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न जाने कितने रूपों को अपनाता है

Written By Brahmachari Prahladanand on गुरुवार, 5 जनवरी 2012 | 8:35 am

न जाने कितने रूपों को अपनाता है,
न जाने कितने रुपयों को कमाता है,
एक बार जो दुनिया को ठगने लग जाता है,
वही रूप बदलने वाला ही तो बहुरुपिया कहलाता है,

रूप वो बदल लेता है,
हर भाषा जान लेता है,
जिस देश में जाएँ,
वेश वही पहन लेता है,

लोगों को लगता अपना है,
पूरा करता सपना है,
कुछ दिन रहकर साथ में,
कूच उसको करना है,

बातों ही बातों में,
बात वो सब निकाल लेता है,
रूप हर किसी का धर लेता है,
भाषा हर किसी की बोल लेता है,

ऐसे ही धीरे-धीरे,
बहुरुपिओं को जमा कर लेता है,
एक नाटक फिर बना लेता है,
नाटक कर-कर, रुपया जमा कर लेता है,

बहुरूपिये का रूप बना वो,
सारी धरती घूम लेता है,
ईधर की चीज़ उधर,
इसी सहारे कर लेता है,

बहुरूपिये का असली चेहरा न कोई देख पाता है,
बगल में भी गर खड़ा हो तो कोई न पहचान पाता है,
यही बहुरुपिया नाम बदल कर नाटक में आता है,
असली नाम भी बहुरूपिये का न कोई जान पाता है,



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2 टिप्पणियाँ:

Rajesh Kumari ने कहा…

bahrupiye ese hi hote hain.bilkul sahi likha hai.bahut achchi kavita.

Asha Lata Saxena ने कहा…

बहुरूपिये को समझना सरल नहीं |वह चाहे जिसकी नक़ल कर सकता है |
अच्छी रचना |
आशा

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