संग चलना तो चाहती हूँ तेरे
मगर कुछ मजबूरियाँ है,
मेरी,तो कुछ तेरी भी,
आज भले ही बदल गई हो
ज़िंदगी तेरी,जिसके चलते
आज न तुम मेरे हो, और न मैं तुम्हारी,
मगर शायद तुम्हें याद हो
कभी लिया था तुम ने वादा एक मुझसे
कि दूर रहकर भी पास रहूँ मैं सदा तुम्हारे
क्यूंकि शायद डर था तुम्हें
कहीं की छूट जाओ न तुम कभी किनारे
क्यूंकि दो नावों में सवारी करना
अक्सर हानी कारक साबित होता है।
लेकिन तब भी मैंने कहा था हाँ ...जब भी तुम मुझे
सच्चे दिल से याद करोगे
मुझे साथ पाओगे अपनी रूह की तरह
जिसे तुम देख तो ना सकोगे
मगर महसूस नहीं कर सकोगे
हवाओं कि तरह
क्यूंकि अब हमारी अपनी ज़िंदगी ही,
हमारी अपनी नहीं
अब अधिकार है उस पर किसी ओर का....
चाहती तो हूँ दूर रहकर भी
तू मुझे याद करे, यादों मे ही सही
तू मुझे अपने पास महसूस तो करे
जैसे रेगिस्तान में साथ-साथ उड़ती
या चलती रेत जिसे सिर्फ हवाओं के
जरिये ही महसूस किया जा सकता है,
ठीक उसी तरह तेरी ज़िंदगी में,
मैं अपना भी, वजूद देखना चाहती हूँ
जो दिखाई भले ही ना दे
लेकिन जिसे महसूस किया जा सके
प्यार के एहसासों और यादों के ज़रिये
ऐसे जैसे समंदर के पानी में नमक..
और कुए के पानी में मिठास
जो दिखकर भी दिखाई नहीं देती
जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है
जज़्बातों की तरह .....
पल्लवी ....
2 टिप्पणियाँ:
चाहती तो हूँ दूर रहकर भी
तू मुझे याद करे, यादों मे ही सही
तू मुझे अपने पास महसूस तो करे....
खुबसूरत रचना , बधाई
behad khubsurat si rachana...abhar
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