786 वीं पोस्ट मुबारक हो AIBA के सभी सदस्यों को !
वक्त तेज़ी से गुज़र जाता है। अभी अभी की तो बात है जब ‘आल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसिएशन‘ की स्थापना हुई थी। 3 फ़रवरी 2011 को जनाब सत्यम शिवम जी ने इसकी पहली पोस्ट लिखी थी और आज इस ब्लॉग की 786 वीं पोस्ट मैं लिख रहा हूं। पहली और इस पोस्ट के दरम्यान 173 दिन का फ़ासला है। प्रतिदिन 4.5 पोस्ट का औसत आ रहा है जो कि एक साझा ब्लॉग की सफलता का सुबूत है।
जो लोग इस ब्लॉग के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं, उन्हें इस सफलता के लिए ढेर सारी बधाईयां !
यहां यह जान लेना भी दिलचस्प होगा कि फ़िल्म क़ुली से मशहूर होने वाला अंक 786 आखि़र है क्या ?
इसका ताल्लुक़ ‘बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम‘ से है। अरबी में हरेक अक्षर का एक मान होता है। बिस्मिल्लाह के तमाम अक्षरों को जोड़ा गया तो इसका कुल मान 786 आया। किसी भी काम के शुरू में मालिक को याद करना और बिस्मिल्लाह कहना इस्लाम की तालीम है लेकिन बहुत जगह ऐसी भी होती हैं जहां कि बिस्मिल्लाह कहने के बजाय लिखा जाता है जैसे कि ख़त वग़ैरह और उसमें यह डर भी रहता है कि पढ़ने वाला न जाने किस मिज़ाज का हो ?
वह पवित्र क़ुरआन की इस आयत का अदब कर पाए या नहीं ?
कहीं उसकी लापरवाही से इस आयत की बेअदबी न हो जाए।
यही सोचकर कुछ लोग बिस्मिल्लाह न लिखकर अपने पत्र आदि के शुरू में 786 लिखने लगे ताकि पढ़ने वाले को मालिक के नाम की स्मृति भी बनी रहे और आयत की बेअदबी भी न हो।
‘बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम‘ का अर्थ है ‘(कहो !) शुरू अल्लाह के नाम से जो अनंत दयावान और सदा करूणाशील है।‘
बिस्मिल्लाह में कुल 19 अक्षर हैं। 19 की यह गिनती पवित्र क़ुरआन में एक ऐसी गणितीय योजना के तौर पर इस्तेमाल हुई है जिसका पता अभी हाल के वर्षों में ही चला है। क़ुरआन के इस गणितीय चमत्कार को जो भी देखता है वह आश्चर्य चकित रह जाता है। जो लोग चमत्कार में विश्वास नहीं रखते, उन्हें भी यह देखकर ताज्जुब होता है कि यह चमत्कार घटित कैसे हआ ?
आप निम्न लिंक पर जाएंगे तो आप भी इस चमत्कार को देख सकते हैं।
और इसका दूसरा भाग देखें
और संक्षेप में थोडा सा यहाँ भी पेश किया जा रहा है .
पवित्र कुरआन का आरम्भ ‘बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर रहीम’ से होता है। इसमें कुल 19 अक्षर हैं। इसमें चार शब्द ‘इस्म’(नाम), अल्लाह,अलरहमान व अलरहीम मौजूद हैं। परमेश्वर के इन पवित्र नामों को पूरे कुरआन में गिना जाये तो इनकी संख्या इस प्रकार है-
इस्म-19,
अल्लाह- 2698,
अलरहमान -57,
अलरहीम -114
अब अगर इन नामों की हरेक संख्या को ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ के अक्षरों की संख्या 19 से भाग दिया जाये तो हरेक संख्या 19, 2698, 57 व 114 पूरी विभाजित होती है कुछ शेष नहीं बचता।
है न पवित्र कुरआन का अद्भुत गणितीय चमत्कार-
# 19 ÷ 19 =1 शेष = 0
# 2698 ÷ 19 = 142 शेष = 0
# 57 ÷ 19 = 3 शेष = 0
# 114 ÷ 19 = 6 शेष = 0
पवित्र कुरआन में कुल 114 सूरतें हैं यह संख्या भी 19 से पूर्ण विभाजित है।
पवित्र कुरआन की 113 सूरतों के शुरू में ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्ररहीम’ मौजूद है, लेकिन सूरा-ए-तौबा के शुरू में नहीं है। जबकि सूरा-ए-नम्ल में एक जगह सूरः के अन्दर, 30वीं आयत में बिस्मिल्लाहिर्रमानिर्रहीम आती है। इस तरह खुद ‘बिस्मिल्ला- हर्रहमानिर्रहीम’ की संख्या भी पूरे कुरआन में 114 ही बनी रहती है जो कि 19 से पूर्ण विभाजित है। अगर हरेक सूरत की तरह सूरा-ए-तौबा भी ‘बिस्मिल्लाह’ से शुरू होती तो ‘बिस्मिल्लाह’ की संख्या पूरे कुरआन में 115 बार हो जाती और तब 19 से भाग देने पर शेष 1 बचता।
क्या यह सब एक मनुष्य के लिए सम्भव है कि वह विषय को भी सार्थकता से बयान करे और अलग-अलग सैंकड़ों जगह आ रहे शब्दों की गिनती और सन्तुलन को भी बनाये रखे, जबकि यह गिनती हजारों से भी ऊपर पहुँच रही हो?
पवित्र कुरआन का चमत्कार
हज़रत मुहम्मद (स.) आज हमारी आँखों के सामने नहीं हैं लेकिन जिस ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन के ज़रिये उन्होंने लोगों को दुख निराशा और पाप से मुक्ति दिलाई वह आज भी हमें विस्मित कर रहा हैै।
एक साल में 12 माह और 365 दिन होते हैं। पूरे कुरआन शरीफ में हज़ारों आयतें हैं लेकिन पूरे कुरआन शरीफ में शब्द शह् र (महीना) 12 बार आया है और शब्द ‘यौम’ (दिन) 365 बार आया है। जबकि अलग-अलग जगहों पर महीने और दिन की बातें अलग-अलग संदर्भ में आयी हैं। क्या एक इनसान के लिए यह संभव है कि वह विषयानुसार वार्तालाप भी करे और गणितीय योजना का भी ध्यान रखे? ‘मुहम्मद’ नाम पूरे कुरआन शरीफ़ में 4 बार आया है तो ‘शरीअत’ भी 4 ही बार आया है। दोनों का ज़िक्र अलग-अलग सूरतों में आया है।‘मलाइका’ (फरिश्ते) 88 बार और ठीक इसी संख्या में ‘शयातीन’ (शैतानों) का बयान है। ‘दुनिया’ का ज़िक्र भी ठीक उतनी ही बार किया गया है जितना कि ‘आखि़रत’ (परलोक) का यानि प्रत्येक का 115 बार। इसी तरह पवित्र कुरआन में ईश्वर ने न केवल स्त्री-पुरूष के मानवधिकारों को बराबर घोषित किया है बल्कि शब्द ‘रजुल’ (मर्द) व शब्द ‘इमरात’ (औरत) को भी बराबर अर्थात् 24-24 बार ही प्रयुक्त किया है।
ज़कात (2.5 प्रतिशत अनिवार्य दान) में बरकत है यह बात मालिक ने जहाँ खोलकर बता दी है। वही उसका गणितीय संकेत उसने ऐसे दिया है कि पवित्र कुरआन में ‘ज़कात’ और ‘बरकात’ दोनों शब्द 32-32 मर्तबा आये हैं। जबकि दोनांे अलग-अलग संदर्भ प्रसंग और स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं।
पवित्र कुरआन में जल-थल का अनुपात
एक इनसान और भी ज़्यादा अचम्भित हो जाता है जब वह देखता है कि ‘बर’ (सूखी भूमि) और ‘बह्र’ (समुद्र) दोनांे शब्द क्रमशः 12 और 33 मर्तबा आये हैं और इन शब्दों का आपस में वही अनुपात है जो कि सूखी भूमि और समुद्र का आपसी अनुपात वास्तव में पाया जाता है।
सूखी भूमि का प्रतिशत- 12/45 x 100 = 26.67 %
समुद्र का प्रतिशत- 33/45 x 100 = 73.33 %
सूखी जमीन और समुद्र का आपसी अनुपात क्या है? यह बात आधुनिक खोजों के बाद मनुष्य आज जान पाया है लेकिन आज से 1400 साल पहले कोई भी आदमी यह नहीं जानता था तब यह अनुपात पवित्र कुरआन में कैसे मिलता है? और वह भी एक जटिल गणितीय संरचना के रूप में।
क्या वाकई कोई मनुष्य ऐसा ग्रंथ कभी रच सकता है?
क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा है?
6 टिप्पणियाँ:
ok ji
---सब ठीक है जी....परन्तु क्या बार बार , हर बार ...'पवित्र कुरआन' ..शब्द लिखना जरूरी है......किसे नहीं पता कि 'कुरआन' पवित्र ही है......सब धर्म ग्रन्थ पवित्र ही होते हैं ....सिर्फ 'कुरआन' से ही मतलब पूरा हो जाता है.... क्या कोई अन्य 'अपवित्र कुरआन' भी होती है क्या ...जो बार बार ...'पवित्र कुरआन' ...कहा जाता है...
@ आदरणीय श्याम गुप्ता जी ! यह आदर और सम्मान के लिए कहा जाता है . आप अपने पिता को मात्र 'पिता' न कहकर उनके संबोधन के साथ सदैव 'जी' ज़रूर लगते हैं और आपके बच्चे भी ऐसे ही करते होंगे. इस सामान्य सी बात को अगर आप चाहते तो समझ सकते थे.
इस तरह के ऐतराज़ आपकी गरिमा को कम करते हैं और आपके ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं .
----तो मेरे विचार से ..पूरा नाम "कुरआन शरीफ" कहा जाना चाहिए .......आदरसूचक शब्द और गुण सूचक शब्द में फर्ख होता है....पिताजी से पिता के धार्मिक या अधार्मिक, पवित्र या अपवित्र व्यक्ति होने की सूचना नहीं मिलती...और पिता अधार्मिक हो तो भी पिता के स्थान पर वह आदरणीय ही है...
---जो स्वयं ही विशेषण / विशेष्य-- के प्रतिमान होते हैं उनके आगे विशेषण लगाने से उनकी गरिमा कम ही होती है..बढती नहीं ...सूर्य को देदीप्यमान सूर्य नहीं कहा जाता....चन्द्रमा को चमकदार चन्द्रमा नहीं कहा जाता....
@ आदरणीय श्याम गुप्ता जी ! क़ुरआन को क़ुरआन कहना भी जायज़ है और क़ुरआन पवित्र है इसलिए अगर पवित्र ग्रंथ को पवित्र कह दिया जाए तो यह भी एक हक़ीक़त का ही बयान है।
हरेक धर्म-मत के लोग अपने ग्रंथों को केवल नाम लेकर भी बोलते हैं और उनके साथ पवित्र शब्द जोड़कर भी । यह एक सनातन परंपरा है । इस पर बहस व्यर्थ है ।
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