नियम व निति निर्देशिका::: AIBA के सदस्यगण से यह आशा की जाती है कि वह निम्नलिखित नियमों का अक्षरशः पालन करेंगे और यह अनुपालित न करने पर उन्हें तत्काल प्रभाव से AIBA की सदस्यता से निलम्बित किया जा सकता है: *कोई भी सदस्य अपनी पोस्ट/लेख को केवल ड्राफ्ट में ही सेव करेगा/करेगी. *पोस्ट/लेख को किसी भी दशा में पब्लिश नहीं करेगा/करेगी. इन दो नियमों का पालन करना सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य है. द्वारा:- ADMIN, AIBA

भारतीय हिन्दी साहित्य मंच( http://bhartiyahindisahityamanch.blogspot.com )

Written By Kunal Verma on शुक्रवार, 30 सितंबर 2011 | 5:52 pm

हिन्दी की स्थापना तो बहुत पहले हो गई
थी मगर इसकी पहचान अधूरी अब
भी अधूरी है।
हिन्दी हमारी मातृभाषा है। मगर
क्या हम सही मायने मेँ हिन्दी का उपयोग
करते हैँ? नहीँ ना?
इस मंच की स्थापना हिन्दी को एक नई
दिशा देना चाहता है।
हम इस मंच के लिए कुछ
कवियोँ,कथाकारोँ एवं साहित्य के हर
विधाओँ से संबन्ध रखने वाले
लोगोँ का चुनाव इस मंच के सदस्योँ के रुप मेँ
करेँगे।
अगर आप इच्छुक होँ तो आप हमेँ कुछ
प्रश्नोँ के जवाब लिखकर
bhartiyahindisahityamanch@gmail.com
पर भेजेँ।
1. आपका नाम
2. आपका ब्लॉग पता (अगर हो)
3. आप साहित्य की किस विधा से संबन्ध
रखते हैँ?
4. आपका मोबाईल नंबर (महिला वर्ग के
लिए आवश्यक नहीँ)
5. और उस विधा का एक उदाहरण (जैसे
अगर आप कवि हैँ तो एक कविता)


सब्जेक्ट मेँ 'भारतीय हिन्दी साहित्य मंच
मे सदस्यता हेतु' लिखेँ।न्दी का उपयोग
करते हैँ? नहीँ ना?
इस मंच की स्थापना हिन्दी को एक नई
दिशा देना चाहता है।
हम इस मंच के लिए कुछ
कवियोँ,कथाकारोँ एवं साहित्य के हर
विधाओँ से संबन्ध रखने वाले
लोगोँ का चुनाव इस मंच के सदस्योँ के रुप मेँ
करेँगे।
अगर आप इच्छुक होँ तो आप हमेँ कुछ
प्रश्नोँ के जवाब लिखकर
bhartiyahindisahityamanch@gmail.com
पर भेजेँ।
1. आपका नाम
2. आपका ब्लॉग पता (अगर हो)
3. आप साहित्य की किस विधा से संबन्ध
रखते हैँ?
4. आपका मोबाईल नंबर (महिला वर्ग के
लिए आवश्यक नहीँ)
5. और उस विधा का एक उदाहरण (जैसे
अगर आप कवि हैँ तो एक कविता)


सब्जेक्ट मेँ 'भारतीय हिन्दी साहित्य मंच
मे सदस्यता हेतु' लिखेँ।

दंगों में नुक्सान किसका ?

हरेक आदमी अच्छी बातों को अच्छा और बुरी बातों को बुरा समझता है। हरेक आदमी को शांति और न्याय को अच्छा और दंगे-फसाद और खून खराबे को बुरा समझता है। इसके बावजूद लोग शांति भंग करते हैं और दंगा करते हैं और खून बहाते हैं।
सवाल यह नहीं है कि इसने ज्यादा बहाया या उसने ज्यादा बहाया और न ही यह सवाल है कि किसने पहले बहाया और किसने बाद में बहाया ?
असल में सवाल यह है कि जिसने भी बहाया तो क्यों बहाया ?
श्री लंका तमिलों ने सिंहलियों को मारा या सिंहलियों ने तमिल को ?
अफगानिस्तान में अमरीका ने पठानों को मारा या पठानों ने अमरीकियों को ?
और फिर यही बात हिंदुस्तान के लिए है कि हिंदुओं को किसने मारा ?
और मुसलमानों को किसने ?
आखिर इस मारामारी से लाभ होता किसे है ?
जनता को तो होता नहीं है।
इसका लाभ राजनीतिक दल ही उठाते हैं।
मुस्लिमों की भलाई में आग उगलने वाले मुस्लिम लीडर भी इसका लाभ उठाते हैं और हिंदुओं की भलाई के लिए जबानी जमा खर्च करने वाले लीडर भी लाभ उठाते हैं।
इनके भड़काए में आकर लडने वाले या उसकी चपेट में मरने वाले आम आदमी को तो इन्होंने कभी कुछ दिया ही नहीं, अपनी जान गंवाने वाले अपने कार्यकर्ताओं के परिवारों को भी इन्होंने कभी कुछ न दिया।
दुख की बात यह है कि इन्हें किनारे करने की इच्छा शक्ति जनता में आज भी नहीं है।

आज अपने गिरेबान में झांक कर देखें- अज़ीज़ बर्नी

बुनियाद (NBT)

दंगों में नुक्सान किसका ?

है साहिल पे बैठा

है साहिल पे बैठा,
लहरों को देखता हूँ,
हवा चलती है,
नमी पानी ले लेता हूँ,

अहसास यह फिजा का,
बहुत देर तक रहता नहीं,
साहिल से जब उठा,
ये भी पास आता नहीं,

अब शुष्क हवा,
चुभती देह में,
झुलसा जाती,
सोख पानी जाती,

कैसे-कैसे दिन बीते,
रात है फिर आती,
सारी-सारी जिन्दगी बीती,
ऋतुएं तो हैं आती-जाती,


.

Please read the below link,.

कृपया कर मेरी एक पोस्ट जो बिलकुल ही अनछुई रह गई है इसे देखिये.............

http://allindiabloggersassociation.blogspot.com/2011/09/httpwwwnaradnetworkin201109blog.html

जैसे-जैसे

Written By Pappu Parihar Bundelkhandi on गुरुवार, 29 सितंबर 2011 | 9:42 am

.
जैसे-जैसे,
साफ़ हुआ,
मंज़र,
नज़र आयी,
एक हसीना,
पसीने में,
तरबतर,
शबाब-ए-हुश्न में,
डूबी हुयी,
तरासा-ए-खुदा का,
एक नगीना,

लटें वो,
सुलझा रही थी,
धूल वो,
झाड़ रही थी,
बेखबर-सी,
जल्दी-जल्दी,
अपने को,
साफ़,
कर रही थी,

आस-पास,
सबकी नज़र,
उस पर थी,
घूरते लोग थे,
नज़रें गड़ाकर,

उसको अहसास हुआ,
शर्म-शार हुयी,
दबे पाँव,
धीरे-से,
रुखसत हुयी,



.

राख में दबे शोलों को जरा गौर से उठाना

राख में दबे शोलों को जरा गौर से उठाना,
हाथ जल सकता है,
बाबा लोगों का भस्म से लिपटा रहना,
अच्छा लगता है,

इस शोलों से आग अपनी जला लो,
न बुझाओ इन्हें, इनसे ताप ले लो,
गर हवा थोड़ी भी लगी शोलों को,
तो भड़क उठेंगे, रोशन जहाँ करेंगे,

रूह की गर्मी से,
गर्म उनकी देह,
हो रखी है,

तुम न जल जाओ,
तभी तो भस्म,
लपेट रखी है,

याद करो बिजली के,
नन्गे तारों को,
छूते नहीं,
उन पर भी,
परत होती है,

                       ------- बेतखल्लुस


.

ये जीवन क्यूँ भारी लगता है?

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 28 सितंबर 2011 | 4:58 pm



तू आज नहीं है सम्मुख तो,
जीवन क्यूँ भारी लगता है?
मौसम भी साथ नहीं देता,
तेरा आभारी लगता है॥

इन सबकी बातें छोड़ो,
आँखे क्यूँ साथ नहीं देतीं?
इस सूखे साखे मौसम में,
क्यूँ भरा पनारा लगता है?

कागज की कश्ती डूब चुकी,
जीवन नौका की बारी है,
पतवार है जिसके हाथों में,
बस उसका पता नहीं लगता है॥

कैसे रो रोकर गाऊँ मैं?
कैसे खुद को समझाऊँ मैं?
ये चाँद भी बात नहीं करता,
तेरा ही आशिक लगता है॥

आँखे खोलूं तो पानी है,
दिखती ना कोई निशानी है,
कानों में पड़ने वाला श्वर,
बस तेरी कहानी कहता है॥

ये धरा नहीं है, जन्नत है



जन्मों से जिसको माँगा है,

वो पूरी होती मन्नत है।
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

शस्य श्यामला धरती प्यारी,
ईश्वर की एक अमानत है,
सबको ये खैर मिलेगी कैसे?
बस ये तो  मेरी किस्मत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

क्रांतिवीर विस्मिल की माता,
जननी है नेता सुभाष की,
पद प्रक्षालन करता सागर,
जिसके सम्मुख शरणागत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

बाँट दिया हो भले तुच्छ,
नेताओं ने मंदिर मस्जिद में,
भूकम्पों से ना हिलने वाला,
हिमगिरी से रक्षित भारत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

संस्कार शुशोभित पुण्यभूमि,
हैं प्रेमराग में गाते पंछी,
दुनिया को राह दिखाने की,
इसकी ये अविरल गति है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

आदिकाल से मानव को,
जीवन का सार सिखाया है,
स्रष्टि का सारा तेज ज्ञान,
जिसके आगे नतमस्तक है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

जन्म यहाँ फिर पाना ही,
मेरा बस एक मनोरथ है,
कर लूँ चाहे जितने प्रणाम,
पर झुका रहेगा मस्तक ये॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

रहस्य

इन राहों में, चलते चलते,
अचानक,
दूर कहीं से कोई आवाज आई,
सुनो! प्रिय सुनो!
फिर एक अट्टहास 
मैं चकित हो, थोड़ा घबराया,
सूनसान सडक, वीरान राहें,
और पूस की ये रात, 
भयावह समां
ये कौन हैं ?, इस वक्त यहां,
किसने हमें पुकारा,
चांद भी आज उगेगा नही,
राह है अभी काफी लंबी,
केवल इन तारों का है साथ,
मगर इस समां में कौन है ?
इस राह का मेरा ये हमराह
हिम्मत करके मैने पूछ ही लिया, 
कौन, कौन हो तुम, कौन, अरे तुम हो कौन, 
कुछ देर के लिए छा गया मौन,
अब है मेरे साथ,
केवल ये समां,
विरान, सूनसान, शीतकाल
और केवल अंधकार,
कुछ देर बाद
सब कुछ
सामान्य,
तभी फिर से
सुनाई दी
वही आवाज,
वही अट्टहास......
फिर उसने दिया मेरे सवालो का 
जवाब....
मै..... मैं हंु तुम्हारा 
जमीर...
तुम्हारी हर राह में,
हर मंजिल में 
तुम्हारा हमसफर, हमराही....
मैंने कहा...
तुम कुछ बताओ
कि इन राहों 
पर चलते रहे
इसी तरह तो 
क्या मुकां होगा
क्या अंजाम होगा 
मेरे मुल्क का 

जबाब आया 
मैं बसा हूं हर एक के सीने में,
इसलिए मैं बताता हूं सबका हाल
आजकल बहुत बदलाव आ गया हैं।
दिलों में फैल गया है अलगाव
विकसित हो रहा है हिंसा का बाजार...

अब सुनो मेरी बात,
ध्यान से सुनो मुझसे ना डरो
मेरी बात समझो,
इस हिंसा के बाजार का नाश
हमें करना होगा,

इससे पहले हमें 
कुछ काम नया करना होगा,
दिलों में बसे अलगाव को मिटाना होगा।
सभी के दिल में प्यार को बसाना होगा।

एक कतआ ....ड़ा श्याम गुप्त....


गौरैया हमारे दर
वो आये हमारे दर इनायत हुई ज़नाब |
आये  बाद बरसों  आये  तो  ज़नाब |
इस मौसमे-बेहाल में बेहाल आप हैं -
मुश्किल से मयस्सर हुए दीदार ऐ ज़नाब ||

आये बाद बरसों

ऐसी किसी राहों पर

Written By Pappu Parihar Bundelkhandi on मंगलवार, 27 सितंबर 2011 | 3:39 pm





ऐसी किसी राहों पर, 

होंगी अपनी मुलाकातें,
 
कोई तो अपनी होगी, 

जो पकड़ेगी मेरी बाहें,
 
गुमसुम रहेंगे दोनों,

बातें तब न होंगी,
 
रास्ते पर कदम होंगे,

बाँहों में बाहें होंगी,

.



बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !


                                            


                       (अमर शहीद भगत सिंह की जयन्ती 27 सितम्बर पर विशेष )
                                                                                    आलेख  :   स्वराज्य करुण 

  उम्र के चौबीसवें वसंत को पार करने से पहले ही वह  नौजवान गहन अध्ययन और चिंतन के जरिए देश और समाज पर अपने अनमोल विचारो की गहरी छाप छोड़ कर और भारत-माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देकर हमें अलविदा कह गया ! वास्तव में यह हमारे वतन के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक अविस्मरणीय घटना है, लेकिन विडम्बना है कि आज हम ऐसे ऐतिहासिक प्रसंगों को भूलते जा रहे है, जिन्हें याद रखना आज़ादी और लोकतंत्र की रक्षा के लिए बहुत ज़रूरी है.  ज़रा सोचिए ! उम्र केवल तेईस साल और छह महीने के आस-पास, लेकिन देश की आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की  साम्राज्यवादी सरकार से सीधे टकरा जाने का हौसला ! जवानी की दहलीज पर जब ज्यादातर युवा हसीन सपनों की रंगीन दुनिया में खोए रहते हैं,  उसने अपनी जिंदगी के असली मकसद को समझा और अपनी उम्र के युवाओं को संगठित कर हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की स्थापना की , अपने जैसे विचारों वाले देशभक्तों को जोड़ कर क्रांतिकारी आंदोलन का संचालन किया और अंत में गिरफ्तार हो कर इन्कलाब जिंदाबाद के नारों के साथ फांसी की सजा का आत्मीय स्वागत करते हुए आजादी के महायज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी !  मै ज़िक्र कर रहा हूँ अमर शहीद भगत सिंह का  जिनकी सत्ताईस सितम्बर को जयन्ती है, जिनके ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा आज भी शोषितों और वंचितों के दिलों में नए उत्साह का संचार करता है .
     शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में  में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था ,  जो अब पाकिस्तान में है. अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें 23 मार्च 1931 को लाहौर की जेल में उनके दो साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे पर मौत की सज़ा  दे दी .दुर्भाग्य से आज अमर शहीद भगतसिंह का जन्म स्थान और शहादत-स्थल दोनों पकिस्तान में हैं पर इससे उनके महान  संघर्ष और बलिदान का महत्व कम नहीं हो जाता. उन्होंने एक अविभाजित और अखंड भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ,लेकिन इतिहास ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि उनकी शहादत के करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15 अगस्त 1947  को भारत की आज़ादी के समय  देश का बंटवारा कर दिया. जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है –  ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘.लेकिन आज तो हमें  अमर शहीद भगत सिंह को उनकी जयन्ती पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा  देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की. 
   अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को  उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली  में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है . आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक  विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी  क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ.  उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए . भगत सिंह का इरादा किसी  को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज  तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया .
   भगत की उम्र उस वक्त सिर्फ बाईस साल थी , जब उन्होंने  भारत माता की मुक्ति के लिए अपने क्रांतिकारी मिशन के तहत अंग्रेजों की विधान सभा में जन-भावनाओं का धमाका किया था . जेल की काल-कोठरी में भी भगत सिंह अपने क्रांतिकारी –चिंतन में लगे रहे . उन्होंने अपने साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर लटकाए जाने के महज तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को एक लंबा पत्र लिख कर साफ़ शब्दों में कहा – हमें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए. हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी ,जब तक कि शक्तिशाली लोगों ने भारतीय जनता और मेहनतकश मजदूरों की आमदनी के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है. चाहे वे अंग्रेज-पूंजीपति हों या भारतीय पूंजीपति... हो सकता है कि यह लड़ाई विभिन्न दशाओं में अलग-अलग स्वरुप धारण करते हुए चले.. निकट भविष्य में अंतिम युद्ध लड़ा जाएगा ,जो निर्णायक होगा .साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं.  यही वह लड़ाई है ,जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है .इस युद्ध को न तो हमने शुरू किया है और न ही यह हमारे जीवन के साथ खत्म होगा .हम आपसे किसी दया की विनती नहीं करते ...हमें युद्ध-बंदी मान कर फांसी  देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए.  अपने देश के लिए मर मिटने की ऐसी चाहत देख कर  भगत और उनके साथियों के क्रांतिकारी ज़ज्बे को सलाम करने की इच्छा भला किस देश-भक्त को नहीं होगी ?
  समाज –नीति, राजनीति ,राष्ट्र-नीति और अर्थ-नीति सहित मानव जीवन के हर पहलू का भगत सिंह ने गहरा अध्ययन किया था  ,जो उनके वैचारिक आलेखों में साफ़ झलकता है .इन्कलाब जिंदाबाद के विचारोत्तेजक नारे को जन-जन की आवाज़ बना देने वाले भगत सिंह ने  अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ 22 दिसंबर 1929 को’माडर्न-रिव्यू’ नामक पत्रिका के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय को लिखे पत्र में यह स्पष्ट किया था कि  इन्कलाब जिंदाबाद क्या है ? उन्होंने इस पत्र में बहुत साफ़ शब्दों में लिखा -  इस वाक्य में इन्कलाब (क्रांति ) शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है . लोग आम-तौर पर जीवन की परम्परागत दशाओं से चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से कांपने लगते  हैं . यही एक अकर्मण्यता की भावना है , जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की ज़रूरत है . क्रांति की इस भावना से मानव-समाज की आत्मा स्थायी रूप से जुड़ी रहनी चाहिए. यह भी ज़रूरी है कि पुरानी व्यवस्था हमेशा न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए जगह खाली करती रहे .ताकि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके . यही हमारा अभिप्राय है ,जिसे दिल में रख कर हम ‘इन्कलाब जिंदाबाद ‘ का नारा बुलंद करते हैं . 
   तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए-  ‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए . यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं . एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था .इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है . देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857  के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी .
    क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और  समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ! क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?बहरहाल चलते-चलते किसी अज्ञात शायर के आज़ादी के तराने की इन दो पंक्तियों को ज़रा गुनगुना तो लीजिए   
        क्या हुआ गर  मर गए अपने वतन के वास्ते
        बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !
                               (http://swaraj-karun.blogspot.com)
                     

गुटबंदी ने हिंदी ब्लॉगिंग का बेड़ा गर्क करके रख दिया है

आम तौर पर लोग यह शिकायत करते हैं कि सरकार हिंदी के प्रति उपेक्षा का भाव रखती है लेकिन जो लोग इस तरह की चिंताएं जताया करते हैं उनमें से अक्सर खुद हिंदी के प्रति उदासीन हैं। ऐसे लोगों की उदासीनता के चलते ही हिंदी की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट 'ब्लॉग प्रहरी' को अब अंग्रेजी की ओर रूख करना पड  रहा है।
समय समय पर कनिष्क कश्यप जी से हमारी बातें होती रही हैं और उनकी मेहनत और लगन देखकर हमेशा ही एक अहसास हुआ कि आखिर लोग एक रचनात्मक काम में भी उनका साथ क्यों नहीं दे रहे हैं ?
क्या सिर्फ इसलिए कि वे किसी गुट का हिस्सा नहीं हैं ?
इस गुटबंदी ने हिंदी ब्लॉगिंग का बेड़ा गर्क करके रख दिया है।
हरेक सकारात्मक काम इस गुटबंदी की भेंट चढ  गया है लेकिन ये गुटबाज  अपनी हरकतों से बाज नहीं आते और दुख की बात यह है कि ये बड़े  ब्लॉगर भी कहलाते हैं।

Roshi: नव योवना

Written By mark rai on सोमवार, 26 सितंबर 2011 | 3:33 pm

Roshi: नव योवना: व्याह कर आई वो नव्योवना ,उतरी डोली से सजन के अंगना  नए सपने ,नयी उम्मीदे ले कर उतरी वो पी के अंगना  अपनी गुडिया ,सखी-सहेली ,ढेरो यादे छोड़ आ...

ONLY NEWS: Former telecom minister A Raja on told a Delhi cou...

ONLY NEWS: Former telecom minister A Raja on told a Delhi cou...: Former telecom minister A Raja on told a Delhi court that former finance minister and now home minister P Chidambaram, should be summoned an...

आज सोमवार है और यह दिन हिंदी ब्लॉग जगत में 'ब्लॉगर्स मीट वीकली' के लिए जाना जाता है

एक शायर असद रज़ा के शब्दों में

सहयूनी तशददुद ओ मज़ालिम की वजह से
हालात अगरचे हैं वहां पर बड़े संगीन
ये अज्म से 'अब्बास' के होने लगा है ज़ाहिर
अब जल्द ही हो जाएगा आज़ाद फिलिस्तीन


सहयूनी तशददुद - यहूदियों की हिंसा , मज़ालिम - जुल्म का बहुवचन,


आज सोमवार है और यह दिन हिंदी ब्लॉग जगत में 'ब्लॉगर्स मीट वीकली' के लिए जाना जाता है। जो लोग नए नए ब्लॉगर बने हैं वे इस मीट के जरिये पुराने और अनुभवी ब्लॉगर्स के संपर्क में आते हैं और उनकी पोस्ट्‌स को देखकर बहुत कुछ सीखते हैं। सीखने वाली बातों में सबसे बड़ी बात सभ्यता और शालीनता है। ब्लॉगर होने का मतलब यह तो नहीं है कि बदतमीज़ी की जाए या जो चाहो वह कह दो, जिसे चाहो उसे कह दो।
आलोचना का तरीक़ा भी सभ्य होना चाहिए और यह भी देख लेना चाहिए कि शब्द भी सभ्य हों।
साथ रहना है तो सम्मान देना ही पड़ेगा ।
अभद्र लोग खुद रिश्तों को तोड़ते चले जाते हैं।
ब्लॉगिंग का इस्तेमाल जुड़ने  के लिए होना चाहिए।
इन पंक्तियों पर हम सब को गौर करना चाहिए।

उसने उधर देखा

उसने उधर देखा,
फिर इधर देखा,
सड़क पार कर गयी,
लम्बे-लम्बे क़दमों से,
दूर वो निकल गयी,
पर उसका वो अंदाज़,
आज भी जहन में है,
उसकी वो अदा,
याद आज भी है,


.

ना जाने क्यों वो “बुत” बनकर

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on रविवार, 25 सितंबर 2011 | 8:26 pm

ना जाने क्यों वोबुत” बनकर

मंदिर दौड़ी मस्जिद दौड़ी
कभी गयी गुरुद्वारा
अर्ज चर्च में गली गली की 
खाक छान फिर पाया 
लाल एक मन-मोहन भाया
मेरे जैसे कितनी माँ की
इच्छा दमित पड़ी है अब भी 
कुछ के “लाल” दबे माटी में
कुछ के जबरन गए दबाये 
बड़ा अहम था मुझको खुद पर 
राजा मेरा लाल कहाए 
ईमां धर्म कर्म था मैंने  
कूट -कूट कर भरा था जिसमे
ना जाने क्यों वोबुत” बनकर
दुनिया मेरा नाम गंवाए
उसको क्या अभिशाप लगा या
जादू मंतर मारा किसने
ये गूंगा सा बना कबूतर
चढ़ा अटरिया गला   फुलाए
कभी गुटरगूं कर देता बस
आँख पलक झपकाता जाए
हया लाज सब क्या पी डाला
दूध  ko  मेरे चला भुलाये
कल अंकुर फूटेगा उनमे
माटी में जोलाल” दबे हैं
एकलाल” से सौ सहस्त्र फिर
डंका बज जाए चहुँ ओर
छाती चौड़ी बाबा माँ की
निकला सूरज दुनिया भोर 
हे "बुततू बतला रे मुझको
क्या रोवूँ  मै ??  मेरा चोर ??
चोर नहीं ....तो है कमजोर ??
अगर खून -"पानी"  है अब भी
वाहे गुरु लगा दे जोर  
शुक्ल भ्रमर
यच पी २५..२०११
.१५ पी यम

Founder

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Saleem Khan