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बचपन: वक्त का खूबसूरत कोना

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on मंगलवार, 3 जुलाई 2012 | 10:04 pm

बालमन की सुलभ इच्छाएं बड़ी आनंद दायक होती हैं। कई बार सोचते-सोचते हम वक्त के उस कोने तक पहुंच जाते हैं, जहां हम कभी सालों पहले रचे, बसे और रहे होते हैं। जिंदगी जैसे अपनी रफ्तार पकड़ती जाती है, हम उतने ही व्यवहारिक और यथार्थवादी होते जाते हैं। किंतु यह यथार्थ हमसे कल्पनाई संसार की रंगत ले उड़ता है। वह कल्पनाई संसार जो अनुभवों की गठरी होता है, सुखद एहसासों के आंगन में मंजरी होता है, हल्की सहसा आई मुस्कान की वजह होता है। इस कल्पनाई संसार से दूर जाकर हम देश, दुनिया की कई बातें सीखते, समझते और जानते हैं। किंतु जब बचपन की यह खोई, बुझी, बिसरी और स्थायी सी सुखद यादें दिमाग में ढोल बजाती हैं, तो मन भंगड़ा करने लग जाता है। यादों की धुन पर मन मस्ती में डूब गया, जब 20 साल पुरानी चिल्ड्रन फेवरेट लिस्ट पर चर्चा शुरू हुई। किस तरह से एक अदद स्वाद की गोली के लिए तरसते थे, किस तरह से हाजमोला कैंडी के विज्ञापन को देख मन मसोस कर बैठ जाते थे, कैसे स्कूल के रास्ते में पडऩे वाली दुकानों पर लटके पार्ले-जी के विज्ञापन को देख मन डोल उठता था। सोचने लगते कि वह बच्चा कितना लकी है जो इस बिस्किट के पैकेट पर छपा रहता था, जब चाहे बिस्किट खाता होगा। खूब खाता होगा, मम्मी तो उसे कभी मना करती नहीं होगी, फोटो तक उसका खिंचवाया है। बालमन यहां तक इच्छा कर बैठता कि काश मेरे घर बैल गाड़ी में ऊपर तक भरकर बिस्किट आएं। और ऐसा नहीं कि यह इच्छा मर गई हो, वह इमेज भी आज जेहन में जस की तस है, जब इस बात की कल्पना की गई थी। मेरा घर, उसमें खड़ी लकड़ी की बैल गाड़ी, उसमें लदे फसल के स्थान पर बिस्किट, हरेक बिस्किट में दिख रहा है वही गोरा-नारा हिप्पीकट बच्चा। इस बात की कल्पना कोयल जब भी मन के किसी कोने से कूकती है तो यादों का बियावां खग संगीत पर और जवां हो जाता है। वो मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम की बसों के पीछे बना एक सुंदर सा बच्चा और हाथ में लिए स्वाद की गोली। वाह मजा आ जाता। जब उसे देखता और उसके चेहरे की परिकल्पना करते कि वह कितना लकी है जिसके हाथ में स्वाद की गोली है, वो भी जब वह चाहे तब। स्वाद के प्रति क्रेज ऐसा रहा कि टीवी पर जब एड आता स्वाद-स्वाद और एक व्यक्ति आसमान से स्वाद की गोलियां फेंकता तो लगता था जैसे अब गिरी या कब गिरी मेरे आंगन में। बालमन की कल्पनाएं यहीं नहीं थमतीं वह मीठे पान पर भी खूब मुज्ध होता है। मीठे पान में डलने वाले लाल-लाल पदार्थ को क्या कहते हैं आज भी नहीं मालूम, मगर हम लोग उसे हेमामालिनी कहते थे। लोग इसमें मीठे पेस्ट की ट्यूब डालकर उसे धर्मेंद्र कहते थे। तब तो नहीं, लेकिन आज लगता है धर्मेंद्र और हेमामालिनी का मीठे पान की दुनिया में अद्भुत योगदान रहा है। बालमन एक और कुलांचे भरता है। बातों ही बातों में शरारतें भी जवां होने लगती हैं। इनमें छुप-छुपकर कंचा खेलने, स्कूल में आधी छुट्टी के बाद न जाने, चौक चौराहों पर बैठकर बड़ों की बातें सुनने जैसी बातों पर लगे प्रतिबंध आज के अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों जैसे विषय हुआ करते थे। बालमन की कल्पनाएं उस वक्त और अंगड़ाई लेने लगती हैं, जब बीसों साल पुराने किसी खाद्य उत्पाद के पैकेट्स कहीं मिल जाएं। कहीं बात छिड़े तो यूपी, बिहार, गुजरात, की सीमाओं से परे होकर कॉमन इच्छाएं, कठिनाइयां, कमजोरियां, चोरियां, शरारतें और मन को आह्लादित करने वाली खुशियां मिलने लग जाती हैं। इस अद्भुत बचपन के सफर को संभालकर रखने की जिम्मेदारी अपने दिमाग की किसी स्टोरेज ब्रांच को दे दीजिए, वरना सोने जैसी मंहगी होती मेमोरी में स्पेस नहीं बचेगा इन खूबसूरत एवर स्माइल स्वीट मेमोरीज को सहजेने के लिए। चूंकि संसार में घटनाएं बहुत बढ़ गईं हैं। रोजी के जरिए आपका दिमागी ध्यान ज्यादा चाह रहे हैं, ऐसे में दिमाग के पास हर घटना के डाटा रखने की जिम्मेदारी है, तब फिर कहां रखेंगे इन बाल चित्रों जैसे स्माइली इवेंट्स को। वरुण के. सखाजी
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