इन्सान अगर मिर्च खाता है तो वह ये सोच कर ही खाता है कि इसमें मिर्च होगी. शक्कर भी यही सोच के खाई जाती है. सोचिये अगर मिर्च खाने के बाद हमे स्वाद आये शक्कर का या नमकीन का या खारा या कोई और, तब क्या होगा? हम फिर शक्कर क्यों खायेंगे. कोई दूसरी चीजें खोजेंगे, स्वाद के हिसाब से.
तो फिर इनमें क्या बुराई थी
अरविन्द केजरीवाल इन दिनों यही कर रहे हैं. १२० साल पुरानी कांग्रेस, २९ साल पुरानी भाजपा को, नित नए उगते क्षेत्रीय राजनैतिक कुकुरमुत्ते दलों को लोगों ने यूं ही खारिज नहीं किया था. अगर उन्हें ऐसे ही हुडदंग, झूठ, बयानों में तोड़ मरोड़ करने वालों को चुनना था तो फिर पुराने जाने हुए नेताओं में क्या बुराई थी. केजरीवाल का मैं भी समर्थक रहा, इसलिए नहीं कि वे उभरते सितारे हैं, बल्कि इसलिए कि वे पारंपरिक, सड रही सियासत को साफ़ करने की कोशिश कर रहे हैं. दिक्कत इस कार्य में आना लाजिमी था, किन्तु करना ज़रूरी था. लोगो ने वोट महज दिल्ली से शीला राज ख़त्म करने उन्हें नहीं दिया था. ये कार्य तो भाजपा को चुन के भी किया जा सकता था. असल में जिस बदलाव के लिए अरविन्द को चुना गया अब ये उसका वक्त था. खांटी सियासी तीर चलाने का ये वक्त नहीं था. नए साल में दो बदलाव लोगों को करना हैं, एक करके देख लिया दूसरा बाकी है. पर क्या इस नतीजे के बाद कोई दूसरे बदलाव को लेकर भी उतना ही आशावान होगा?
अरविन्द ने ५ पाप किये हैं
अरविन्द ने अपने इस छोटे से शुद्ध राजनैतिक जीवन को ख़त्म करके बहुत ख़राब किया. इससे उनके हाथों जाने अनजाने ही ५ पाप हो गये.
१. भरोसा गया
बदलाव को लेकर थ्रिल महसूस कर रहे नौजवान निराश हुए. वे अब जब भी बदलाव की बात की जाएगी, अरविन्द के घटिया मानस में खदकते स्वार्थ की बात करेंगे, अब सच्चे आदमी को भी भारी दिक्कत होने वाली है. सामान पाप अन्ना हजारे ने भी किया था, अनशन ख़त्म करके, अब वे दिखाए लोगों को जोड़ के, तभी हर कुछ लोकपाल पारित हुआ नहीं की शाम तक अन्ना सेब खाने लगे.
२. सियासत बुरी है, हम न कहते थे
उन लोगों को फिर आधार मिल गया, जो समेष कहते थे की सियासत सबसे गन्दी चीज है. नेताओं को गालियां देते हुए अपने गृहस्थी में मशरूफ रहते हैं.
३. वे फिर घुटते रहेंगे
पुराने दलों में कुछ अच्छे लोग आप के अंदाज से खुश हुए, उन्हें भी लगा नहीं यार सियासत चुनके उन्होंने कोइ गलत नहीं किया, उनके बच्चे भी आदर्शवाद की राजनीति करने वाले विफल बाबूजी नहीं कहेंगे. वे फिर डरे हुए सियासत में घुसे रहेंगे.
४. पुराने फिर चीखेंगे
जो पुराने दलों में बूथ केप्चरिंग, दलित, पिछडा, मुसलमान आदि को ही सियासत मानते थे, वे कहेंगे हम सही हैं. देख लो आप को, उन्हें भी तो वही करना पड़ेगा.
५. अफसर जो चाहते हैं कुछ करना
अफसरानों में यूं तो खतरनाक दिमाग से भारी लेस कई अफसर हैं, मगर कुछ अच्छे भी हैं, वे सोचते हैं अब शायद काम करने का मौका मिलगा. वे फिर से अपनी फाइलों में घुस जायेंगे, अपने वरिष्ठ की चापलूसी में मस्त हो जायेंगे. चूँकि वही तो होता है आगे बढ़ने का तरीका.
इन पापों की ज़िम्मेदारी अरविन्द ले न ले, बहरहाल लोकसभा से उनको अब ज्यादा उम्मीद नहीं करना चाहिए. श्रेष्ठ होता की दिल्ली की अपेक्षाओं पर ज़रा खरा उतर लेते पहले.
- सखाजी.
2 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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गणतन्त्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जय भारत।
भारत माता की जय हो।
dhanywad
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Thanks for your valuable comment.