मित्रों,
पहली बार मैं इस ब्लॉग पर अपना योगदान दे रहा हूँ. मुझे माफ़ करेंगे आप सभी साथी और पाठकगण, ऐसी आशा है.
जीवन की उलझनों में ऐसा उलझा कि कविता को समय ही नहीं दे पाया. जाने कहाँ गए वो दिन? जाने कहाँ गया वो जूनून? जाने कहाँ गयी वो लगन? शब्द ही खो गए मेरे ह्रदय के.
एक नए जोश के साथ आया हूँ इस बार, इस संकल्प के साथ कि अब तो लिखूंगा, बहुत लिखूंगा, निरंतर लिखुंगा। हिंदी का दास हूँ चाहे अपने नाम से पूर्वजों के "दास" टाइटल को हटा दिया है मैंने.
इस बार मैं एक पुरानी कविता "मेरी कलम रुक जाती है" को विडियो के रूप में पुनः जीवित किया है जो यहाँ शेयर कर रहा हूँ. विनम्र निवेदन है की इसे सुने, गुणे और मेरा मार्गदर्शन करें...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
कोई कहता है
भूख लगी है
पैसे दे दो...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
मैं देखता हूँ
छोटे से बच्चे को
चाय की दूकान पे
काम करते...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
कोई सिमटी सिकुडी लड़की
किनारे से गुजरती है
सर झुका कर
भीड़ से बचकर...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
कोई रिक्शा वाला
दस के बदले पाँच पाकर
खड़े होकर
देखता है चमकते सूट को...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
एक पुलिस वाला
सलाम करता है
किसी गाड़ी वाले को...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
अखबार में छपती है
हत्या, लूट, बलात्कार की
युद्ध, राजनीति, उठा-पटक की
रोज-रोज खबरे एक-सी...
मेरी कलम रुक जाती है
जब
लगता है
शब्दों के बाण
कविता का मलहम
या गीत के सरगम
बदल नहीं सकते
तुझे, मुझे या उन्हें
न आत्मा, न परमात्मा
न भूत को, न भविष्य को...
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