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ग़ज़लगंगा.dg: उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए

Written By devendra gautam on शनिवार, 13 दिसंबर 2014 | 12:43 pm

उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए

सबकी नज़रों से जुदा हो जाए.
उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए.

चीख उसके निजाम तक पहुंचे
वर्ना गूंगे की सदा हो जाए.

अपनी पहचान साथ रहती है
वक़्त कितना भी बुरा हो जाए.

थक चुके हैं तमाम चारागर
दर्द से कह दो दवा हो जाए.

उसके साए से दूर रहता हूं
क्या पता मुझसे खता हो जाए.

कुछ भला भी जरूर निकलेगा
जितना होना है बुरा हो जाए.

होश उसको कभी नहीं आता
जिसको दौलत का नशा हो जाए.

घर में बच्चा ही कहा जाएगा
चाहे जितना भी बड़ा हो जाए.

-देवेंद्र गौतम

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काली कमाई का सबसे सुरक्षित ठिकाना बैंक लॉकर !

Written By Swarajya karun on मंगलवार, 18 नवंबर 2014 | 8:11 am


                                                                                                               -स्वराज्य करुण
      भ्रष्टाचार और काला धन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं . दोनों एक-दूजे के लिए ही बने हैं और एक-दूजे के फलने-फूलने के लिए ज़मीन तैयार करते रहते हैं . यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों एकदम सगे मौसेरे भाई हैं. भ्रष्टाचार से अर्जित करोड़ों-अरबों -खरबों की दौलत को छुपाकर रखने के लिए तरह -तरह की जुगत लगाई जाती है . भ्रष्टाचारियों द्वारा इसके लिए अपने नाते-रिश्तेदारों ,नौकर-चाकरों और यहाँ तक कि कुत्ते-बिल्लियों के नाम से भी बेनामी सम्पत्ति खरीदी जाती है . बेईमानी की कालिख लगी दौलत अगर छलकने लगे तो सफेदपोश चोर-डाकू उसे अपने बिस्तर और यहाँ तक कि टायलेट में भी छुपाकर रख देते हैं . .हालांकि देश के सभी राज्यों में हर साल और हर महीने कालिख लगी कमाई करने वाले सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के घरों पर छापेमारी चलती रहती है ,करोड़ों -अरबों की अनुपातहीन सम्पत्ति होने के खुलासे भी मीडिया में आते रहते हैं .
     आपको यह जानकर शायद हैरानी होगी कि हमारे देश के राष्ट्रीयकृत और निजी क्षेत्र के बैंक भी भ्रष्टाचारियों  की   बेहिसाब दौलत को छुपाने का सबसे सुरक्षित ठिकाना बन गए हैं .जी हाँ !  ये बैंक  जाने-अनजाने इन भ्रष्ट लोगों की मदद कर रहे हैं और उनकी काली कमाई के अघोषित संरक्षक बने हुए हैं  ! वह कैसे ? तो जरा विचार कीजिये ! प्रत्येक बैंक में  ग्राहकों को लॉकर रखने की भी सुविधा मिलती है .हालांकि सभी खातेदार इसका लाभ नहीं लेते ,लेकिन कई इच्छुक खातेदारों को बैंक शाखाएं  निर्धारित शुल्क पर लॉकर आवंटित करती हैं  .उस लॉकर में आप क्या रखने जा रहे हैं , उसकी कोई सूची बैंक वाले नहीं बनाते . उन्हें केवल अपने लॉकर के किराए से ही मतलब रहता है . लॉकर-धारक से उसमे रखे जाने वाले सामानों की जानकारी के लिए कोई फ़ार्म नहीं भरवाया जाता .  .आप सोने-चांदी ,हीरे-जवाहरात से लेकर  बेहिसाब नोटों के बंडल तक उसमे रख सकते हैं . एक मित्र ने मजाक में कहा - अगर आप चाहें तो अपने बैंक लॉकर में दारू की बोतल और अफीम-गांजा -भांग जैसे नशीले पदार्थ भी जमा करवा सकते हैं .
          कहने का मतलब यह  कि बैंक वाले अपनी शाखा में लॉकर की मांग करने वाले किसी भी ग्राहक  को निर्धारित किराए पर लॉकर उपलब्ध करवा कर अपनी ड्यूटी पूरी मान  लेते हैं  .हाल ही में कुछ अखबारों में यह समाचार पढ़ने को मिला कि   एक भ्रष्ट अधिकारी के बैंक लॉकर होने की जानकारी मिलने पर जांच दल ने जब उस बैंक में उसे साथ ले जाकर लॉकर खुलवाया तो उसमे पांच लाख रूपए नगद मिले ,जबकि उसमे विभिन्न देशों के बासठ नोटों के अलावा कई विदेशी सिक्के भी उसी लॉकर से बरामद किये गए ..उसके ही एक अन्य बैंक के लॉकर में करोड़ों रूपयों की जमीन खरीदी से संबंधित रजिस्ट्री के अनेक दस्तावेज भी पाए गए .जरा सोचिये ! इस व्यक्ति ने  पांच लाख रूपये की नगद राशि को अपने बैंक खाते में जमा क्यों नहीं किया ? उसने इतनी बड़ी रकम को लॉकर में क्यों रखा ? फिर उस लॉकर में विदेशी नोटों और विदेशी सिक्कों को रखने के पीछे  उसका इरादा क्या था ? हमारे जैसे लोगों के लिए तो  पांच लाख रूपये भी बहुत बड़ी रकम होती है .इसलिए मैंने इसे 'इतनी बड़ी रकम' कहा .
          बहरहाल हमारे  देश में बैंकों के लॉकरों में पांच लाख तो क्या , पांच-पांच करोड रूपए रखने वाले भ्रष्टाचारी भी होंगे .आम धारणा है कि भारत के काले धन का जितना बड़ा जखीरा विदेशी बैंकों में है ,उससे कहीं ज्यादा काला धन देश में ही छुपा हुआ है और तरह-तरह के काले कारोबार में उसका धडल्ले से इस्तेमाल हो रहा है . ऐसा लगता है कि बैंक लॉकर भी काले-धन को सुरक्षित रखने का एक सहज-सरल माध्यम   बन गए हैं .ऐसे में अगर देश के भीतर छुपाकर रखे गए काले धन को उजागर करना हो तो सबसे पहले तमाम बैंक-लॉकर धारकों के लिए यह कानूनन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे अपने लॉकर में रखे गए सामानों की पूरी जानकारी बैंक-प्रबंधन को दें .ताकि उसका रिकार्ड सरकार को भी मिल सके .अगर लॉकर धारक ऐसा नहीं करते हैं तो उनके लॉकर जब्त कर लिए जाएँ . मुझे लगता है कि ऐसा होने पर  अरबों-खरबों रूपयों का काला धन अपने आप बाहर आने लगेगा और उसका उपयोग देश-हित में किया जा सकेगा .(स्वराज्य करुण )

शरीर, आत्मा, मैं और तुम

Written By Anurag Anant on मंगलवार, 11 नवंबर 2014 | 11:39 am

जब जब तुम्हारी आत्मा तक जाना चाहा है
तुम्हारा शरीर मिला है
एक रूकावट की तरह
एक रास्ते की तरह
उससे उलझा हूँ जब जब
उलझ ही गया हूँ बस 
उस पर चला हूँ जब जब 
चलता ही गया हूँ बस

शरीर, आत्मा, मैं और तुम
एक दूसरे की ओर चलते रहे
और बढ़ते रहे फासले
हर कदम के साथ
कितना अजब सफ़र है
कितने अजब मुसाफिर
और कितनी अजब राह है ये
--अनुराग अनंत

सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों की असलियत !

Written By Swarajya karun on रविवार, 9 नवंबर 2014 | 1:27 pm

निजी क्षेत्र में सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों के नाम पर लूट-मार जारी है. हालांकि अपवाद स्वरुप कुछ अच्छे अस्पताल और अच्छे डॉक्टर भी होते हैं , जिनमे  परोपकार और समाज  सेवा  की भावना जीवित है ,लेकिन अधिकाँश अस्पतालों की व्यवस्था देखकर लगता है कि मानवता खत्म हो गई है .अपने एक मित्र के बीमार पिताजी को देखने एक ऐसे ही स्वनाम धन्य अस्पताल गया तो मित्र ने बताया --- इस अस्पताल के डॉक्टरों की आपसी बातचीत अगर सुन लें तो आपको डॉक्टर और हैवान में कोई अन्तर नज़र नहीं आएगा .ये डॉक्टर अपने लंच टाईम में आपसी चर्चा में मरीजों को क्रिकेट का 'विकेट' कहते हैं. .एक डॉक्टर दूसरे से कहता है -आज चार विकेट आए थे ,एक विकेट गिरा है .

 दरअसल  सुपर स्पेशलिटी में स्पेशल बात ये होती है कि वहाँ किसी गंभीर मरीज को ले जाने के बाद सबसे पहले बिलिंग काऊंटर में बीस-पच्चीस या पचास हजार रूपए जमा करवा लिए जाते हैं . उसके बाद शुरू होता है असली लूट -खसोट का सिलसिला . मरीज को आई.सी. यू .में भर्ती करने के बाद तरह-तरह के मेडिकल टेस्ट करवाने और हर दो -चार घंटे बाद नई -नई दवाइयों की लिस्ट उसके परिजन को थमा दी जाती है .उसी अस्पताल के परिसर में अस्पताल मालिक का मेडिकल स्टोर भी होता है .यह मरीज के घर के लोगों के लिए सुविधा की दृष्टि से तो ठीक है ,लेकिन वहाँ दवाईयां मनमाने दाम पर खरीदना उनकी मजबूरी हो जाती है.मरीज को छोड़कर ज्यादा दूर किसी मेडिकल स्टोर तक जाने -आने का जोखिम उठाना ठीक भी नहीं लगता . खैर किसी तरह अगर दवाई खरीद कर डॉक्टर को दे दी जाए तो उसके बाद यह पता भी नहीं चलता कि उन सभी दवाइयों का इस्तेमाल मरीज के लिए किया गया है या नहीं ?गौर तलब है कि आई.सी. यू. में मरीज के साथ हर वक्त उसके परिजन को मौजूद रहने की अनुमति नहीं होती .उसे बाहर ही बैठकर इन्तजार करना होता है .वह बड़ी व्याकुलता से समय बिताता है. उसे केवल आई.सी.यू. में दाखिल अपने प्रियजन के स्वास्थ्य की चिन्ता रहती है,लिहाजा डॉक्टर से कई प्रकार के मेडिकल टेस्ट का और मरीज के लिए खरीदी गयी दवाइयों के उपयोग का हिसाब मांगने की बात उसके मन में आती ही नहीं. इसका ही बेजा फायदा उठाते हैं कथित सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों के मालिक और डॉक्टर .वैसे इस प्रकार के ज्यादातर अस्पतालों के मालिक स्वयं डॉक्टर होते हैं .सरकार तो जन-कल्याण अच्छे  इरादे के साथ गरीब परिवारों को स्मार्ट -कार्ड देकर उन्हें सालाना एक निश्चित राशि तक निशुल्क इलाज की सुविधा देती है यह सुविधा पंजीकृत अस्पतालों में दी जाती है ,लेकिन वहाँ डॉक्टर कई स्मार्ट कार्ड धारक परिवार के किसी एक सदस्य के एक बार के इलाज में ही अनाप-शनाप खर्च बताकर स्मार्ट कार्ड की पूरी राशि निकलवा लेते हैं.
     दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी अस्पताल हैं ,जहां गंभीर से गंभीर बीमारियों का मुफ्त इलाज होता है.जैसे - नया रायपुर और पुट्टपर्थी  स्थित श्री सत्य साईसंजीवनी अस्पताल ,जहां जन्मजात ह्रदय रोगियों का पूरा इलाज और ऑपरेशन मुफ्त किया जाता है .यह एक ऐसा अस्पताल है ,जहाँ कोई बिलिंग काऊंटर नहीं है. मरीजों के और उनके सहायकों के लिए भोजन और आवास की व्यवस्था भी निशुल्क है .-स्वराज्य करुण

(पुस्तक चर्चा ) भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर एक जरूरी किताब

Written By Swarajya karun on शनिवार, 8 नवंबर 2014 | 6:07 pm

   संगीत की अपनी भाषा होती है ,जो दुनिया के हर इंसान के दिल को छू जाती है और चाहे कोई देश-प्रदेश हो या विदेश,  कहीं का भी संगीत , कहीं के भी इंसान को सहज ही अपनी ओर आसानी से खींच लेता है.  भारतीय संगीत और वाद्य यंत्रों की भी अपनी कई विशेषताएं हैं .उनकी उत्पत्ति का अपना इतिहास है .   अवनद्ध वाद्य भी इनमे अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं . संगीत में अवनद्ध वाद्यों की जरूरत भोजन का जायका बढ़ाने वाली  मसालेदार सब्जियों और स्वादिष्ट चटनियों की तरह है . 
      भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर  डॉ.जवाहरलाल नायक का शोध-ग्रन्थ लगभग तीस साल बाद पुस्तक के रूप में सामने आया है .लेखक के अनुसार  चमड़े से ढंके वाद्य-यंत्रों के बारे में शायद अपने किस्म की यह पहली शोध पुस्तक है .. डॉ जवाहर नायक छत्तीसगढ़ में महानदी के किनारे ग्राम लोधिया (जिला -रायगढ़ ) के निवासी हैं. मध्यप्रदेश के जमाने में उस जिले के सरिया क्षेत्र से विधायक भी रह चुके हैं .उनकी पहचान एक कुशल तबला वादक के रूप में भी है .उन्होंने छत्तीसगढ़ के इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से तबले में एम .ए. की उपाधि प्राप्त की है.और इसी विश्वविद्यालय से भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर पी.एच-डी की है. 
      डॉ. नायक के अनुसार चर्म-आच्छादित वाद्यों जैसे तबला , पखावज ,मृदंग खंजरी , डफ ,ढोलक, ,आदि के लिए 'अवनद्ध ' संज्ञा दी गयी है. उन्होंने इस बारे में पुस्तक में अवनद्ध वाद्य  यंत्रों  के बारे में कई विद्वानों की परिभाषाएं भी संकलित की हैं .स्वर्गीय डॉ. लालमणि मिश्र के अनुसार -वे वाद्य जो भीतर से पोले तथा चमड़े से मढ़े हुए होते हैं और हाथ या किसी अन्य वस्तु के ताड़न से ध्वनि या शब्द उत्पन्न करते हैं ,उन्हें 'अवनद्ध ' या ' वितत ' भी कहा गया है. डॉ. जवाहर नायक ने 407 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक मे भारतीय अवनद्ध वाद्यों का वर्गीकरण करते हुए प्राचीन काल के अवनद्ध वाद्यों , मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों और आधुनिक अवनद्ध वाद्यों का दिलचस्प विश्लेषण किया है. सर्वाधिक प्रचलित अवनद्ध वाद्य 'तबला ' पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है.प्रत्येक अवनद्ध वाद्यकी उत्पत्ति, बनावट, निर्माण विधि की जानकारी भी इसमें दी गयी है. 
        शोध-ग्रन्थ नौ अध्यायों में है. विषय प्रवेश के साथ पहले अध्याय में अवनद्ध वाद्य : शब्द व्युत्पत्ति , परिभाषा , अवनद्ध वाद्यों की निर्माण सामग्री , अवनद्ध वाद्यों का महत्व और उत्पत्ति का संक्षिप्त विवेचन है . दूसरे अध्याय में अवनद्ध वाद्यों का वर्गीकरण किया गया है. तीसरे अध्याय में भारत के प्राचीन अवनद्ध  वाद्य यंत्रों का उल्लेख है .इसमें भूमि- दुन्दुभि ,  दुन्दुभि , केतुमत और मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों पर प्रकाश डाला गया है. चौथे अध्याय में संजा , धोंसा , तम्बकी , ढक्का, हुडुक जैसे  मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों पर, पांचवें अध्याय में खंजरी , दफ़ , दुक्कड , दमामा , ढोल  जैसे आधुनिक अवनद्ध वाद्यों पर और छठवें अध्याय में सर्वाधिक प्रचलित अवनद्ध वाद्य 'तबला' पर शोधकर्ता लेखक ने ज्ञानवर्धक जानकारी दी है. सातवें अध्याय में प्रमुख भारतीय अवनद्ध वाद्यों के अनेक प्रसिद्ध वादकों का परिचय दिया गया है .लेखक ने आठवें अध्याय में पाश्चात्य अवनद्ध वाद्यों का विश्लेषण किया है .इसमें लेखक डॉ.नायक की  ये पंक्तियाँ संगीत कला को लेकर उनके व्यापक और प्रगतिशील नज़रिए को प्रकट करती हैं - पाश्चात्य और हिन्दुस्तानी ,इन दो संगीत पद्धतियों के नाम से सभी संगीत रसिक परिचित हैं .दोनों ही संगीत पद्धतियाँ अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं .आज वैज्ञानिक विकास के युग में जब सम्पूर्ण विश्व की दूरी नगण्य -सी हो गई है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सांस्कृतिक उपलब्धियों का पूर्ण सहिष्णुता के आधार पर समाकलन प्रस्तुत करें ,जिससे विस्तृत वसुन्धरा के प्रत्येक कला में स्वाभाविक सामंजस्य स्थापित हो सके .समय की आवाज को यदि आज के परिवेश में सही रूप से पहचाना जाए तो प्रत्येक विचारधारा का निष्कर्ष राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर विश्व-बन्धुता की प्रेरणा प्रदान करता हुआ मिलेगा .
           शोधार्थी डॉ. नायक के अनुसार भारतीय अवनद्ध वाद्यों के स्वतंत्र अध्ययन की दृष्टि से संभवतः यह पहला प्रयास है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ और इंदिरा संगीत एवं कला विश्वविद्यालय के पूर्व उप-कुलपति स्वर्गीय डॉ. अरुण कुमार सेन के मार्ग दर्शन में यह शोध-कार्य पूर्ण किया था . लगभग तीस साल के लंबे अंतराल के बाद वर्ष .2012 में डॉ. नायक की मेहनत पुस्तक के रूप में सामने आयी .उन्हें बहुत-बहुत बधाई. (स्वराज्य करुण )

क्या सपना ही रह जाएगा अपने मकान का सपना ?

Written By Swarajya karun on मंगलवार, 4 नवंबर 2014 | 2:05 pm

           आधुनिक भारतीय समाज में यह आम धारणा है कि इंसान को अपनी कमाई बैंकों में जमा करने के बजाय ज़मीन में निवेश  करना चाहिए . कई लोग ज़मीन खरीदने में पूँजी लगाने को बैंकों में  'फिक्स्ड  डिपौजिट' करने जैसा मानते हैं . यह भी आम धारणा है कि सोना खरीदने से ज्यादा फायदा ज़मीन खरीदी में है . समाज में प्रचलित इन धारणाओं में काफी सच्चाई है, जो साफ़ नज़र आती है .  अपने शहर में किसी ने आज से पचीस साल पहले अगर दो हजार वर्ग फीट जमीन कहीं बीस रूपए प्रति वर्ग फीट के भाव से चालीस हजार रूपए में खरीदी थी तो आज उसकी कीमत चालीस लाख रूपए हो गयी है . पीछे  मुड़कर बहुत दूर तक देखने की जरूरत नहीं है .याद कीजिये तो पाएंगे कि  छोटे और मंझोले शहरों में आज से सिर्फ दस  साल पहले एक हजार  वर्ग फीट वाले जिस मकान की कीमत छह -सात लाख रूपए थी आज वह बढकर पैंतीस-चालीस लाख रूपए की हो गयी है . कई कॉलोनियां ऐसी बन रही हैं ,जहां एक करोड ,दो करोड और पांच-पांच करोड के भी मकान बिक रहे हैं .उन्हें खरीदने वाले कौन लोग हैं और उनकी आमदनी का क्या जरिया है , इसका अगर ईमानदारी से पता लगाया जाए तो काले धन के धंधे वालों के कई चौंकाने वाले रहस्य उजागर होंगे .प्रापर्टी का रेट शायद ऐसे ही लोगों के कारण तेजी से आसमान छूने लगा है . प्रापर्टी डीलिंग का काम करने वाले कुछ बिचौलियों की भी इसमें काफी संदेहास्पद भूमिका हो सकती है .  कॉलोनियां बनाने वालों के लिए यह कानूनी रूप से अनिवार्य है कि वे उनमे दस-पन्दरह प्रतिशत मकान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए भी बनवाएं ,लेकिन अधिकाँश निजी बिल्डर इस क़ानून का पालन नहीं करते और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता .जमीन और मकानों की  कीमतें  इस तरह बेतहाशा बढने के पीछे क्या गणित है ,यह कम से कम मुझ जैसे सामान्य इंसान की समझ से बाहर है ,लेकिन इस रहस्यमय मूल्य वृद्धि की वजह से  गरीबों और सामान्य आर्थिक स्थिति वालों पर जो संकट मंडराने लगा है , वह देश और समाज दोनों के भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है. जब किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति या उसके परिवार को रहने के लिए एक अदद मकान नहीं मिलेगा तो उसके दिल में सामाजिक व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से आक्रोश पैदा होगा .अगर यह आक्रोश सामूहिक रूप से प्रकट होने लगे तो फिर क्या होगा ? सोच कर ही  डर लगता है .

        यह एक ऐसी समस्या है जिस पर सरकार और समाज दोनों को मिलकर विचार करना और कोई रास्ता निकालना चाहिए . रोटी और कपडे का जुगाड तो इंसान किसी तरह कर लेता है ,लेकिन अपने परिवार के लिए मकान खरीदने या बनवाने में उसे पसीना आ जाता है.  खुद का मकान होना सौभाग्य की बात होती है ,लेकिन यह सौभाग्य हर किसी का नहीं होता . खास तौर पर शहरों में यह एक गंभीर समस्या बनती जा रही है . जैसे-जैसे रोजी-रोटी के लिए , सरकारी और प्राइवेट नौकरियों के लिए ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर पलायन हो रहा है , यह समस्या और भी विकराल रूप धारण कर रही है .जहां आज से कुछ साल पहले शहरों में आवासीय भूमि की कीमत पच्चीस-तीस या पचास  रूपए प्रति वर्ग फीट के आस-पास हुआ करती थी ,आज वहाँ  उसका  मूल्य सैकड़ों और हजारों रूपए वर्ग फीट हो गया है . ऐसे में कोई निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार स्वयं के घर का सपना कैसे साकार कर पाएगा ?
        सरकारी हाऊसिंग  एजेंसियां शहरों में लोगों को सस्ते मकान देने का दावा करती हैं ,लेकिन उनकी कीमतें भी इतनी ज्यादा होती हैं कि  उनका मकान  खरीद पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता .इधर निजी क्षेत्र के बिल्डरों की भी  मौज ही मौज है . अगर किसी मकान की प्रति वर्ग फीट निर्माण लागत अधिकतम एक हजार  रूपए प्रति वर्ग फीट हो तो सीधी-सी बात है कि  पांच सौ वर्ग फीट का मकान पांच  लाख रूपए में बन सकता है .लेकिन बिल्डर लोग इसे पन्द्रह -बीस लाख रूपए में बेचते हैं ,यानी निर्माण लागत का तिगुना -चौगुना दाम वसूल करते हैं . ज़ाहिर है कि गरीब या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार के लिए खुद के मकान का सपना आसानी से साकार नहीं हो सकता . ऐसे में सरकार को अलग-अलग आकार के मकानों की  प्रति वर्ग फीट  एक निश्चित निर्माण लागत तय कर देनी  चाहिए ,जो  सरकारी तथा निजी दोनों तरह के बिल्डरों के लिए अनिवार्य हो . शहरों में आवासीय ज़मीन की बेलगाम बढती कीमतों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है . अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश के शहरों में अधिकाँश लोगों के लिए अपने मकान  का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाएगा .(स्वराज्य करुण )

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: शत प्रतिशत Shat Pratishat

Written By नीरज द्विवेदी on सोमवार, 20 अक्तूबर 2014 | 4:11 pm

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: शत प्रतिशत Shat Pratishat: शत प्रतिशत तुम होती हो तो ये सच है कि सब कुछ मेरे मन का नहीं होता मेरी तरह से नहीं होता मेरे द्वारा नहीं होता मेरे लिए न...

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: तुम्हारे बिना भी Tumhare Bina Bhi

Written By नीरज द्विवेदी on शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014 | 5:01 pm

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: तुम्हारे बिना भी Tumhare Bina Bhi: मैं खुश रहता हूँ, आज कल भी तुम्हारे बिना भी पर तुम्हे पता है कि मुझे कितनी हिम्मत जुटानी पड़ती है कितनी जद्दोजेहद करनी पड़ती है ...

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: एक वृक्ष की शाख हैं हम Ek Vriksh Ki Shakh Hai Ham

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 15 अक्तूबर 2014 | 6:45 pm

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: एक वृक्ष की शाख हैं हम Ek Vriksh Ki Shakh Hai Ham:

विंध्य हिमाचल से निकली जो,

उस धारा की गति प्रवाह हम,

मार्ग दिखाने इक दूजे को,

बुजुर्ग अनुभव की सलाह हम,

फटकार हैं हम, डांट हैं हम, एक वृक्ष की शाख हैं हम।

.....

......

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: क्षणिका - जल्दी बीतो न Jaldi Beeton Na

Written By नीरज द्विवेदी on मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014 | 10:06 pm

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: क्षणिका - जल्दी बीतो न Jaldi Beeton Na:



जल्दी बीतो न,
दिन,
रात
और दूसरे समय के टुकड़ों ...
तेज चलो न
घडी की सुईयों
धक्का दूँ क्या ....
ये टिक टिक
जल्दी जल्दी टिक टिकाओ न …
तुम्हारा क्या जाता है
पर मेरा जाता है। 

-- नीरज द्विवेदी

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: जब समझ जाओ, तब तुम मुझको समझाना Jab Samajh Jao, Ta...

Written By नीरज द्विवेदी on रविवार, 7 सितंबर 2014 | 5:31 pm

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: जब समझ जाओ, तब तुम मुझको समझाना Jab Samajh Jao, Ta...:




जो बीत रहा वो करे व्यक्त
शब्दों में चाह अधूरी हो
मन सिसक सिसक कर रोता है
जब चुप रहना मज़बूरी हो ....

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: तन्हाईयाँ Tanhayiyan

Written By नीरज द्विवेदी on शुक्रवार, 29 अगस्त 2014 | 8:47 am

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: तन्हाईयाँ Tanhayiyan:



मेरी तन्हाईयाँ
आज पूछती है मुझसे

कि वो भूले बिसरे हुए गमजदा आँसू
जो निकले तो थे
तुम्हारी आँखों की पोरों से
पर जिन्हें कब्र तक नसीब नहीं हुयी
जमीं तक नसीब नहीं हुयी

जो सूख गए ....

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: गीत - तरस रहीं दो आँखें Taras Rahin Do Ankhein

Written By नीरज द्विवेदी on शनिवार, 23 अगस्त 2014 | 12:42 pm

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: गीत - तरस रहीं दो आँखें Taras Rahin Do Ankhein:



तरस रहीं दो आँखें बस इक अपने को

मोह नहीं छूटा जीवन का,
छूट गए सब दर्द पराए,
सुख दुख की इस राहगुजर में,
स्वजनों ने ही स्वप्न जलाए,
अब तो बस कुछ नाम संग हैं, जपने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपने को।

जर्जरता जी मनुज देह की, ....

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: गीत - तरस रहीं दो आँखें Taras Rahin Do Ankhein

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: गीत - तरस रहीं दो आँखें Taras Rahin Do Ankhein:



तरस रहीं दो आँखें बस इक अपने को

मोह नहीं छूटा जीवन का,
छूट गए सब दर्द पराए,
सुख दुख की इस राहगुजर में,
स्वजनों ने ही स्वप्न जलाए,
अब तो बस कुछ नाम संग हैं, जपने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपने को।

जर्जरता जी मनुज देह की, ....

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: चलो मिलाकर हाथ चलें Chalo Milakar Hath Chalein

Written By नीरज द्विवेदी on मंगलवार, 19 अगस्त 2014 | 10:29 am

Life is Just a Life - Neeraj Dwivedi: चलो मिलाकर हाथ चलें Chalo Milakar Hath Chalein:

चलो मिलाकर हाथ चलें, संघ मार्ग पर साथ चलें,

आसमान में फर फर देखो,
फहर रहा भगवा ध्वज अपना,
कर्म रहा पाथेय हमारा,
रचा बसा है बस इक सपना,
एक हो हिन्दुस्तान हमारा, मात्र यही प्रण साध चलें,
चलो मिलाकर हाथ चलें, संघ मार्ग पर साथ चलें ..... 
....

Written By kavisudhirchakra.blogspot.com on मंगलवार, 5 अगस्त 2014 | 9:09 pm

मित्रों प्रणाम, आप सबके स्नेह से मुझे तुलसी जयंती पर भोपाल के हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में दिनांक 3 अगस्त 2014 को मध्य प्रदेश तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा वर्ष 2014 का "तुलसी सम्मान" प्रदान किया गया। संबंधित चित्र संलग्न है। डॉ सुधीर गुप्ता "चक्र" (हास्य-व्यंग्य कवि)

Life is Just a Life: मुँहबंदी का रोजा Munhbandi Ka Roja

Life is Just a Life: मुँहबंदी का रोजा Munhbandi Ka Roja: मेरठ पर न बोल सके तो जरा सहारनपुर पर बोलो, जबरन धर्म बदलने की इस कोशिश पर ही मुँह खोलो, क्या चुप ही रहोगे जब तक पीड़ित रिश्तेदार न हो...

Life is Just a Life: उस एक दिन Us Ek Din

Written By नीरज द्विवेदी on शनिवार, 5 जुलाई 2014 | 11:09 am

Life is Just a Life: उस एक दिन Us Ek Din: एक दिन मैं चल पड़ूँगा, दूरियाँ कुछ तय करूँगा। समय की झुर्री में संचित, उधार का जीवन समेटे, इस धूल निर्मित देह में ही, चाह की चादर ...

90 करोड़ लोगों के क्या कोई जज्बात नहीं हैं

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शुक्रवार, 20 जून 2014 | 5:57 pm

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हिंदी को लेकर भारत में हमेशा ही कलह की स्थिति रही है। इसकी खास वजह लोगों के सेंटीमेंट नहीं हैं, बल्कि सियासी सेंटीमेंट्स हैं। हिंदी को जब राज्य भाषा बनाए जाने की अपने जमाने के खुद उप अँगरेज़ जवाहरलाल नेहरू ने की थी, तो दक्षिण के कुछ नेताओं ने इसकी पुरजोर खिलाफत कर डाली। तुष्टिकरण की पराकाष्ठा दिखाते हुए नेहरू के कार्यकाल में इसे राज्यभाषा नहीं बनाया जा सका। आज फिर एक बार हिंदी पर सियासत गरम हो रही है। यूं लग रहा है, कि तमिल की भावनाएं ही भावनाएं हैं बाकियों का कुछ नहीं। ऐसा सिर्फ इसलिए, क्योंकि तमिल के नेता शोर्टकट वोट के लिए लोगों की भावनायें भड़काते हैं. होने को हिंदी में भी बहुत भड़काऊ नेता पड़े हैं, लेकिन इनके पास मुद्दे और भी हैं. ओडिशा की विधानसभा तो सबको मात देते हुए सदन में हिंदी बोलने की मनाही तक पर उतारू हो गई. ये हालत किसी भी विकासशील देश के लिए ठीक नहीं हो सकते. इस बात को तमिल, केरल, कन्नड़, तेलुगु, ओडिया, सबको समझना होगा. इस समय हिंदी वरसस अन्य भाषा का वक्त नहीं, बल्कि दुनिया से मुकाबले के लिए खुद को खड़ा करने का वक्त है. एक तरफ हम अंग्रेजी को अपनाने में वक्त नहीं लगाते, तो दूसरी तरफ हिंदी पे इतना हिचकिचाते हैं, आखिर ये स्वम के अंतस में छाई हीन भावना जैसी ही बात तो है.

हिंदी की चूहों से तुलना

दक्षिणी नेताओं ने हिंदी की मुखालफत में एक अजीबो गरीब तर्क दिया, उन्होंने कहा कि हिंदी को राज्यभाषा बनाने के पीछे क्या कारण हैं। तो नेहरू ने जवाब दिया, यह देश की भाषा है, ज्यादा से ज्यादा लोग इसे बोलते हैं। इस जवाब के बाद दक्षिण के नेताओं ने कहा यूं तो देश में चूहे सर्वाधिक पाए जाते हैं, तो फिर क्यों ने उसे राजकीय जीव घोषित कर दिया जाए। इस तर्क के बाद मुंह फाडक़र सारे के सारे दक्षिणी नेता, खासकर तमिल के नेताओं ने संसद में ठहाका लगाया था। इस घटना के बाद हिंदी पर कभी कोई बहस सीधी-सीधी नहीं की गई।

हिंदी क्यों जरूरी है, जरा समझिए

गूगल के सौजन्य से.
मौजूदा भाषाई समझ, इस्तेमाल, परस्पर व्यवहार और लिखने, पढऩे, बोलने की क्षमता के मुताबिक भारत में 90 करोड़ लोग सीधे या परोक्ष रूप से हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। महज 35 करोड़ लोग ही ऐसे हैं, जो अन्य भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं। यानी देश की आबादी का महज 28 फीसदी हिस्सा ही ऐसा है, जो हिंदी का इस्तेमाल नहीं करता। लेकिन इसमें भी ऐसा एक बड़ा हिस्सा है, तकरीबन 30 फीसदी तक, जो हिंदी के बारे में जागरूक है, वह हिंदी को आंशिक रूप से समझता भी है। यह आंकड़े अमेरिका की एक एजेंसी ने जुटाए थे।
अमेरिक मूल की एक एमएनसी जब गुडग़ांव में अपना मुख्यालय खोलने पहुंची, तो उसके सामने भाषा की बड़ा संकट पैदा हुआ। तब इसके लिए कंपनी ने एक व्यापक सर्वे करवाया। इसमें पाया गया कि देश के करीब 72 फीसदी लोग हिंदी में जीते हैं। जबकि इसमें 80 फीसदी लोग ऐसे हैं, जो हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओं में असहज हैं। कंपनी ने इस सर्वे में बोलियों तक को हिंदी की निकटस्थ पाया था। इसमें 14वें नंबर पर हिंदी की छत्तीसगढ़ी बोली शामिल थी, जबकि पहले नंबर पर मजबूत, अल्हड़ता और सहजता के साथ बोली जाने वाली हिंदी की हरियाणवी बोली थी। ऐसे में हम यह कैसे कह दें कि हिंदी राज्य भाषा नहीं बन सकती।

90 करोड़ हिंदी वालों की कोई भावनाएं नहीं

तमिल के महज 7 करोड़ लोगों की भावनाएं इतनी मजबूत हैं, कि 90 करोड़ हिंदी बोलने वालों की कोई औकात नहीं। नेहरू ने इस हिंदी के सांप को पिटारे में बंद करके रखा तो, फिर किसी शीर्ष नेता ने दोबारा छुआ नहीं। चूंकि यह उन्हें ही डसने लगा था। अब कहीं जाकर एक वास्तविक मुद्दे के साथ हिंदी को उठाया गया है। जबकि तथ्य कहते हैं, आजादी के समय भारत की आबादी 40 करोड़ थी। अब यह 125 करोड़ है, जिसमें से संवाद, संचार और हिंदी फिल्मों ने हिंदी को और व्यापक बनाया है। 1950 के संदर्भ में हिंदी बोलने वाले और अन्य भाषियों के बीच 60 और 40 का अनुपात था। जबकि अब यह अनुपात घटकर 72 और 28 तक आ गया है। यानी हिंदी बोलने वाले देश में 72 हंैं, तो अन्य भाषी महज 28। इन 28 में भी करीब 12 लोग ऐसे हैं, जो हिंदी को आंशिक रूप से समझते हैं। ऐसे में हिंदी इतने विरोध के बाद देश में बढ़ी है, तो आने वाले वक्त में तो यह दुनिया की भाषा बन सकती है। इसमें किसी को ऐतराज क्यों होना चाहिए। मान लिया जाए कि तमिल को दुनिया की भाषा बनाया जा रहा है, तो क्या हिंदी भाषी इसका विरोध करेंगे। अगर तमिल की स्वीकार्यता है और दुनिया उसे इंज्लिश के स्थान पर स्थापित करना चाहती है, तो इसमें क्या बुरा है। ये सियासत नहीं तो क्या है, जहां 90 करोड़ लोगों की भावनाएं कुचलकर महज 7 करोड़ लोग उनमें भी आधों को तो पता ही नहीं होगा, कि हिंदी और तमिल में कोई लड़ाई है, को खुश किया जाता है।

अब वक्त है जरा नेशनलिज्म का

यह कोई मोदी का करिश्मा नहीं है और न ही भाजपा की भारी चुनावी जीत। एक जन मानस है, जहां हिंदी को व्यापक स्तर पर स्वीकारा जा रहा है। भारतीयता को अपनाया जा रहा है। 80 का दशक पीछे छूट गया है, जब इंज्लिश का आना और हिंदी का न आना उच्च मध्यमवर्गीय होने की निशानी थी। हिंदी का टूटा फूटा बोलना और मजदूरों से हिंदी में बात करने की कोशिश करना व्यावसायिक घराने से ताल्लुक को दर्शाती थी। अब वक्त उल्टा है, जहां संसद में ठेठ कन्नड़ भाषी मल्लिकार्जुन खडग़े बड़ी नफासत के साथ शुद्ध उच्चारण और सही मुहावरों के साथ हिंदी बोलते हैं। अरुणांचल के किरण रिजिजू ऐसी फर्राटेदार हिंदी बोलते हैं, कि लगता ही नहीं कि यह आदमी अहिंदी राज्य का है। हिंदी फिल्मों में संवाद अदायगी में हिंदी के अच्छे शब्दों को आधुनिक शब्दों के साथ घोल कर एक नई शब्द रेसिपी बनाई जा रही है। उर्दू को हिंदी में ऐसे घोल दिया गया जैसे उर्दू कोई हिंदी की ही एक बहन है। इतने खूबसूरत वक्त में जहां तकनीकी में हिंदी के कई सॉफ्टवेयर आ रहे हैं, वहां हिंदी का विरोध बिल्कुल बेवजह है। लोगों को हिंदी के नाम पर भडक़ाना बंद करें, अन्य हिंदी भाषी नेतागण। अब वक्त नेशनलिज्म का है।
- सखाजी

Life is Just a Life: साँझ और समंदर Sanjh Aur Samandar

Written By नीरज द्विवेदी on शनिवार, 14 जून 2014 | 10:13 pm

Life is Just a Life: साँझ और समंदर Sanjh Aur Samandar: धूप से एक रेशा खींचकर लपेटना शुरू किया तो साँझ की शक्ल में रात आ गयी उनके साथ बीते पलों को समेटना शुरू किया तो समंदर के ...

कागज और असलियत का झगड़ा

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on मंगलवार, 10 जून 2014 | 3:00 pm

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असलियत इन दिनों बड़ा शोर मचा रही थी। हर तरफ असलियत के समर्थक भी बढ़ रहे थे। कई ब्लॉग लिखे जा रहे थे। फेसबुक पर तो जैसे असलियत के मुरीदों की बाढ़ जैसी आ गई थी। ट्विटर पर भी लोग असलियत के समर्थन में ट्वीट कर रहे थे। मोबाइल पर असलियत के समर्थन में खूब एसएमएस आते। यह मान लीजिए कि असलियत ही असलियत इन दिनों चर्चा में थी। हर तरफ कागज को खूब आलोचना झेलनी पड़ रही थी। हर कोई कागज पर गुस्सा दिखा रहा था। कागज और असलियत के बीच अघोषित सी जंग छिड़ी हुई थी। कागज इस बात को लेकर बेहद आश्चर्य में था कि कोई उसे चुनौति दे रहा है। आजादी के इतने सालों बाद कागज अपने रहने के स्थान फाइलों को जरूर बदलता रहा, लेकिन कभी ऐसे दिन नहीं देखे थे।
अब तो कागज की कोई सुन भी नहीं रहा था। हर कोई असलियत का हिमायती था। कई बार कागज कई सारे गरीबी, भुखमरी, लाचारी बेबसी खत्म करने के आंकड़े दिखाता, मगर कोई इनपर भरोसा करने की बजाए असलियत की बातें सुनने लगता। कागज को अभी भी यह गुमान था, कि 1947 से चली आ रही उसकी सत्ता को कोई इस कदर झुठला तो नहीं ही सकता, भले ही तात्कालिक तौर पर भरोसे का इम्तेहान ले ले। वह अपनी मस्ती छोडऩे तैयार ही नहीं था। हरी कालीन वाले मल्टीपोल गोलाकार भवन में जब तब सरकारें इस कागज को रखतीं और बताती कि उन्होंने बेरोजगारी को इतने फीसदी खत्म कर दिया, तो कभी गरीबी के लिए इतने करोड़ खर्च दिए, तो कभी नाली, पानी, बिजली, सडक़, खेत, खलिहानों की दुरुस्तगी इस कागज की पीठ पर लादकर रख दी जाती। अभी तक हरी कालीन वाली इस इमारत में कागज की ही आवाज गूंजती थी।
पिछले कुछ महीनों से असलियत की आवाज भी यहां सुनाई देने लगी है। इस कदर कि कागज अपने घमंड के बोझ तले ही दबने लग गया था। एक दिन थक हार कर आखिरकार कागज को अपनी ताकत दिखानी ही पड़ी। उसने अपने मातहतों, फीसदी, अंक, बढ़त, घटत, फायदा, नुकसान, धन, आवक, जावक आदि को इकट्ठा करके असलियत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। असलियत भी कहां चुप रहने वाली थी। उसने भी जवाबी हमले शुरू कर दिए। अब कागज और असलियत के बीच खुली जंग छिड़ गई। कागज सालों से सत्ता पर कसकर बैठे हुए अफसरानों के पास जा पहुंचा। अफसरान उसे अपने ज्यादा करीब लगे, चूंकि इन्होंने ही कागजों की चम्मच बनाकर देश को खूब पीया था। कागज इनके सारे कारनामों से वाकिफ था। जाने को तो वह सियासतदानों केपास भी जा सकता था। मगर जानता था, इनके पास जाने और मनुहार या धमकी देने से कोई फायदा नहीं। मनुहार ये सुनते नहीं हैं और धमकी इन्हें लगेगी नहीं, चूंकि ये फिर जीतकर विराजमान हो जाएंगे। यूं तो मनुहार अफसर तो और बिल्कुल भी नहीं सुनते, मगर धमकी से भारी डरते हैं। कागज ने अफसरों को खूब डराया, सारे काले कारनामे सामने लाने की धमकी दी। असर तो हुआ, मगर जरा उल्टा। अफसर गांवों, खेत, खलिहानों और मध्यमवर्गीय युवाओं की बातें सुनने पहुंचने लगे। महंगाई को एक कागज पर छपे फीसदी और ऊपर उठते या नीेचे गिरते गणित के निशान से नापने की बजाय टमाटर के ठेले पर हफ्ता दर हफ्ता दाम पूछकर समझने लगे। कागज तो अपनी सलामती के लिए गया था। अपनी लंबी आयु मांगने गया था। मगर यहां तो सारे अफसरों ने पाला ही बदल लिया। असलियत के पाले में जा पहुंचे। कागज सिर धुनकर सरकार की खुले बाजार में दो हजार रुपये की कीमत वाली 15 हजार में खरीदी गईं लोहे की आलमारियों में चुप जा छिपा।
- सखाजी

Life is Just a Life: एक लत Ek Lat

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 28 मई 2014 | 8:08 pm

Life is Just a Life: एक लत Ek Lat: मेट्रो भी अजीब है जितनी ज्यादा बेतरतीब आवाजें सुनाई देतीं हैं ज्ञान गंगाएँ उतना ही शांत हो जाता हूँ मैं, जितनी ज्यादा भीड़ मि...

Life is Just a Life: खिलखिलाहट Khilkhilahat

Written By नीरज द्विवेदी on रविवार, 25 मई 2014 | 10:03 am

Life is Just a Life: खिलखिलाहट Khilkhilahat: बहुत कुछ लिखा है तुमने मेरी हथेली पर रंगीन कूचियों से छितराए हैं रंग मुस्कुराते हुए खिलखिलाते हुए गुनगुनाते हुए  चढ़ रह...

Life is Just a Life: क्षणिका - इन्तजार

Written By नीरज द्विवेदी on शुक्रवार, 23 मई 2014 | 8:25 am

Life is Just a Life: क्षणिका - इन्तजार:

क्षणिका - इन्तजार

पाना
केवल पलभर का ...
और इन्तजार की हद क्या है ?
क्यों
एक पल से
काम चलाऊं ...
सदियों के
इन्तजार से


बेहतर क्या है?
-- नीरज द्विवेदी 

मर कर जीना सीख लिया

Written By Mithilesh dubey on गुरुवार, 15 मई 2014 | 2:43 pm


अब दुःख दर्द में भी मैने मुस्कुराना सीख लिया
जब से अज़ाब को छिपाने के सलीका सीख लिया।

बेवफाओं से इतना पड़ा पाला कि अब
इल्तिफ़ात से भी किनारा लेना सीख़ लिया।

झूठे कसमें वादों से अब मैं कभी ना टूटूंगा
ग़ार को पहचानने का हुनर जो सीख लिया।

वो कत्लेआम के शौक़ीन हैं तो क्या हुआ
मैंने भी तो अब मर के जीने का तरीका सीख़ लिया।

सुनसान रास्तों पर चलने से अब डर नहीं लगता
मैंने अब इन पर आना-जाना सीख लिया। 
शब्दार्थ :::
इल्तिफ़ात- मित्रता
ग़ार- विश्वासघात
अज़ाब - पीड़ा

जो सेठ प्रेस में हो वह किसी और पेशे में न हो....

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on सोमवार, 28 अप्रैल 2014 | 2:01 am


प्रेस की आजादी की जब भी बात होती है, तो दो बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि आजादी छीन कौन रहा है और दूसरी यह कि आजादी छीनी कोई क्यों रही है। पहली बात तो सीधी और सपाट है, कि यह आजादी वही छीनना चाहेगा, जिसकी अपनी नकारात्मक आजादी खतरे में होगी। इसे आजादियों का आपसी झगड़ा भी कह सकते हैं। यानी नकारात्मक आजादी सकारात्मक आजादी को छीन लेना चाहती है। इस पर तो हमारा जोर नहीं है। अगर कोई आजादी छीन रहा है, तो हम लड़ेंगे और लड़ते रहेंगे। बेशक यह होना भी चाहिए। मगर क्या इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि आजादी आपकी बची रहेगी। यह निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है। कभी आप अपनी आजादी को बचा पाएंगे, तो कभी नहीं। मगर दूसरी बात जरूर आपके हाथ में है और नतीजे लेकर आने वाली मजबूत बात है।
यह बात है कि आजादी छीनी क्यों जा रही है। अगर हम इसके मंथन में जाएंगे, तो 5 प्रमुख बातें पाएंगे।
पहली, तो यह कि आजादी छीनने के लिए हम खुद ही दोषी हैं। जब हम कमिश्नर के बंगले पर बिल्ली और मिका सिंह के किस वाले केस लगातार दिखाते हैं, तभी हम अपनी आजादी को गिरबी रख देते हैं।
दूसरी, जब हम किसी खास मामले में यहां उदाहरण नहीं दूंगा, बाइस्ड होकर बात करने लगते हैं, तो अपनी आजादी को बेच देते हैं.
तीसरी, टीआरपी और आईआरएस के सर्वे हमें परेशान करते हैं। उदाहरण दूंगा, कि आईआरएस के सर्वे में कोई अखबार बहुत आगे है, इसके दो कारण हैं एक तो वह बेहद कस्टमाइज खबरें छापता है, दूसरा वह भाषाई स्तर पर अंग्रेजी का बेइंमतहां इस्तेमाल करता है। ठीक ऐसे ही अंग्रेजी को अखबार भी हैं, जो बेहद सरल इज आर एम वाली अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हुए फख्र से कहते हैं, वी आर नॉट इन जर्नलिज्म, रादर इन एटवर्टाजिंग इंडस्ट्री। बस यहीं खत्म हो जाते हैं।
चौथी, ऑगसटस हिक्की से लेकर आज के कोई मुहल्ला अखबार तक, कहीं भी कोई ऐसा सिस्टम नहीं है, कि कोई विचारशील व्यक्तित्व सीधा किसी स्थान पर बैठ सके। अकेडमीज क्या पढ़ाती हैं और क्या जमीन पर होता है, इस फर्क को बताने की जरूरत नहीं है।
पांचवी, मालिकान के अपने व्यावसायिक हित। यह बात निबंध की तरह लगेगी, किंतु इसका समाधान है।
समाधान है, हमारे पास। इस दिशा में हम काम भी कर रहे हैं। हम लोग ऐसे केस खोज रहे हैं, कि जिससे यह साबित कर सकें, कि फलां सार्वजनिक हित का ऐसा केस था, जिसे मीडिया ने ऐसा बना दिया, इसके पीछे मीडिया की यह मंशा थी। अगर हम इसे कर पाए, तो जरूर दुनिया में यह मील का पत्थर साबित होगा। इसमें हम ऐसे कमसकम 200 केस लेंगे, जिनके बीहाफ पर कोर्ट में एक पीआईएल के रूप में लिटिगेशन दायर की जा सके। इसमें हमारी मांग होगी कि देश में अखबार को व्यवसाय से दूर कर दिया जाए।
जो व्यक्ति भी अखबार निकालेगा वह किसी दूसरे व्यवसाय में नहीं जा सकता। यह चौंकाने वाली बेहूदा सी बात है। बेशक ऐसा ही है। चूंकि सवाल उठेंगे, कि पत्रकारों का आर्थिक हालत खराब हो जाएगी, मालिकान के संपादक होने से संपादक नाम की संस्था खत्म हो जाएगी, कई बड़े संस्थान हैं, जो नो लॉस नो प्रॉफिट में काम कर रहे हैं वे ऐसा नहीं कर पाएंगे, मालिक जब दूसरा धंधा नहीं करेगा, तो वह इसमें ही काला पीला करेगा। तमाम सारे ऐसे सवाल हैं, जो मौजूं हैं। बहुत सही हैं।
किंतु दोस्तों हम करना भी यही चाहते हैं। पहली आशंका कि पत्रकारों की आर्थिक हालत खराब हो जाएगी, तो बिल्कुल सही है। हो जाएगी, मगर अभी कौन सी अच्छी है। नौकरीनुमा पत्रकारिता में एक रिपोर्टर न्यूज एक्जेक्यूटिव बन कर रह गया है। उसे अपने स्रोत को पटाए रखते हुए संस्थान की चाही गईं खबरों में से खबरें देना है। तब वह पत्रकार कहां रहा? जब वह अपने दिल के विद्रोह को जाहिर ही नहीं कर पा रहा तो कैसा पत्रकार। जबकि स्वतंत्र पूर्ण समय पत्र से जुड़ेगा, तो वह खुद की अपनी एक इमेज स्थापित करेगा। टैग जर्नलिस्ट नहीं रहेगा, कि फलां के ढिमकां जी। जब यह एक मिशन बन जाएगा, तो खुदबखुद इसमें पत्रकार अपनी हिस्सेदारी करेगा, न कि नौकरी। सुबह उंगली से पंच करो, शाम को रिपोर्ट बनाओ कि कितनी खबरें पढ़ीं आपने।
अब आशंका नंबर 2 पर आते हैं, कि संपादक नाम की संस्था खत्म हो जाएगी, तो भैया अभी कौन सी जिंदा है। कितने संपादकों के केबिन में बुक शेल्फ है, कितने संपादकों के पास अपना कोई दुनिया को बदल देने का जज्बा है। संपादक शब्द से यही उम्मीद की जाती है। यह भैया नौकरी है, बस। पाठक को केंद्र में रखकर उसके लिए कुछ ऐसी सूचनाएं देना, जो उसके काम की हों। यानी रायपुर की चमक को बस्तर की तपती जिंदगी नहीं देनी
तीसरी बात यानी आशंका मालिक जब दूसरा धंधा नहीं करेगा, तो इसीसे कालापीला करेगा। भैया इसमें कौन सी बुराई है, अभी ऐसे लोग कालापीला कर रहे हैं, जो नीचे वालों को चूस रहे हैं। अगर तब हमारा अपना आदमी कोई कालापीला कर लेगा तो क्या हो जाएगा। यह तो मजाक रहा, किंतु सत्य यह है कि इस उद्योग से सबसे पहले तो कचरा हटेगा, पैसा कमाने वालों का। दूसरा विचारवानों के पास बहुत कुछ रहेगा, अपना करने का.
हम कोई ऐसी स्वर्ण व्यवस्था की बात भी नहीं करने जा रहे, जिससे कि सतयुग आ जाएगा, हम तो बस इसे रिप्लेस करके इससे बेहतर लाना चाहते हैं। ऐसे ही रिप्लेसमेंट से एक दिन वास्तव में सतयुग ला पाएंगे।
अगर आपके पास ऐेसे केस दस्तावेजों के साथ हैं, जिनसे यह साबित हो कि फलां मामला इतनी बड़ी जनसंख्या से जुड़ा था, इतने व्यापक असर वाला था, लेकिन मीडिया ने अपने इस आर्थिक कारण से उसे दबा डाला, तो हमें बताएं। हम इस पर काम कर रहे हैं।
धन्यवाद।
-सखाजी

सब मिल बोलो मोदी लहर नहीं है...

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014 | 4:27 pm

जिनका है उन्हें क्रेडिट.
भूतों से डरने की ज़रूरत नहीं, तेज स्वर में बोलो भूत नहीं होता...मोदी की लहर नहीं एक स्वर में बोलो कोई लहर नहीं...कोई कहे विकास, रोड, पानी, नौकरी, स्थाई अर्थ व्यवस्था, ग्रोथ...तो मोहन के पास मैडम के सिखाये मंत्र हैं न...
धर्म निर्पेक्षताये नमः,
मुस्लिमों पे खतराए नमः,
गुजरात दंगाये नमः
इन्दिराए नमः,
१२५ साल पुरानी पार्टिये नमः
बम में मरे बलिदानाए नमः

१० साल तक इतना काम किया कि, देख ही नहीं पाए चारों तरफ अँधेरा छा गया. घुप अन्धकार, सियारों की आवाजें, सांपों का सड़कों पर खुल्ला घूमना और भी न जाने क्या-क्या है रास्ते में. न जाने क्यों घडी नहीं देख पाए, तभी तो खराब घडी आ गई है. मगर करते भी क्या, पीएमओ में काम ही इतना रहता है. कोई कितना भी चाहे मगर वक्त पर नहीं निकल सकता. फिर आखिर में दिन भर की रिपोर्ट भी तो मैडम लेती हैं. इन्हें बताना पड़ता है, दिन भर में मीडिया ने कितना लताड़ा, उसके बदले में आपने कितना उन्हें कोसा, कल की तुलना में कुछ कम लताड़ा तो उपलब्धि वरना खतरा, किसी मंत्री ने कोई अकेले ही तो करप्शन नहीं कर डाला, मैडम और मुझे पता ही न चला हो, पता चला तो कोई बात नहीं मगर बिना बताये ऐसा करने पर अनुशासन भंग की कार्रवाई क्यों नहीं की, ऊपर से शाम होते ही पत्नी एसएमएस करने लगती है, कब तक आओगे, भिन्डी खाते नहीं हो चिकेन डॉक्टर ने मन किया है, बताओ क्या खाओगे, ज्यादा लेट किया तो फोन आ जाता है, मोबाइल नहीं उठाया तो आफिस के नंबर पे लगा देती है. वो पारख स्साला शाम होते ही फोन पे किसी न किसी बहाने से डट जाता है, फोन उठाके बोलता था मैडम का फोन है...घर वाली मैडम का....सरकार वाली नहीं. घर वाली मैडम फोन पे दहाड़ती और कहती तुम्हे किसने कहा था पीएम की नौकरी करो.
जिनका है उन्हें क्रेडिट.
आरबीआई में कितने मजे थे. मुझे तुम पर उसी वक्त से गुस्सा आता है, जब तुमने मेरी एक न सुनी. तुम अमेरिका के कुछ बनियों के चक्कर में देश में उदारवाद की बातें कर रहे थे. वो तो मेरी मति मारी गई थी, जो उसी वक्त पंजाब न चली गई. तुम्हे तभी रोकना था, जब वित्त मंत्री बने थे. लेकिन मैंने सोचा चलो भाई जिसके लिए अर्जुन, मोतीलाल, विध्याचरन, नरसिम्हा ओंधे मुह गिरते थे, वो तुम्हे तुम्हारी अमेरिकी दोस्तों से दोस्ती की क़ाबलियत पर मिल गया. मगर तुम ऐसी नौकरी में फसोंगे सोचा न था. थोडी ही देर में फिर फोन घनघनाया,...इस बार बारू ने उठाया..मोहन की तरफ मुस्कुराते हुए लो भाई किसी बच्चे की आवाज़ है...वहाँ बाहुल बाबा की आवाज़ थी....अंकल मेरे लिए आते समय कनाट प्लेस से गाँव, गरीब, किसान के टेटू लेते आना. वो चुनाव हैं न तो माँ ने कहा है गाँव, गरीब, किसान को पहचान. मोहन के पास पहले से क्या कम काम थे.
आज तो बड़ी घबराहट हो रही है, डर लगने लगा है. यूँ तो मोहन रोज पीएमओ में काम ख़तम करते-करते लेट होता था. रोज़ सियारों की आवाजे और सांपो को सड़कों पे देखता था, मगर किसी तरह से स्कूटर इधर-उधर करके चला जाता था..इस बार वह थोडा ज्यादा डरा हुआ है. दरअसल जयराम रामेश ने दोपहर में आके कहा था रस्ते में मोदी की लहर है, तब से ही मोहन परेशान था. बारू और पारख ने बहुत समझाया मोदी एक नेता है...उसकी लहर है चुनाव को लेकर...लेकिन इससे डरना क्या...दरअसल मोहन मोदी लहर यानी कोई भूत समझ रहे थे. मोहन से पंकज पचोरी ने भी कहा, डोंट वरी सर....जिस चीज से डर लगे इसके खिलाफ बोलते जाओ डर...और मन से कहो मोहन तुम्हे किसी चीज से डर नहीं लगता बस...जाओ फिर.
जिनका है उन्हें क्रेडिट.
मोहन को राहत मिली. उसने रट लगाईं, मोदी की कोई लहर नहीं है....मोदी की कोई लहर नहीं है...वह आगे जाता गया, बहुत आगे कपिल की साईकिल मिल गई...मोहन बोला कपिल मोदी की कोई लहर नहीं है...कपिल बोला हाँ मोहन कोई लहर नहीं है, डरो मत मैं भी यही कहते हुए जा रहा हूँ...मोहन का स्कूटर तीसरे गियर में था...जय राम रामेश पैदल मिले, मोहन ने कहा जय राम मोदी की कोई लहर नहीं है...रमेश ने कहा हाँ मोहन डरो मत इतनी ज्यादा लहर भी नहीं है...मोहन का डर और बढ़ गया...आगे नटखट दिग्गी मिला, मोहन ने हाथ हिलाया बोला मोदी की कोई लहर नहीं है...दिग्गी ने भी कहा कोई लहर नहीं है...उसे तो दिल्ली के बुखारी बाबा ने भगा दिया है....मोहन को ताकत मिली...ऐसे ही मनीष, अभिषेक, अहमद, जनार्दन, अंटोनी, मोइली, नबी आदि मिलते मोहन सबसे कहता मोदी की कोई लहर नहीं है... वे सब भी मोहन का बताते मोदी की कोई लहर नहीं....
मोदी लहर का भूत थोडा कमजोर पड़ा. लेकिन मोहन को अब सबसे बड़ी परीक्षा देना थी....बड़ी खाई पड़ती है. इसमें विख्यात है कि कई तरह के भूत रहते हैं. मोहन की घिग्घी फिर से बांध गई, ठीक वैसे ही जैसे १० सालों से बंधी थी....
जिनका है उन्हें सप्रेम क्रेडिट.
खाई में दाखिल होते ही आवाज़ आई विकास...मोहन बोला नहीं मैं मोहन...फिर आवाज आई विकास...मोहन बोला नहीं मैं मोहन हूँ... फिर से आवाज़ आई गुजरात की सड़के..मोहन बोला नहीं अभी तो भूतों वाली खाई है. फिर आवाज़ आई नदियों को जोड़ेंगे, मोहन बोला भाई जो करना है कर लो बस मुझे घर जाने दो...मोदी लहर नहीं है...मोहन ने कहा. फिर आवाज़ आई...विकास...मोहन समझ गया अब वह पूरी तरह से भूतों के घेरे में है लाख कहे मोदी लहर नहीं है या भूत नहीं है तो भी भूत उसे छोड़ेंगे नहीं आज तो मर गया...इधर पत्नी का फोन फिर बजा...आवाज़ आई मोहन तुम अभी पीएमओ में हो या १० जनपथ पे...मोहन का गला सूख रहा था...आवाज़ नहीं निकल रही थे...बस इतना बोला घर आ पाया तो ज़रूर बताऊंगा..और फोन काट दिया.
मोहन ने मैडम के सिखाये मन्त्र पढ़े, जब भी कोई विकास, सड़क, बिजली, पानी, रास्ते, राजमार्ग, रोजगार जैसे भूतों से तुम्हारा सामना हो तुम इन मंत्रो का जाप करना...मोहन चिल्लाया...
धर्म निर्पेक्षताये नमः
मुस्लिमों पे खतराये नमः 
गुजरात दंगाये नमः
बस इन मन्त्रों के पढ़ ही रहा था की पीछे से कई आवाज़े इन्ही मंत्रों का रिपीट जाप कर रही थी...
धर्म निर्पेक्षताये नमः
मुस्लिमों पे खतराये नमः 
गुजरात दंगाये नमः
मोहन ने पीछे मुडके देखे...तो कपिल, अभिषेक, दिग्गी, बाहुल बाबा, रियंका दीदी, कॉर्पोरेट वाड्रा, सोना चांधी, मनीष, नबी आदि थर थर कम्पते हुए इस मन्त्र का जाप कर थे.
जिनका है उन्हें सप्रेम क्रेडिट.
पास ही में अदानी, अम्बानी, अदानी, अम्बानी का जाप करते हुए एक "जाम आदमी" गले में मफलर लगाये खड़ा था....एक "हाथी" पे बैठी जोगन जाप कर रही थी मुस्लिमों पे अत्याचार नहीं होने देंगे....तो साईकिल की घंटी बजाते हुए गिर के सिंहों का पीछा करते हुए "उत्त पदेश" का नेता भाग रहा था...बिहार में सरकारी राम मंदिर बनाने वाला एक दडियल बार बार सांसे लेके छोर रहा था...जैसे डर के मारे पगला गया हो.
विकास, सबके लिए खाना, सबके लिए नौकरी, स्थाई अर्थ व्यवस्था, हाई सेंसेक्स, दो अंकों में ग्रोथ, बड़ी सड़के, पानी भरपूर, सर्वश्रेष्ठ मॉस ट्रांसपोर्टेशन आदि आदि कुछ अजनबी से आवाज़े आ रही थे,,,,इनका सामना कर रहे लोग थर थर काँप रहे थे...मोहन ने आवाज़ लगाई भागो भाई....मोदी की लहर आई...
- सखाजी.

Life is Just a Life: मुक्तक - भगत सिंह के नारे

Life is Just a Life: मुक्तक - भगत सिंह के नारे:

जब जब आँखें होतीं बदरा, भाव मेरे बूँदें बन आते,
जब भी बरसा मीठा अम्बर, श्वर मेरे कविता बन जाते,
जीवन की रागनियाँ बजती, और नील गगन में तारे,
सपनों के सरगम पर नाचें, भगत सिंह के नारे।

Life is Just a Life: मुक्तक - तेरे बिन

Written By नीरज द्विवेदी on गुरुवार, 24 अप्रैल 2014 | 8:09 am

Life is Just a Life: मुक्तक - तेरे बिन:

मुक्तक -
तेरे बिन

तुझको जीतूँ
लक्ष्य है मेरा, तुझसे जीत नहीं चहिए,
तेरी जीत
में जीत हमारी, तेरी हार नहीं चहिए,
तू मेरा प्रतिमान
किरन है, जो मैं सूरज हो जाऊँ,
तू मेरा सम्मान
किरन है, जो मैं सूरज हो जाऊँ,
तेरे बिन
उगने ढलने का भी, अधिकार नहीं चहिए,


तेरे बिन
जीने मरने का भी, अधिकार नहीं चहिए।

Life is Just a Life: मैं, तुम और हम Main Tum aur Hum

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 9 अप्रैल 2014 | 8:43 am

Life is Just a Life: मैं, तुम और हम Main Tum aur Hum: मैं, तुम और हम होने का एहसास उस वक्त जब हम, हम नहीं थे मैं और तुम थे, उस वक्त जब आसमां के टुकड़े टुकड़े हो चुके थे और हर टुक...

श्री रामचन्द्र जी के साथ यह अन्याय क्यों?

Written By DR. ANWER JAMAL on सोमवार, 7 अप्रैल 2014 | 12:17 pm

चाय के ठेले पर विकास पुरूष

के बाद अब एक अहम सवाल
श्री रामचन्द्र जी के साथ यह अन्याय क्यों?
सांप्रदायिक तत्व धर्म के झंडे लेकर चलते हैं लेकिन मक़सद अपने पूरे करते हैं जो कि धर्म के खि़लाफ़ होते हैं। इसीलिए ये धार्मिक सत्पुरूषों को पीछे धकेलते रहते हैं।
राम मंदिर का मुददा गर्माने और भुनाने वाालों ने प्रधानमंत्री पद के लिए रामचन्द्र जी के वंश में से किसी का नाम आगे क्यों नहीं बढ़ाया?
क्या इन सांप्रदायिक तत्वों को श्री रामचन्द्र जी की सन्तान में कोई योग्य व्यक्ति ही नज़र नहीं आया या फिर उन्हें गुमनामी के अंधेरे में धकेलने वाले यही तत्व हैं?
रामकथा के अनुसार सारी धरती मनु को दी गई थाी और इसी उत्तराधिकार क्रम में यह श्री रामचन्द्र जी को मिली थी लेकिन आज उनके उत्तराधिकारी वंशजों के नाम दुनिया वाले तो क्या स्वयं भारत में उनके श्रद्धालु भी नहीं पहचानते।
श्री रामचन्द्र जी के साथ यह अन्याय क्यों?
यही बात मुसलमानों को भी समझ लेनी चाहिए कि उनके लीडर किसी दीनदार आलिम को अपना रहबर क्यों नहीं मान लेते?
इसके पीछे भी यही कारण है कि ये लीडर दीन के मक़सद को नहीं जो कि अमन और भाईचारा है बल्कि अपने लालच को पूरा करने में जुटे हुए हैं।
चुनाव का मौक़ा इन मौक़ापरस्तों को पहचानने का महापर्व होता है। जनता इन्हें अच्छी तरह पहचान रही है।

Founder

Founder
Saleem Khan