचन शक्ति भी बनी रहती है. सभी साम्थर्य अपने पूरे वेग में रहता है. सरलता और परिश्रम का यही सबसे बड़ा इनाम है...'
इसका जवाब आपको खुद खोजना होगा. जीवन में सही गलत में उलझने की बजाय सरल रास्ते आपको हमेशा बेहतरी की ओर ले जाएंगे. स्वामी विवेकानंद कहते हैं-
'जो भी चीज आपको शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाती हैं, उसे जहर समझकर अस्वीकार कर दीजिए.'
वैसे, भी सही-गलत का ये सवाल कोई आज का नहीं है, सदियों पहले भी इंसान इसी उधेर-बुन में था. किसी ने एक संत के दरबार में ये सवाल पूछा. संत ने चेहरे पर चिर शांति और मुस्कान लाते हुए कहा-
'सही-गलत में फर्क करना इतना मुश्किल तो नहीं है. जो करने से दिल का बोझ बढ़े वो गलत और जो करने से दिल को इत्मीनान आए वो सही...'
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