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तनहाइयां ....कविता ..ड़ा श्याम गुप्त.....

Written By shyam gupta on मंगलवार, 21 जून 2011 | 8:15 pm

प्रिये!
जाने क्यों तुम मुझसे  दूर होजाती हो, 
बार बार ,
हर बार |
जाने क्यों तनहाइयां  घेर लेती हैं मुझे  ,
बार बार , हर बार ||

यद्यपि, तनहाइयां -
जीवन की रोमांचक अनुभूतियाँ हैं ;
जो संयोग की एकरसता से ऊबे मन को  ,
विप्रलंभ -श्रृंगार   रूपी अनल से -
आपलावित करती हैं , और-
जन्म देती हैं-
'मेघदूत' को ||

ये कसौटी हैं,
प्रेम रूपी धार को तेज करने  की ;
क्योंकि,
दूरियां, दिलों को करीब लाती हैं ;
और लाती हैं,
इंतज़ार के बाद-
मिलन की अनूठी अनुभूति को ||

फिर भी जब इस वन-प्रांतर में  ---
'संध्या-सुन्दरी' 
दिवस के अवसान पर हाथ मलती है , तो-
 सहसा ख्याल आता ही  है, कि-
जाने क्यों तुम मुझसे दूर होजाती हो ,
बार -बार ,
हर बार ||
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10 टिप्पणियाँ:

Manish Khedawat ने कहा…

bahut khoobsurat rachna
badhai ho ||

_______________________________
राजनेता - एक परिभाषा अंतस से (^_^)

मैं , मेरा बचपन और मेरी माँ || (^_^) ||

Asha Lata Saxena ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति |
आशा

Anamikaghatak ने कहा…

bahut khoob.....badhiya

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
हार्दिक शुभकामनायें !

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

फिर भी जब इस वन-प्रांतर में ---
'संध्या-सुन्दरी'
दिवस के अवसान पर हाथ मलती है , तो-
सहसा ख्याल आता ही है, कि-
जाने क्यों तुम मुझसे दूर होजाती हो ,
बार -बार ,
हर बार

बहुत ख़ूबसूरत रचना

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद...चंद्रभूषण जी,विर्क जी,खेदावत जी व आशा जी ..
--धन्यवाद अना जी व डॉ शरद जी.....आभार...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

komal bhavon ki sundar abhivyakti.

Asha Joglekar ने कहा…

फिर भी जब इस वन-प्रांतर में ---
'संध्या-सुन्दरी'
दिवस के अवसान पर हाथ मलती है , तो-
सहसा ख्याल आता ही है, कि-
जाने क्यों तुम मुझसे दूर होजाती हो ,
बार -बार ,
हर बार

संध्या को दिवस के अवसान के साथ अवसाद कुछ ज्यादा होता प्रतीत जो होता है ।
बहुत सुंदर रचना ।

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद --सुरेन्द्र जी
व आशाजी ...सत्य बचन...

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