‘इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमेव्योमन्तसो अंग वेद यदि वा न वेद।‘
वेद 1,10,129,7
यह विविध प्रकार की सृष्टि जहां से हुई, इसे वह धारण करता है अथवा नहीं धारण करता जो इसका अध्ययन है परमव्योम में, वह हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता।
सामान्यतः वेद भाष्यकारों ने इस मंत्र में ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान परब्रह्म परमेश्वर अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस मंत्र में एक बात ऐसी है जिससे यहां ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह बात यह है कि इस मंत्र में सृष्टि के अध्यक्ष के विषय में कहा गया है - ‘सो अंग ! वेद यदि वा न वेद‘ ‘वह, हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता‘। ईशान के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह कोई बात नहीं जानता। फलतः यह सर्वथा स्पष्ट है कि ईशान ने यहां सृष्टि के जिस अध्यक्ष की बात की है, वह सर्वज्ञ नहीं है। मेरे अध्ययन के अनुसार यही वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख है। शब्द ‘नराशंस‘ का प्रयोग भी कई स्थानों पर उनके लिए हुआ है किन्तु सर्वत्र नहीं। इसी सृष्टि के अध्यक्ष का अनुवाद उर्दू में सरवरे कायनात स. किया जाता है।
फलतः श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार वेद का सर्वप्रथम प्रकाश जिस पर हुआ। वह यही सृष्टि का अध्यक्ष है। जिसे इस्लाम में हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप माना जाता है।
मैं जिन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, आइये अब उसका सर्वेक्षण किया जाए।
स्वर्गीय आचार्य शम्स नवेद उस्मानी की तर्जुमानी करते हुए एस. अब्दुल्लाह तारिक़ अपनी प्रख्यात रचना ‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ में लिखते हैं -
‘नीचे हम हज़रत मुजददिद अलफ़े-सानी शैख़ अहमद सरहिन्दी रह. के मक्तूबाते-रब्बानी से कतिपय हदीसें उद्धृत हैं।
प्रख्यात हदीसे-क़ुदसी में आया है, ‘मैं एक छिपा हुआ ख़ज़ाना था, मैंने महबूब रखा कि मैं पहचाना जाऊं, फिर मैंने मख़लूक़ को पैदा किया ताकि मैं पहचाना जाऊं।‘
सर्वप्रथम जो चीज़ इस ख़ज़ाने से प्रागट्य के रूप में समक्ष आई, वह मुहब्बत थी, जो कि मख़लूक़ात की पैदाइश का कारण हुई।
(मक्तूबाते रब्बानी, उर्दू अनुवाद, दफ़तर 3, भाग 2, पृष्ठ 160, मक्तूब 122, प्रकाशक: मदीना पब्लिशिंग कंपनी बंदर रोड कराची)
(-‘अगर अब भी न जागे तो ...‘, पृष्ठ 105, उर्दू से अनुवाद: दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी-)
यह दोनों तथ्य, जिनका उल्लेख हदीसों में इस प्रकार हुआ है, हदीसों से भी पहले हिंदू धर्मग्रंथों में इस प्रकार अभिव्यक्त की गई हैं-
‘एको ऽ हं बहु स्याम्।
‘मैं एक हूं अनेक हो जाऊं।‘
‘स वै नैव रेमे तस्मादे काकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्।‘
शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
उसने रमण नहीं किया इसीलिए एकाकी रमण नहीं होता। उसने द्वितीय की इच्छा की...।
‘यदिदं किंच मिथुनं आपिपीलिकाभ्यः तन्सर्वमसृक्षीत्। सो वेद अहं वाव सृष्टिरस्मि। अहं टि इदं सर्व असृक्षीति। ततः सृष्टिरभवत्।‘
-शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
‘जो कुछ यह चींटी पर्यन्त जोड़ा है उस संपूर्ण की सृष्टि की। उसने जाना मैं ही सृष्टि हूं। मैंने ही यह सब सृष्टि की है। उससे सृष्टि हुई।‘
(‘विश्व एकता संदेश‘ पाक्षिक, पृष्ठ संख्या 7 व 8 पर वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2 के अन्तर्गत पं. दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी द्वारा लिखित ‘वेद आदि ग्रन्थ और क़ुरआन अन्तिम ग्रन्थ है‘, अंक 19-20, अक्तूबर 1994, रामपुर, उ. प्र.)
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वेद 1,10,129,7
यह विविध प्रकार की सृष्टि जहां से हुई, इसे वह धारण करता है अथवा नहीं धारण करता जो इसका अध्ययन है परमव्योम में, वह हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता।
सामान्यतः वेद भाष्यकारों ने इस मंत्र में ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान परब्रह्म परमेश्वर अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस मंत्र में एक बात ऐसी है जिससे यहां ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह बात यह है कि इस मंत्र में सृष्टि के अध्यक्ष के विषय में कहा गया है - ‘सो अंग ! वेद यदि वा न वेद‘ ‘वह, हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता‘। ईशान के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह कोई बात नहीं जानता। फलतः यह सर्वथा स्पष्ट है कि ईशान ने यहां सृष्टि के जिस अध्यक्ष की बात की है, वह सर्वज्ञ नहीं है। मेरे अध्ययन के अनुसार यही वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख है। शब्द ‘नराशंस‘ का प्रयोग भी कई स्थानों पर उनके लिए हुआ है किन्तु सर्वत्र नहीं। इसी सृष्टि के अध्यक्ष का अनुवाद उर्दू में सरवरे कायनात स. किया जाता है।
फलतः श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार वेद का सर्वप्रथम प्रकाश जिस पर हुआ। वह यही सृष्टि का अध्यक्ष है। जिसे इस्लाम में हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप माना जाता है।
मैं जिन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, आइये अब उसका सर्वेक्षण किया जाए।
स्वर्गीय आचार्य शम्स नवेद उस्मानी की तर्जुमानी करते हुए एस. अब्दुल्लाह तारिक़ अपनी प्रख्यात रचना ‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ में लिखते हैं -
‘नीचे हम हज़रत मुजददिद अलफ़े-सानी शैख़ अहमद सरहिन्दी रह. के मक्तूबाते-रब्बानी से कतिपय हदीसें उद्धृत हैं।
प्रख्यात हदीसे-क़ुदसी में आया है, ‘मैं एक छिपा हुआ ख़ज़ाना था, मैंने महबूब रखा कि मैं पहचाना जाऊं, फिर मैंने मख़लूक़ को पैदा किया ताकि मैं पहचाना जाऊं।‘
सर्वप्रथम जो चीज़ इस ख़ज़ाने से प्रागट्य के रूप में समक्ष आई, वह मुहब्बत थी, जो कि मख़लूक़ात की पैदाइश का कारण हुई।
(मक्तूबाते रब्बानी, उर्दू अनुवाद, दफ़तर 3, भाग 2, पृष्ठ 160, मक्तूब 122, प्रकाशक: मदीना पब्लिशिंग कंपनी बंदर रोड कराची)
(-‘अगर अब भी न जागे तो ...‘, पृष्ठ 105, उर्दू से अनुवाद: दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी-)
यह दोनों तथ्य, जिनका उल्लेख हदीसों में इस प्रकार हुआ है, हदीसों से भी पहले हिंदू धर्मग्रंथों में इस प्रकार अभिव्यक्त की गई हैं-
‘एको ऽ हं बहु स्याम्।
‘मैं एक हूं अनेक हो जाऊं।‘
‘स वै नैव रेमे तस्मादे काकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्।‘
शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
उसने रमण नहीं किया इसीलिए एकाकी रमण नहीं होता। उसने द्वितीय की इच्छा की...।
‘यदिदं किंच मिथुनं आपिपीलिकाभ्यः तन्सर्वमसृक्षीत्। सो वेद अहं वाव सृष्टिरस्मि। अहं टि इदं सर्व असृक्षीति। ततः सृष्टिरभवत्।‘
-शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
‘जो कुछ यह चींटी पर्यन्त जोड़ा है उस संपूर्ण की सृष्टि की। उसने जाना मैं ही सृष्टि हूं। मैंने ही यह सब सृष्टि की है। उससे सृष्टि हुई।‘
(‘विश्व एकता संदेश‘ पाक्षिक, पृष्ठ संख्या 7 व 8 पर वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2 के अन्तर्गत पं. दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी द्वारा लिखित ‘वेद आदि ग्रन्थ और क़ुरआन अन्तिम ग्रन्थ है‘, अंक 19-20, अक्तूबर 1994, रामपुर, उ. प्र.)
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