आधुनिक भारतीय समाज में यह आम धारणा है कि इंसान को अपनी कमाई बैंकों में जमा करने के बजाय ज़मीन में निवेश करना चाहिए . कई लोग ज़मीन खरीदने में पूँजी लगाने को बैंकों में 'फिक्स्ड डिपौजिट' करने जैसा मानते हैं . यह भी आम धारणा है कि सोना खरीदने से ज्यादा फायदा ज़मीन खरीदी में है . समाज में प्रचलित इन धारणाओं में काफी सच्चाई है, जो साफ़ नज़र आती है . अपने शहर में किसी ने आज से पचीस साल पहले अगर दो हजार वर्ग फीट जमीन कहीं बीस रूपए प्रति वर्ग फीट के भाव से चालीस हजार रूपए में खरीदी थी तो आज उसकी कीमत चालीस लाख रूपए हो गयी है . पीछे मुड़कर बहुत दूर तक देखने की जरूरत नहीं है .याद कीजिये तो पाएंगे कि छोटे और मंझोले शहरों में आज से सिर्फ दस साल पहले एक हजार वर्ग फीट वाले जिस मकान की कीमत छह -सात लाख रूपए थी आज वह बढकर पैंतीस-चालीस लाख रूपए की हो गयी है . कई कॉलोनियां ऐसी बन रही हैं ,जहां एक करोड ,दो करोड और पांच-पांच करोड के भी मकान बिक रहे हैं .उन्हें खरीदने वाले कौन लोग हैं और उनकी आमदनी का क्या जरिया है , इसका अगर ईमानदारी से पता लगाया जाए तो काले धन के धंधे वालों के कई चौंकाने वाले रहस्य उजागर होंगे .प्रापर्टी का रेट शायद ऐसे ही लोगों के कारण तेजी से आसमान छूने लगा है . प्रापर्टी डीलिंग का काम करने वाले कुछ बिचौलियों की भी इसमें काफी संदेहास्पद भूमिका हो सकती है . कॉलोनियां बनाने वालों के लिए यह कानूनी रूप से अनिवार्य है कि वे उनमे दस-पन्दरह प्रतिशत मकान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए भी बनवाएं ,लेकिन अधिकाँश निजी बिल्डर इस क़ानून का पालन नहीं करते और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता .जमीन और मकानों की कीमतें इस तरह बेतहाशा बढने के पीछे क्या गणित है ,यह कम से कम मुझ जैसे सामान्य इंसान की समझ से बाहर है ,लेकिन इस रहस्यमय मूल्य वृद्धि की वजह से गरीबों और सामान्य आर्थिक स्थिति वालों पर जो संकट मंडराने लगा है , वह देश और समाज दोनों के भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है. जब किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति या उसके परिवार को रहने के लिए एक अदद मकान नहीं मिलेगा तो उसके दिल में सामाजिक व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से आक्रोश पैदा होगा .अगर यह आक्रोश सामूहिक रूप से प्रकट होने लगे तो फिर क्या होगा ? सोच कर ही डर लगता है .
यह एक ऐसी समस्या है जिस पर सरकार और समाज दोनों को मिलकर विचार
करना और कोई रास्ता निकालना चाहिए . रोटी और कपडे का जुगाड तो इंसान किसी
तरह कर लेता है ,लेकिन अपने परिवार के लिए मकान खरीदने या बनवाने में उसे
पसीना आ जाता है. खुद का मकान होना सौभाग्य की बात होती है ,लेकिन यह
सौभाग्य हर किसी का नहीं होता . खास तौर पर शहरों में यह एक गंभीर समस्या
बनती जा रही है . जैसे-जैसे रोजी-रोटी के लिए , सरकारी और प्राइवेट
नौकरियों के लिए ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर पलायन हो रहा है , यह समस्या
और भी विकराल रूप धारण कर रही है .जहां आज से कुछ साल पहले शहरों में
आवासीय भूमि की कीमत पच्चीस-तीस या पचास रूपए प्रति वर्ग फीट के आस-पास
हुआ करती थी ,आज वहाँ उसका मूल्य सैकड़ों और हजारों रूपए वर्ग फीट हो गया
है . ऐसे में कोई निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार स्वयं के घर का सपना कैसे
साकार कर पाएगा ?
सरकारी हाऊसिंग एजेंसियां शहरों में लोगों को सस्ते मकान देने का दावा करती हैं ,लेकिन उनकी कीमतें भी इतनी ज्यादा होती हैं कि उनका मकान खरीद पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता .इधर निजी क्षेत्र के बिल्डरों की भी मौज ही मौज है . अगर किसी मकान की प्रति वर्ग फीट निर्माण लागत अधिकतम एक हजार रूपए प्रति वर्ग फीट हो तो सीधी-सी बात है कि पांच सौ वर्ग फीट का मकान पांच लाख रूपए में बन सकता है .लेकिन बिल्डर लोग इसे पन्द्रह -बीस लाख रूपए में बेचते हैं ,यानी निर्माण लागत का तिगुना -चौगुना दाम वसूल करते हैं . ज़ाहिर है कि गरीब या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार के लिए खुद के मकान का सपना आसानी से साकार नहीं हो सकता . ऐसे में सरकार को अलग-अलग आकार के मकानों की प्रति वर्ग फीट एक निश्चित निर्माण लागत तय कर देनी चाहिए ,जो सरकारी तथा निजी दोनों तरह के बिल्डरों के लिए अनिवार्य हो . शहरों में आवासीय ज़मीन की बेलगाम बढती कीमतों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है . अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश के शहरों में अधिकाँश लोगों के लिए अपने मकान का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाएगा .(स्वराज्य करुण )
सरकारी हाऊसिंग एजेंसियां शहरों में लोगों को सस्ते मकान देने का दावा करती हैं ,लेकिन उनकी कीमतें भी इतनी ज्यादा होती हैं कि उनका मकान खरीद पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता .इधर निजी क्षेत्र के बिल्डरों की भी मौज ही मौज है . अगर किसी मकान की प्रति वर्ग फीट निर्माण लागत अधिकतम एक हजार रूपए प्रति वर्ग फीट हो तो सीधी-सी बात है कि पांच सौ वर्ग फीट का मकान पांच लाख रूपए में बन सकता है .लेकिन बिल्डर लोग इसे पन्द्रह -बीस लाख रूपए में बेचते हैं ,यानी निर्माण लागत का तिगुना -चौगुना दाम वसूल करते हैं . ज़ाहिर है कि गरीब या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार के लिए खुद के मकान का सपना आसानी से साकार नहीं हो सकता . ऐसे में सरकार को अलग-अलग आकार के मकानों की प्रति वर्ग फीट एक निश्चित निर्माण लागत तय कर देनी चाहिए ,जो सरकारी तथा निजी दोनों तरह के बिल्डरों के लिए अनिवार्य हो . शहरों में आवासीय ज़मीन की बेलगाम बढती कीमतों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है . अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश के शहरों में अधिकाँश लोगों के लिए अपने मकान का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाएगा .(स्वराज्य करुण )
3 टिप्पणियाँ:
सच में आज अपना मकान होना एक स्वप्न होता जा रहा है..
Aaj rahne ko kamra mil jaaye bahut hai ...... Bda dukh hota hai... Dil ke kareeb ka saty aam aadmi ka sapna ghar ... Ab jaldi pura nhi hota :( .. Steek abhivyakti !!
रविकर जी ,कैलाश शर्मा जी और लेखिका परी एम. श्लोक जी ! मूल्यवान टिप्पणियों के लिए आप सबका हार्दिक आभार .
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Thanks for your valuable comment.