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अनोखी बेटी

Written By prerna argal on बुधवार, 30 नवंबर 2011 | 8:45 pm

अनोखी बेटी 
Disha Verma
दिशा  वर्मा
आज मैं आप सबको एक ऐसी बेटी के त्याग और अपने माता पिता के लिए कुछ भी करने का जज्बा रखने वाली बहुत बहादुर और बेमिसाल बिटिया की सच्ची कहानी बताने आई हूँ /आप पदिये और अपनी राय जरुर दीजिये की आज भी जब हमारे देश में कन्याओं को गर्भ में ही मारने की घटनाओं  में दिन पर दिन बढोतरी हो रही है और लड़कियों को बोझ समझा जाता है /वहां ऐसी बेटी ने एक मिसाल कायम की है /

ये प्यारी सी बेटी दिशा वर्मा  हमारे बहुत ही करीबी और अजीज पारिवारिक दोस्त श्री मनोज वर्मा और श्रीमती माधुरी वर्मा की है /इनकी दो बेटियाँ हैं /श्री मनोजजी की तबियत बहुत ख़राब थी ,उनका लीवर ७५% ख़राब हो गया था /उनको लीवर ट्रांसप्लांट की जरुरत थी .उनकी हालत इतनी ख़राब थी की वो कोमा में जा रहे थे /मेरी दोस्त माधुरी को कुछ समझ नहीं आ रहा था की वो किससे बोले की कोई उसके पति को अपना लीवर दे दे /क्योंकि उसका ब्लूड ग्रुप  तो लीवर देने के लिए मैच ही नहीं कर रहा था / ऐसी हालत में मैं उनकी बहन श्रीमती नीलू श्रीवास्तव जी को भी नमन करना चाहूंगी जो अपने भाई की खातिर आगे आईं और उसका जीवन बचाने के लिए अपना जीवन जोखिम में डालकर लीवर देने के लिए तैयार हो गईं /फिर उनके सारे मेडिकल टेस्ट हुए परन्तु दुर्भाग्यबस वह मैच नहीं हो पाए जिस कारण वो अपना लीवर नहीं दे पायीं /फिर सवाल उठ पडा की अब क्या होगा सारा परिवार चिंता में डूब गया की  अब श्री मनोज जी का क्या होगा/ ऐसे समय में जब सारा परिवार दुःख के अन्धकार में  डूबा था ये बेटी दिशा जिसको अभी १८ वेर्ष की होने में भी कुछ समय था एक उजली किरण के रूप में आगे आई उसने कहा की मैं दूँगी अपने पापा को लीवर /उसने अकेले

 ही जा कर डॉ. से बात चीत की /डॉ. उसके जज्बात और हिम्मत देखकर हैरान रह गए फिर उन्होंने उसे समझाया भी की बहुत बड़ा operation होगा जो १६ घंटे चलेगा और operation के बाद जो काफी risky भी है और तुम्हारे पेट को काटने से उस पर एक हमेशा के लिए बड़ा सा निशान भी बन जाएगा /उसे तरह तरह से समझाया की उस की जान भी जोखिम में पड़ सकती है परन्तु वो बहादुर बेटी बिलकुल नहीं घबराई ना डरी और अपने पापा के लिए उसने ना अपनी जान की और ना इतने बड़े operation की परवाह की और  वो अपने 
निर्णय पर अडिग रही /फिर उसने इंटर-नेट  और अपने चाचा जो एक डॉ.हैं से लीवर ट्रांसप्लांट के बारे में सब कुछ समझ लिया और अपने को इस operation के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह तैय्यार कर लिया और बड़ी हिम्मत से  इतने बड़े operation का सामना किया /भगवान् भी उस बेटी की त्याग की भावना और हिम्मत के सामने हार गए  और operation  सफल हुआ और उसके पिता को दूसरा जीवन मिला /भगवान् ऐसी बेटी हर घर में दे जिसने अपने पिता के लिए इतना बड़ा त्याग किया जो शायद  दस बेटे मिलकर भी नहीं कर सकते थे /और वो हमारे देश की सबसे कम उम्र की लीवर डोनर भी बन गई /   यह हम सबके जीवन की अविस्मरनीय घटना है जिसको याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं /आज वो बेटी इंजिनियर बन गई है और Infosys जैसी multi-national कंपनी में काम कर रही है /उसके पापा बिलकुल ठीक हैं और एक सामान्य जीवन जी रहे हैं /


 ऐसी प्यारी बेटी को में नमन करती हूँ और आप सभी का भी उसकी आने वाली जिंदगी के लिए आशीर्वाद चाहती हूँ /और यह कहना चाहती हूँ की बेटे की चाह में बेटी को गर्भ में मत मारो क्योंकि दिशा जैसी  बेटियां अपने माता पिता के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं करतीं /उनमे से कौन   सी बेटी दिशा बन जाए क्या पता /उसके बाद  उसे अपने पापा की हालत से प्रेरणा मिली और दूसरों की परिस्थिति समझने का जज्बा मिला जिसके कारण उसने eye donation  कैंप में जा कर अपनी आंखें दान करने का फार्म भरा /दिशा को तथा उसके माता पिता को भगवान् हमेशा खुश ,स्वस्थ एवं सुखी रखे बस यही कामना है / 

ऐसी करोड़ों में एक अनोखी बेटी को ,मेरा शत शत नमन आशीर्वाद /









दिशा अपने  मम्मी  पापा (श्री मनोज  वर्मा)और बहन के साथ   
operation के एक साल बाद 
happy family

तेरा वैभव अमर रहे माँ हम दिन चार रहें न रहें.... राजीव भाई को श्रधांजलि

भाई राजीव दीक्षित जी के नाम स्वदेशी और आजादी बचाओ आन्दोलन से हम सभी परिचित हैं.. एक
अमर हुतात्मा, जिसने अपना पूरा जीवन मातृभाषा मातृभूमि को समर्पित कर दिया..आज उनका जन्मदिवस और पहली पुण्यतिथि भी है..आज ही के दिन ये अमर देशभक्त हमारे बिच आया था और पिछले साल हमारे बिच से आज ही के दिन राजीव भाई चले गए..अगर राजीव भाई के प्रारम्भिक जीवन में झांके तो जैसा की हम सब जानते हैं ,राजीव भाई एक मेधावी छात्र एवं वैज्ञानिक भी थे..आज के इस भौतिकतावादी दौर में जब इस देश के युवा तात्क्षणिक हितों एवं भौतिकवादी साधनों के पीछे भाग रहा है, राजीव भाई ने राष्ट्र स्वाभिमान एवं स्वदेशी की परिकल्पना की नीव रखने के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन को राष्ट्र के लिए समर्पित कर त्याग एवं राष्ट्रप्रेम का एक अनुकरणीय उदहारण प्रस्तुत किया..सार्वजनिक जीवन में आजादी बचाओ आन्दोलन से सक्रीय हुए राजीव भाई ने स्वदेशी की अवधारणा एवं इसकी वैज्ञानिक प्रमाणिकता को को आन्दोलन का आधार बनाया..
स्वदेशी शब्द हिंदी के " स्व" और "देशी" से मिलकर बना है."स्व" का अर्थ है अपना और "देशी" का अर्थ है जो देश का हो.. मतलब स्वदेशी वो है "जो अपने देश का हो अपने देश के लिए हो" इसी मूलमंत्र को आगे बढ़ाते हुए राजीव भाई ने लगभग २० वर्षों तक अपने विचारो,प्रयोगों एवं व्याख्यानों से एक बौद्धिक जनजागरण एवं जनमत बनाने का सफल प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्थान एवं यहाँ के लोगो ने अपने खुद की संस्कृति की उत्कृष्ठता एवं वैज्ञानिक प्रमाणिकता को समझा और वर्षों से चली आ रही संकुचित गुलाम मानसिकता को छोड़ अपने विचारों एवं स्वदेशी पर आधारित तार्किक एवं वैज्ञानिक व्यवस्था को अपनाने का प्रयास किया..
वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के प्रबल विरोधी राजीव भाई ने अंग्रेजो के ज़माने से चली आ रही क्रूर कानून व्यवस्था से लेकर टैक्स पद्धति में बदलाव के लिए गंभीर प्रयास किये..अगर एक ऐसा क्षेत्र लें जो लाल बहादुर शास्त्री जी के के बाद सर्वदा हिन्दुस्थान में उपेक्षित रहा तो वो है "गाय,गांव और कृषि " इस विषय पर राजीव भाई के ढेरो शोध और प्रायोगिक अनुसन्धान सर्वदा प्रासंगिक रहे हैं..वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की आड़ में पेप्सी कोला जैसी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनियों को, खुली लूट की छूट देने वाले लाल किले दलालों के खिलाफ राजीव भाई की निर्भीक,ओजस्वी वाणी इस औद्योगिक सामाजिक मानसिक एवं आर्थिक रूप से गुलाम भारत को इन बेड़ियों से बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त करती थी..मगर सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की राह और अंतिम अभीष्ट सर्वदा विरोधों और दमन के झंझावातों से हो कर ही मिलता है..व्यवस्था परिवर्तन की क्रांति को आगे बढ़ाने में राजीव भाई को सत्ता पक्ष से लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कई बार टकराव झेलना पड़ना और इसी क्रम में यूरोप और पश्चिम पोषित कई राजनीतिक दल और कंपनिया उनकी कट्टर विरोधी हो गयी..
अगर हम भारत के स्वर्णिम इतिहास के महापुरुषों की और नजर डाले तो राजीव भाई और विवेकानंद को काफी पास पाएंगे..जिस प्रकार विवेकनन्द जी ने गुलाम भारत में रहते हुए यहाँ की संस्कृति धर्म और परम्पराओं का लोहा पुरे विश्व के सामने उस समय मनवाया जब भारत के इतिहास या उससे सम्बंधित किसी भी परम्परा को गौण करके देखा जाता था, उसी प्रकार राजीव भाई ने अपने तर्कों एवं व्याख्यानों से भारतीय एवं स्वदेशी संस्कृति ,धर्म , कृषि या शिक्षा पद्धति हर क्षेत्र में स्वदेशी और भारतीयता की महत्ता और प्रभुत्व को पुनर्स्थापित करने का कार्य उस समय करने का संकल्प लिया जब भारत में भारतीयता के विचार को ख़तम करने का बिदेशी षड्यंत्र अपने चरम पर चल रहा था..काल चक्र अनवरत चलने के साथ साथ कभी कभी धैर्य परीक्षा की पराकाष्ठा करते हुए हमारे प्रति क्रूर हो जाता है..कुछ ऐसा ही हुआ और इसे देशद्रोही विरोधियों का षड्यंत्र कहें या नियति का विधान राजीव भाई हमारे बिच से चले गए..मगर स्वामी विवेकानंद जी की तरह अल्पायु होने के बाद भी राजीव भाई ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के उन उच्च आदर्शों को स्थापित किया जिनपर चलकर मानवता धर्म देशभक्ति एवं समाज के पुनर्निर्माण की नीव रक्खी जानी है..
अब यक्ष प्रश्न यही है की राजीव भाई के बाद हम सब कैसे आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं. जैसा की राजीव भाई की परिकल्पना थी की एक संवृद्ध भारत के लिए यहाँ के गांवों का संवृद्ध होना आवश्यक है..जब तक वो व्यक्ति जो १३० करोण के हिन्दुस्थान के आधारभूत आवश्यकता भोजन का प्रबंध करता वो खुद २ समय के भोजन से वंचित है,तब तक हिन्दुस्थान का विकास नहीं हो सकता..हम चाहें जितने भी आंकड़ों की बाजीगरी कर के विकास दर का दिवास्वप्न देख ले मगर यथार्थ के धरातल पर गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर..इसी व्यवस्था के खिलाफ शंखनाद के लिए मूल में ग्रामोत्थान के तहत कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा ,कृषि के क्षेत्र में पारम्परिक कृषि को प्रोत्साहन देकर स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता के अवसर बढ़ाने होंगे..शायद इस क्षेत्र में हजारों के तादात में स्वयंसेवक संगठन और बहुद्देशीय योजनायें चलायी जा रही हैं,मगर अपेक्षित परिणाम न देने का कारण शायद सामान्य जनमानस में इस विचारधारा के प्रति उदासीनता और बहुरष्ट्रीय कंपिनयों के मकडजाल में उलझ कर रह जाना..
इस व्यवस्था के परिवर्तन के लिए हमे खुद के व्यक्तित्व में स्वदेशी के "स्व" की भावना का मनन करना होगा उसकी महत्ता को समझना होगा.."स्व" जो मेरा है और स्वदेशी "जो मेरे देश का है,मेरे देश के लिए है"..हमें अपने अन्दर की हीन भावना और उस गुलाम मानसिकता को ख़तम करना होगा, जो ये कहता है की अमेरिका यूरोप और पाश्चात्य देशों की हर चीज आधुनिक और वैज्ञानिक है और वहां की हर विधा हमारे समाज में प्रासंगिक है, चाहे वो नारी को एक ऐसे देश में ,नग्न भोग विलासिता के एक उत्पाद के रूप में अवस्थित करना हो ,जिस देश में नारी पूज्य,शील और शक्ति का समानार्थी मानी जाती रही है..हिन्दुस्थान शायद विश्व का एकमात्र देश होगा जहाँ आज तक गुलामी की भाषा अंग्रेजी बोलना, तार्किक और आधुनिक माना जाता है और मातृभाषा हिंदी,जिसका एक एक शब्द वैज्ञानिक दृष्टि से अविष्कृत है ,बोलना पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है..ऐसी गुलाम मानसिकता विश्व के शायद ही किसी देश में देखने को मिले..इसी गुलाम मानसिकता को तोड़ने का प्रयास राजीव भाई के आन्दोलन का मूल है...यदि देश,व्यवस्था या व्यक्ति की विचारधारा को पंगु होने से बचाना है तो हमे सम्पूर्ण स्वदेशी के विचारों पर चल कर ही सफलता मिल सकती है.. विश्व का इतिहास गवाह है की किसी भी देश का उत्थान उसकी परम्परा और संस्कृति से इतर जा कर नहीं हुआ है..
व्यवस्था परिवर्तन की राह हमेशा कठिन होती है और बार बार धैर्य परीक्षा लेती है ..सफ़र शायद बहुत लम्बा हो सकता है कठिन हो सकता है मगर अंतत लक्ष्य प्राप्ति की ख़ुशी,उल्लास और संतुष्टि उससे भी मनोरम और आत्म सम्मान से परिपूर्ण ..राजीव भाई ने एक राह हम सभी को दिखाई और उस पवित्र कार्य लिए अपना जीवन तक होम कर दिया..आज उनके जन्मदिवस और पुण्य तिथि के अवसर पर आइये हम सभी आन्दोलन में अपना योगदान निर्धारित करे और एक स्वावलंबी एवं स्वदेशी भारत की नीव रखके उसे विश्वगुरु के पड़ पर प्रतिस्थापित करने में अपना योगदान दे .....शायद हम सभी की तरफ से ये एक सच्ची श्रधांजली होगी राजीव भाई और उनकी अनवरत जीवनपर्यंत साधना को...


आशुतोष नाथ तिवारी

ज़िंदगी का कुआँ

Written By S.VIKRAM on मंगलवार, 29 नवंबर 2011 | 11:51 pm


जाने क्यों तुम इसे 
मौत का कुआं कहते हो
मेरे लिए तो इसका हर ज़र्रा
ज़िंदगी से बना है
कभी ध्यान से देखो 
ये ज़िंदगी का कुआँ है

जैसे ज़िंदगी हमें
गोल गोल नचाती है 
वैसे मेरी मोटर भी 
चक्करों मे चलती है
रंग बदलता है जीवन 
नित नए जैसे
वैसे ही ये अपने
गियर बदलती है
ध्यान भटकने देना 
दोनों जगह मना है
कभी ध्यान से देखो 
ये ज़िंदगी का कुआँ है

रफ्तार सफलता की
ऊपर ले जाती है 
और आकांक्षा गुरुत्व है 
संतुलन उस से ही है
यहाँ टिकता वही है
जो सामंजस्य बना चला है
कभी ध्यान से देखो 
ये ज़िंदगी का कुआँ है

छोड़ो इन बातों को
ये सब तो बस बातें है
कभी आओ मेरे घर
मेरा घर देखो
इस कुयेँ के कारण ही
आज वहाँ भोजन बना है 
फिर कैसे कहते हो तुम
कि ये मौत का कुआँ है

कभी ध्यान से देखो 
ये ज़िंदगी का कुआँ है

कविता - दिलबाग विर्क


                            निर्णय के क्षण
कर्ण की कशमकश से सम्बन्धी कविता छः किश्तों में ब्लॉग साहित्य सुरभि पर प्रस्तुत की गई थी. यह कविता इसी शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में प्रकाशित है. इस पुस्तक को हरियाणा साहित्य अकादमी से 7500 रु का अनुदान मिला था. मेरे निजी विचारानुसार यह कविता अनुदान मिलने का प्रमुख कारण थी. सभी भागों पर मिली प्रतिक्रियाओं ने इस विचार को पुष्ट किया है. जो इसे नहीं पढ़ पाए या जो इसे इकट्ठा पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए इसके सभी लिंक यहाँ पर प्रस्तुत हैं.

* * * * *

यादगार सफर का सच...

पांच दिन से ब्लाग से पूरी तरह कटा रहा हूं, वजह कुछ खास नहीं , बस आफिस टूर पर था, कुछ स्पेशल स्टोरी शूट करने के लिए उत्तराखंड में चंपावत और खटीमा इलाके में टहल रहा था । वैसे तो मेरा इस इलाके में कई बार जाना हुआ है, पर इस बार ये दौरा मेरे लिए कुछ खास रहा । कुछ दिन पहले ही पता चला कि ब्लाग परिवार के मुखिया आद. रुपचंद्र शास्त्री जी खटीमा ( रुद्रपुर) में ही रहते हैं। मेरे रुट चार्ट में खटीमा भी शामिल था, मुझे वहां एक पूरे दिन रुकना था, क्योंकि एक स्टोरी मुझे इसी क्षेत्र में शूट करनी थी । मैने तय किया कि मुझे शास्त्री जी से मिलना चाहिए, यहां आकर भी अगर उनसे मुलाकात ना करुं तो फिर ये बात ठीक नहीं होगी ।
लेकिन सच बताऊं तो मेरे मन में कई सवाल थे, क्योंकि मुझे जुमा जुमां सात महीने हुए हैं ब्लाग पर कुछ लिखते हुए । ब्लाग लिखने वालों में दो एक लोग ही हैं, जिनसे मेरी फोन पर बात हो जाती है, वरना तो सामान्य शिष्टाचार ही निभाया जा रहा है । मेरा अभी तक एक भी ब्लागर साथी ऐसा नहीं है, जिनसे मेरी आमने सामने बात हुई हो । ऐसे में शास्त्री जी के पास जाने में कुछ दुविधा भी थी, पता नहीं शास्त्री जी मुझसे मिलना चाहेंगे या नहीं, कहीं ऐसा ना हो कि मैं फोन कर उनसे मिलने का समय मांगू और वो ये कह कर कि आज मैं व्यस्त हूं, फिर कभी मुलाकात होगी । इस तरह के सैकडों सवाल जेहन में घर बनाते जा रहे थे ।
खैर मेरा मानना है कि जब आप किसी मुश्किल में हों और उससे उबरना चाहते हों तो परिवार से कहीं ज्यादा दोस्त पर भरोसा करना चाहिए। मैने भी अपने दोस्त का सहारा लिया, उन्होंने कहा क्या बात करते हैं, आप पहले उनके पास जाएं तो, देखिए उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। अच्छा मैं इस मत का हूं कि आप किसी भी मामले में मित्रों या परिवार के सदस्यों से राय तभी लें, जब उसे आपको मानना हो। सिर्फ रायसुमारी के लिए राय नहीं ली जानी चाहिए। इसलिए जब मेरे दोस्त ने कहा कि आपको मिलना चाहिए, तो उसके बाद मेरे मन में कोई दूसरा सवाल नहीं रहा। मैने तुरंत शास्त्री जो को फोन लगाया और बताया कि मैं दिल्ली में रहता हूं और एक टीवी चैनल में काम करता हूं। मेरा एक ब्लाग है आधा सच इसमें भी कुछ लिखता रहता हूं। इस समय आपके शहर में हूं, यहां एक स्टोरी शूट करने के सिलसिले में आना हुआ है । बस दो मिनट मुलाकात करने का मन है। शास्त्री जी ने कहा कि जब चाहें यहां आएं और हम बैठकर आराम से बातें करेंगे। शास्त्री जी ने जिस तरह से पहले वाक्य को पूरा किया, लगा ही नहीं कि हम किसी ऐसे शख्स से बात कर रहे हैं, जिनसे मेरी पहली बार बात हो रही है।
मित्रों मैं तो थोड़ा उदंड हूं ना, मुझे लगा कि कहीं शास्त्री जी भूल ना जाएं कि किससे बात हुई थी, मुझे सारी बातें फिर से ना दुहरानी पड़े, लिहाजा मैने कहा चलो तुरंत सभी काम बंद करते हैं और पहले आद. शास्त्री जी से ही मुलाकात करते हैं । वैसे भी खटीमा एक छोटा सा कस्बा है। यहां लगभग सभी लोग सब को जानते हैं । उन्होंने एक नर्सिंग होम का नाम बताया और कहा कि यहां आकर किसी से पूछ लें सभी लोग मेरे बारे में बता देगें , आपको यहां पहुंचने में असुविधा नहीं होगी। फोन काटने के बाद मै अपने ड्राईवर को नर्सिंग होम के बारे में बता ही रहा था कि हमारे वहां के स्थानीय मित्र ने कहा किसी से पूछने की जरूरत नहीं, चलिए मैं घर पहुंचाता हूं, और अगले पांच मिनट के बाद ही हम शास्त्री जी के घर के बाहर खड़े थे।
हमारी गाड़ी रुकते ही शास्त्री जी खुद बाहर आ गए, बड़े ही आदर के साथ हम लोगों से मिले और हम सब उनके निवास परिसर में ही बने उनके आफिस में चले गए। दो मिनट के सामान्य परिचय के बाद लगा ही नहीं कि हम शास्त्री जी से पहली बार मिल रहे हैं। यहां मैं शास्त्री जी से माफी मांगते हुए मैं एक बात का जिक्र करना चाहता हूं कि मेरे मन मे शास्त्री जी की जो तस्वीर थी, ये उसके बिल्कुल उलट थे। मुझे लगता था कि बुजुर्ग शास्त्री जी आराम कुर्सी पर बैठे होंगे, उनका कम्प्यूटर आपरेटर उनकी बातों को कंपोज करने के बाद ब्लाग पर डालता होगा..। लेकिन ऐसा कुछ नहीं, शास्त्री जी खुद कम्प्यूटर की बारीकियों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। मैं उनके साथ बैठा, उन्होंने तुरंत मेरा ब्लाग खोला, ब्लाग खोलने में कुछ दिक्कत आई।
शास्त्री जी ने खुद ही देखा कि आखिर ऐसी क्या दिक्कत हो सकती है। उन्होंने तीन मिनट में ब्लाग की दिक्कतों को समझ लियाऔर अगले ही पल उसे दुरुस्त भी कर दिया। ब्लाग का डिजाइन बहुत ही साधारण देख उन्होंने खुद ही कहा कि चलिए इसे कुछ आकर्षक बनाते हैं। ब्लाग के बारे में दो एक बातें करने के बाद उन्होंने देखते ही देखते मेरे ब्लाग को बिल्कुल अपडेट कर दिया। मैं उनके कम्प्यूटर के प्रति प्रेम और जानकारी को देखकर हैरान था, सच बताऊं तो उन्होंने इसकी तकनीक से जुड़ी दो एक बातों के बारे में मुझसे पूछा तो मैं बगलें झांकने लगा।
बहरहाल एक घंटे की मुलाकात में मैं समझ चुका था कि शास्त्री ने जो अपना जो परिचय ब्लाग के पृष्ठ पर डाला है, वो उनका पूरा परिचय नहीं है, सच कहूं तो आधा भी नहीं । शास्त्री जी वो व्यक्तित्व हैं, जिन्हें लगता है कि लोग उनसे जितना कुछ हासिल कर सकते हैं कर लें. वो अपना पूरा ज्ञान और अनुभव युवाओं पर लुटाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम उनसे सीखना ही नहीं चाहते। मेरी छोटी सी मुलाकात के दौरान मैने महसूस किया कि वो चाहते हैं कि हमे कितना कुछ हमें दे दें, लेकिन जब हम लेने को ही तैयार नहीं होंगे तो भला वो क्या कर सकते हैं।
सच बात तो ये है कि उनके पास से उठने का मन बिल्कुल नहीं हो रहा था, पर समय और ज्यादा देर तक बैठने की इजाजत भी नहीं दे रहा था, क्योंकि पहाड़ों में शाम जल्दी हो जाती है, और शाम होते ही हमारा काम बंद हो जाता है, यानि कैमरे भी आंखें मूंद लेते हैं। इसलिए मुझे बहुत ही बेमन से कहना पडा कि शास्त्री जी अब मुझे जाना होगा। मैने महसूस किया कि शास्त्री जी का भी मन नहीं भरा था बात चीत से, वो भी चाहते थे कि हम थोड़ी देर और बातें करें, लेकिन मैने यह कह कर कि वापसी में मैं एक बार फिर आपसे मिलकर ही जाऊंगा, लिहाजा हम दोनों लोग कुछ सामान्य हुए।
हम तो चलने के लिए उठ खड़े हुए, लेकिन शास्त्री जी ये सोचते रहे कि कुछ देना अभी बाकी रह गया है, उन्होंने मुझे रोका और अपनी लिखी दो पुस्तकें मुझे भेंट कीं। सच तो ये है कि शास्त्री जी से मुलाकात की कुछ निशानी मैं भी चाहता था, लेकिन मांगने की हिम्मत भला कैसे कर सकता था, पर शस्त्री जी इसीलिए आदरणीय हैं कि वो लोगों के मन की बात को भी पढना जानते हैं। बहरहाल इस यादगार मुलाकात के हर क्षण को मैं खूबसूरती से जीना चाहता हूं।


अरे भई साधो......: अरबों की दौलत मगर किस काम की

हाल में मेरे चचेरे भाई नगेन्द्र प्रसाद रांची आये. उन्होंने एक मसला रखा जिसने कई सवाल खड़े कर दिए.. वे घाटशिला में रहते हैं. घाटशिला झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले का का एक पिछड़ा हुआ अनुमंडल है. यहां कुल आबादी में 51 % आदिवासी हैं. सिंचित ज़मीन 20 % भी नहीं. कुछ वर्षा आधारित खेती होती है लेकिन बंज़र ज़मीन काफी ज्यादा है. नगेन्द्र जी ने एक आदिवासी परिवार के बारे में बताया जिसके पास 250 बीघा ज़मीन है लेकिन आर्थिक स्थिति साधारण है. उस परिवार के युवक अपनी ज़मीन मोर्गेज रखकर यात्री बस निकालना चाहते हैं. इसमें वे मदद चाहते थे. जानकारी मिली कि आदिवासी ज़मीन मॉर्गेज नहीं होती. राष्ट्रीयकृत बैंक, प्राइवेट बैंक या प्राइवेट फाइनांसर भी इसके लिए तैयार नहीं होते. कारण है टेनेंसी एक्ट. जिसके प्रावधान के अनुसार आदिवासी ज़मीन उसी पंचायत और उसी जाति का कोई आदिवासी ही उपायुक्त की अनुमति लेकर खरीद सकता है. अन्यथा उसकी खरीद-बिक्री नहीं हो सकती. बिरसा मुंडा के आंदोलन उलगुलान के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह एक्ट बनाया था.
घाटशिला जैसे इलाके में भी इतनी ज़मीन का बाज़ार मूल्य आज की तारीख में करोड़ों नहीं अरबों में लगेगी. एक्ट की बंदिश नहीं होती तो थोड़ी ज़मीन बंधक रखकर या बेचकर वह परिवार कई बसें निकाल सकता था या नियमित आय का कुछ और स्रोत तैयार कर सकता था. एक आदिवासी वित्त निगम है जो उनकी मदद कर सकता था लेकिन बिहार से अलग हुए 11 वर्ष हो चुकने के बावजूद उसकी परिसंपत्तियों का बंटवारा नहीं हो सका है. लिहाज़ा मृत पड़ा है. अब इस परिवार के युवक बस निकालने के वैकल्पिक उपायों को ढूंढने में लगे हैं. वे सूबे के मुख्यमंत्री और सत्ता में बैठे अन्य आदिवासी नेताओं के पास आकर पूछना चाहते हैं कि जिस एक्ट ने अरबों की दौलत होने के बावजूद उन्हें पाई-पाई का मुहताज बना रखा है उस कानून में किसी तरह के संशोधन की ज़रुरत वे क्यों नहीं महसूस करते. सत्ता में बैठे आदिवासी नेता तो लाल हो गए लेकिन अलग राज्य बनने से आम आदिवासियों का क्या भला हुआ. जिस जमाने में यह कानून बना था उस ज़माने में इसकी ज़रुरत थी लेकिन आज तो यह आदिवासियों के विकास में ही बाधक बन गया है. आज किसी आदिवासी को दारू पिलाकर ज़मीन नहीं हडपी जा सकती. वे जागरूक हो चुके हैं. अब इस एक्ट की कोई ज़रुरत नहीं. लेकिन अभी आदिवासियों के बीच से यह मांग खुलकर उठ नहीं पा रही है. आदिवासी नेताओं में सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी इस बात को समझ रहे हैं और खुलकर बोल रहे है. बाकी नेता इसमें किसी तरह का परिवर्तन या संशोधन की बात उठने पर लाल कपडे के सामने सांड की तरह भड़क उठते हैं. उन्हें लगता है इससे आदिवासी नाराज हो जायेंगे और उनका वोट बैंक गड़बड़ हो जायेगा. लेकिन सैकड़ों एकड़ ज़मीन वाला आदिवासी उद्योगपति कैसे बनेगा इसका जवाब उनके पास नहीं है.

-----देवेंद्र गौतम


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बाबा "क्षमा" करना

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on सोमवार, 28 नवंबर 2011 | 3:40 pm


बाबा "क्षमा" करना 
शायद किसी की तेज रफ़्तार ने 
उसके पाँव कुचल डाले थे 
खून बिखरा दर्द से कराहता 
आँखें बंद --माँ --माँ --हाय हाय ...
अपनी आदत से मजबूर 
जवानी का जोश 
मूंछे ऐंठता -खा पी चला था - मै
तोंद पर हाथ फेरता -गुनगुनाता 
कोई  मिल जाए 
एक कविता हो जाये  !!
दर्द देख कविता आहत हुयी 
मन रोया उसे उठाया 
वंजर रास्ता - सुनसान 
जगाया -कंधे पर उसका भार लिए 
एक अस्पताल लाया !
डाक्टर  बाबू मिलिटरी के हूस 
मनहूस ! क्या जानें दर्द - आदत होगी 
खाने का समय - देखा -पर बिन रुके 
चले गए -अन्य जगह दौड़े 
उपचार दिलाये घर लाये 
धन्यवाद -दुआ ले गठरी बाँधे 
लौट चले -कच्चे घर -
झोपडी की ओर............
एक दिन फिर तेज रफ़्तार ने 
मुझे रौंदा -गठरी उधर 
सतरंगी दाने विखरे -कंकरीली सडक 
लाठी उधर - मोटा चश्मा उधर 
कुछ आगे जा - कार का ब्रेक लगा 
महाशय आये - बाबा "क्षमा" करना 
जल्दी में हूँ -कार स्टार्ट --फुर्र ..ओझल 
"भ्रमर" का दिल खिल उठा 
“आश्चर्य” का ठिकाना रहा 
किसी ने आज प्यार से 'बाबा" कहा 
“क्षमा” माँगा -एक "गरीब" ब्राह्मण से 
वो भी "माया"-“मोह” के इस ज़माने में 
जहाँ कीचरण” छूना तो दूर 
लोगनमस्ते” कहने से कतराते 
'तौहीन' समझते हैं 
सब "एक्सक्यूज" है 
दिमाग पर जोर डाला 
अतीत में खोया 
आवाज पहचानने लगा 
माथे की झुर्रियों पर बोझ डाला 
याद आया - सर चकराया 
इन्हीभद्र पुरुष”  का पाँव था कुचला 
हमने कंधे पर था ढोया
और उस दिन था ये “बीज” बोया 
या खुदा -परवरदीदार 
अपना किया धरा 
बेकार--कहाँ जाता है ??
कभी कभी तो है काम आता ?
मै यादों में पड़ा 
थोडा कुलबुलाया ..रोया 
फिर हंसा 
अपनी किस्मत पर 
और गंतव्य पर चल पड़ा ....
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल "भ्रमर" 
२१.११.२०११ यच पी 
.१८-.०८ पूर्वाह्न 

निराला युग से आगे---हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा---"अगीत" .... डा श्याम गुप्त ..

Written By shyam gupta on रविवार, 27 नवंबर 2011 | 9:05 pm

            कविता---पूर्व-वैदिक युग... वैदिक युग.... पश्च-वैदिक युग  व पौराणिक काल में वस्तुतः मुक्त-छन्द ही थी। वह ब्रह्म की भांति स्वच्छंद व बन्धन मुक्त ही थी। आन्चलिक गीतों, ऋचाओं, छन्दों, श्लोकों व विश्व भर की भाषाओं में अतुकान्त छन्दकाव्य आज भी विद्यमान है। कालान्तर में मानव-सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश, ज्ञानान्डंबर, सुखानुभूति-प्रीति हित; सन्स्थाओं, दरवारों, मन्दिरों, बन्द कमरों में काव्य-प्रयोजन हेतु, कविता छन्द-शास्त्र व अलन्करणों के बन्धन में बंधती गई तथा उसका वही रूप प्रचलित व सार्वभौम होता गया।  इस प्रकार वन-उपवन में स्वच्छंद विहार करने वाली कविता-कोकिला, वाटिकाओं, गमलों, क्यारियों में सजे पुष्पों पर मंडराने वाले भ्रमर व तितली होकर रह गयी। वह प्रतिभा प्रदर्शन व गुरु-गौरव के बोध से, नियन्त्रण व अनुशासन से बोझिल होती गयी और स्वाभाविक, ह्रदय स्पर्शी, स्वभूत, निरपेक्ष कविताविद्वतापूर्ण व सापेक्ष काव्य में परिवर्तित होती गयी, साथ ही देश, समाज़, राष्ट्र, जाति भी बन्धनों में बंधते गये। स्वतन्त्रता पूर्व की कविता यद्यपि सार्वभौम प्रभाववश छन्दमय ही है तथापि उसमें देश, समाज़, राष्ट्र को बन्धन मुक्ति की छटपटाहत व आत्मा को स्वच्छंद करने की, जन-जन प्रवेश की इच्छा है। निराला जी से पहले भी आल्हखंड के जगनिक, टैगोर की बांग्ला कविता, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिओध, पन्त आदि कवि सान्त्योनुप्रास-सममात्रिक कविता के साथ-साथ; विषम-मात्रिक-अतुकान्त काव्य की भी रचना कर रहे थे, परन्तु वो पूर्ण रूप से प्रचलित छन्द विधान से मुक्त, मुक्त-छन्द कविता नहीं थी।
यथा--- 
"दिवस का अवसान समीप था
गगन भी था कुछ लोहित हो चला
तरु-शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल-वल्लभ की विभा। "
                 -----अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिओध

"तो फ़ि क्या हुआ
सिद्ध राज जयसिंह
मर गया हाय
तुम पापी प्रेत उसके। "
                           ------मैथिली शरण गुप्त

"विरह, अहह, कराहते इस शब्द को
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा। "
                            -----सुमित्रा नन्दन पन्त 
               
इस काल में भी गुरुडम, प्रतिभा प्रदर्शन मे संलग्न अधिकतर साहित्यकारों, कवियों, राजनैतिज्ञों का ध्यान राष्ट्र-भाषा के विकास पर नहीं था। निराला ने सर्वप्रथम बाबू भारतेन्दु व महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को यह श्रेय दिया। निराला जी वस्तुत काव्य को वैदिक साहित्य के अनुशीलन में, बन्धन मुक्त करना चाहते थे ताकि कविता के साथ-साथ ही व्यक्ति , समाज़, देश, राष्ट्र की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो सके। "परिमल" में वे तीन खंडों में तीन प्रकार की रचनायें प्रस्तुत करते हैं। अन्तिम खंड की रचनायें पूर्णतः मुक्त-छंद कविताएं हैं। हिन्दी के उत्थान, सशक्त बांगला से टक्कर, प्रगति की उत्कट ललक व खडी बोली को सिर्फ़ आगरा के आस-पास की भाषा समझने वालों को गलत ठहराने और खड़ी बोली कीजो शुद्ध हिन्दी थी व राष्ट्र भाषा होने के सर्वथा योग्य, उपयुक्त व हकदार थीसर्वतोमुखी प्रगति व बिकास की ललक में निराला जी कविता को स्वच्छंन्द व मुक्त छंद करने को कटिबद्ध थे। इस प्रकार मुक्त-छंद, अतुकान्त काव्य व स्वच्छद कविता की स्थापना हुई। 
                   
परंतु निराला युग या स्वय निराला जी की अतुकान्त कविता, मुख्यतयाः छायावादी, यथार्थ वर्णन, प्राचीनता की पुनरावृत्ति, सामाजिक सरोकारों का वर्णन, सामयिक वर्णन, राष्ट्र्वाद तक सीमित थी। क्योंकि उनका मुख्य उद्धेश्य कविता को मुक्त छन्द मय करना व हिन्दी का उत्थान, प्रतिष्ठापन था। वे कवितायें लम्बी-लम्बी, वर्णानात्मक थीं, उनमें वस्तुतः आगे के युग की आधुनिक युगानुरूप आवश्यकता-सन्क्षिप्तता के साथ तीव्र भाव सम्प्रेषणता, सरलता, सुरुचिकरता के साथ-साथ, सामाजिक सरोकारों के समुचित समाधान की प्रस्तुति का अभाव था। यथा---कवितायें,   "अबे सुन बे गुलाब.....";"वह तोड़ती पत्थर....." ; "वह आता पछताता ...." उत्कृष्टता, यथार्थता, काव्य-सौन्दर्य के साथ समाधान का प्रदर्शन नहीं है। उस काल की मुख्य-धारा की नयी-नयी धाराओं-अकविता, यथार्थ-कविता, प्रगतिवादी कविता-में भी समाधान प्रदर्शन का यही अभाव है।
यथा-- 
 
"तीन टांगों पर खड़ा
नत ग्रीव
धैर्य-धन गदहा"......       अथवा-- 
 
"वह कुम्हार का लड़का
और एक लड़की
भैंस की पीठ पर कोहनी टिकाये
देखते ही देखते चिकोटी काटी 
और......."

इनमें आक्रोश, विचित्र मयता, चौंकाने वाले भाव तो है, अंग्रेज़ी व योरोपीय काव्य के अनुशीलन में; परन्तु विशुद्ध भारतीय चिन्तन व मंथन से आलोड़ित व समाधान युक्त भाव नहीं हैं। इन्हीं सामयिक व युगानुकूल आवश्यकताओं के अभाव की पूर्ति व हिन्दी भाषा , साहित्य, छंद-शास्त्र व समाज के और अग्रगामी, उत्तरोत्तर व समग्र विकास की प्राप्ति हेतु नवीन धारा  "अगीत" का आविर्भाव हुआ, जो निराला-युग के काव्य-मुक्ति आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए भी उनके मुक्त-छंद काव्य से पृथक अगले सोपान की धारा है। यह धारा, सन्क्षिप्तता, सरलता, तीव्र-भाव सम्प्रेषणता व सामाजिक सरोकारों के उचित समाधान से युक्त युगानुरूप कविता की कमी को पूरा करती है। उदाहरणार्थ----

"कवि- 
चिथड़े पहने
चखता संकेतों का रस
रचता-रस, छंद, अलंकार
ऐसे कवि के
क्या कहने। "   ( अगीत )
                       --------डा रंगनाथ मिश्र सत्य

"अज्ञान तमिस्रा को मिटाकर
आर्थिक रूप से समृद्ध होगी
प्रबुद्ध होगी
नारी !, तू तभी स्वतन्त्र होगी। " ( नव अगीत )
                               ------ श्रीमती सुषमा गुप्ता

"संकल्प ले चुके हम
पोलिओ-मुक्त जीवन का
धर्म और आतंक के - 
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम। " ( अगीत )
                    -----महाकवि श्री जगत नारायण पान्डेय

" सावन सूखा बीत गया तो
दोष बहारों को मत देना
तुमने सागर किया प्रदूषित" ( त्रिपदा अगीत )
                    -----डा. श्याम गुप्त 
                   
इस धारा "अगीत" का प्रवर्तन सन १९६६ ई. में काव्य की सभी धाराओं मे निष्णात, कर्मठ व उत्साही वरिष्ठ कवि डा रंग नाथ मिश्र सत्यने लखनऊ से किया। तब से यह विधा, अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा विभिन्न रचनाओं, काव्य-संग्रहों, अगीत -खण्ड-काव्यों व महा काव्यों आदि से समृद्धि के शिखर पर चढ़ती जा रही है। 
इस प्रकार निश्चय ही अगीत, अगीत के प्रवर्तक डा. सत्य व अगणित रचनाकार , समीक्षक व रचनायें, निराला-युग से आगे, हिन्दी, हिन्दी सा्हित्य, व छन्द शास्त्र के विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकायें हैं, जिसे अन्य धारायें, यहां तक कि मुख्य धारा गीति-छन्द विधा भी नहीं उठा पाई; अगीत ने यह कर दिखाया है, और इसके लिये कृत-संकल्प है। 
                                                                                



Founder

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Saleem Khan