कई दिनों की बारिश के बाद बादल एकदम चुप से थे..न गरजना न बरसना ... ठंडी हवाएं जरुर रह-रह कर सहला जाती थी...धूली, निखरी प्रकृति की सुन्दरता अपने चरम पर थी ....मुझे पटना जाना था ...ट्रेन में खिड़की वाली सीट मिली (मेरा सौभाग्य )...हमारा सफ़र शुरू हुआ .... दूर तक पसरे हरे-भरे खेत, पेड़ो की कतारें, बाग़-बगीचे दिखने लगे....मैं बिलकुल 'खो' सी गयी थी ...कि एक जगह ट्रेन 'शंट' कर दी गयी...माहौल में ऊब और बेचैनी घुलने लगी.. बचने के लिए इधर-उधर देखना शुरू किया कि 'निगाहे' पटरी के पार झाड़ियों में कुछ खोजती औरत पर गयी.....इकहरा बदन ..सांवली रंगत...वह बेहद परेशान दिख रही थी ...पास ही बैठा उसका छोटा सा बच्चा रोये जा रहा था, पर वह, अपनी ही धुन में थी ...मुझे कुछ अजीब सा लगा इसलिए उन्हें ध्यान से देखने लगी..अचानक उसके हाथ में एक सूखी टहनी नज़र आयी...अब उसके चेहरे पर राहत थी...धीरे-धीरे उसने कई लकड़ियों को इकट्ठा किया ...उसका गठ्ठर बनाया..बच्चे को उठाया और चली गयी...
खबरगंगा: खुश रहो न !:
'via Blog this'
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