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मैं सिपाही अमजद ख़ान बोल रहा हूं....

Written By बेनामी on शुक्रवार, 6 जुलाई 2012 | 9:23 am


शहीद अमजद ख़ान 

जंगलपारा नगरी ज़िला धमतरी छत्तीसगढ़...यही है मेरी जन्मस्थली...जहाँ मेरी ज़िंदगी ने पहली साँसे ली थी...उस दिन बहुत खुश थे मेरे पिता कलीम ख़ान जो की वनोपज के एक निहायत ही छोटे दर्जे के व्यापारी हैं...बचपन से मुझे वर्दी का बड़ा शौक था..वर्दी पहने लोगों को देखकर मुझे मन ही मन गर्व महसूस होता था...मैनें अपने अब्बा से कह दिया था कि देखना एक ना एक दिन पुलिस वाला बन के ही दिखलाउंगा....खेलों में भी मेरी गहरी रूचि थी....और अल्लाह के फ़ज़लो क़रम से मैं पढ़ाई में भी आला दर्जे का था...एक दिन मेरी चाहत रंग लायी और मुझे 2006 में ज़िला पुलिस बल में आरक्षक के पद पर तैनाती मिल गयी...मुझे याद है की ट्रेनिंग के बाद मैनें बड़ी शान से अपनी क़लफदार वर्दी अपने अब्बा को दिखलायी थी जिसे देख कर उनकी आँखे भर आयी थी...मैनें पूरी शिद्दत के साथ अपनी नौकरी को अमली जामा पहनाया था...
इस बीच पूरे प्रदेश को छोटे-छोटे ज़िलों में बांटने की क़वायद शुरू हो गयी थी जिसके मद्देनज़र बस्तर के घने जंगलो के बीच बसे एक सुविधा विहीन ईलाके सुकमा को ज़िले का दर्ज़ा प्राप्त हो गया...मुझे क्या मालूम था की आगे चल कर सुकमा का ईलाक़ा ही मेरी कब्रगाह बनने वाला था...मुझे अतिउत्साही कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का गार्ड बना कर सुकमा भेज दिया गया...नक्सली मामलों में सुकमा के एक बेहद संवेदनशील ईलाके होने की वजह से सुरक्षा की हर चेतावनी को नज़र अंदाज़ करते कलेक्टर मेनन बीहड़ ईलाकों में भी पहुंचने से गुरेज़ नहीं करते थे और उनका सुरक्षा गार्ड होने के नाते मैं हर वक़्त साये की तरह उनके साथ रहा करता था...मुझे क्या पता था की साहब की नाफरमानी एक दिन मुझे ही साये की शक़्ल लेने के लिये मजबूर कर देगी...
अप्रेल का महीना सन 2012 जिसके बाद मेरी ज़िंदगी की क़िताब के अक्षर हमेशा के लिये विराम लेने वाले थे...ग्राम सुराज का सरकारी ढोल पूरे प्रदेश में ज़ोरों से पीटा जा रहा था...नेता,प्रशासनिक अमला गाँव-गाँव पहुंच कर फायदेमंद सरकारी योजनाओं की जानकारी आम जनो को दे रहा था भले ही फायदा किन ख़ास लोगों तक पहुंचता है यह बात किसी से छुपी ना हो पर एक शासकीय कर्मी होने के नाते हमें ग्राम सुराज को सफल बनाने के लिये तत्परता से काम करना था...कलेक्टर साहब सुराज अभियान के लिये कमर कस तैय्यार थे....सुकमा का बीहड़ ईलाका जहां तमाम तरह की सुविधायें यथार्थ से कोसो दूर हैं...सड़क की परिकल्पना ही की जा सकती है...कई गाँव ऐसे मुहाने में बसे हैं जहाँ चार पहियों पर तो क्या दुपहिया भी बड़ी मशक़्क़त के बाद पहुंचा जा सकता है....पर 2006 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन की सुरक्षा में तैनात मैं और मेरा एक और छत्तीसगढ़ के ही रायगढ़ निवासी साथी किशन कुजूर की प्रतिबद्धता थी साहब की पूर्ण सुरक्षा की....
21 अप्रेल 2012 दिन शनिवार की सुबह मैं जल्दी उठ गया....मेरे साथी किशन ने मेरे उठते साथ ही उजली धूप की मुस्कान की तरह गुड मार्निंग कहा...और हम कलेक्टर साहब के साथ ग्राम सुराज अभियान की भेंट चढ़ने के लिये निकल गये.....जैसा मैनें पहले ही कहा है कि साहब बड़े उत्साही क़िस्म के व्यक्ति हैं....काम के आगे वो कुछ और नहीं सोचते...यहां तक की नाश्ता और भोजन भी...ये बात अलहदा है कि उनके पास महंगा फूड सप्लीमेंट हमेशा मौजूद रहता था जिसे हम जैसे मिडिल क्लास लोगों के लिये ख़रीद पाना अमूमन नामुमकिन होता है.....साहब के साथ सुराज अभियान का जायज़ा लेते हुये पूरा दिन बीता और फिर वो लम्हा आ गया जब मैं और मेरा साथी किशन इस ईंसानी दुनिया को हमेशा के लिये छोड़ कर जाने वाले थे...
शाम करीब साढ़े 4 बजे केरलापाल के मांझीपारा में ग्राम सुराज शिविर लगा था… बताया गया कि पहले से कुछ नक्सली ग्रामीण वेशभूषा में वहां मौजूद थे.... कलेक्टर साहब शिविर में बैठे हुए थे तभी एक ग्रामीण वहां पहुंचा और मांझीपारा में किसी काम दिखाने की बात उन्हें कही... जिस पर साहब अपनी स्कार्पियों में कुछ ही दूर निकले थे तभी 10 से 15 मोटर साइकिल में सवार नक्सलियों ने उनके वाहन को घेर लिया और पूछा कलेक्टर कौन हैं...?? पास के ही पेड़ के पास अपनी बाईक पर बैठे-बैठे मेरे साथी किशन कुजूर ने अपनी गन तानी ही थी कि उस पर गोलियों की बौछार कर दी गयी और वह वहीं ढेर हो गया....मैनें एक पेड़ की आड़ लेकर अपनी गन से नक्सलियों पर फायरिंग शुरू कर दी और एक नक्सली को ढेर करने में क़ामयाब भी रहा...पर मैं अकेला और नक्सली अधिक...आख़िर मेरी अकेली गन कब तक उनका मुक़ाबला कर पाती...तभी अचानक लगा की बहुत सी लोहे की कीलें मेरे शरीर में चुभती चली जा रही हैं....और उस चुभन का दर्द बयाँ करना शायद मरने के बाद भी मुमकिन नहीं है...ख़ून से लत-पथ मैं ज़मीन पर आ गिरा....मेरी आँखे धीरे-धीरे बंद हो रही थी और उस आख़िरी वक़्त में भी मैं ख़ुदा को याद करने की बजाय अपनी गाड़ी में बैठे कलेक्टर साहब को देख रहा था और मन ही मन अफसोस कर रहा था की मैं उनकी सुरक्षा नहीं कर पाया.....और फिर मैनें एक हिचकी के साथ अपना शरीर ज़मीन के और जान अल्लाह के हवाले कर दिया....
मैं तो इस दुनिया से दूर चला गया..लेकिन उसके बाद साहब को नक्सलियों की क़ैद से आज़ाद कराने की संभवतः तयशुदा क़वायद शुरू कर दी गयी...समझौते के बहाने नक्सलियों के बुज़ुर्ग समर्थकों को राज्य अतिथि के दर्जे से नवाज़ा गया...आने-जाने के लिये हैलीकॉप्टर मुहैय्या कराया गया...हर जायज़ और नाजायज़ मांगो को माना गया....और कलेक्टर साहब की सुरक्षित रिहाई हो गयी...आसमानी हवाओं में ऊड़ते-ऊड़ते बात आयी की साहब की रिहाई में सरकारी पैसों का भी जमकर लेन-देन हुआ....ख़ैर मैं अब इन सब ईंसानी हरक़तों से परे हूं लेकिन मेरे बेवजह गुज़र जाने के बाद सरकारी मदद की राह तकते किशन और मेरे परिवार को देख मन भर आता है...दिल में रह-रह कर एक टीस सी उभरती है...पर आँखों से आँसू नहीं निकलते...यक़ीनन राजनीत की चौसर पर मोहरों की तरह बैठे लोगों की चाकरी करने से बेहतर है ख़ुदा का यह आरामगाह...जहाँ कुछ मतलब-परस्त लोगों की वजह से शहादत झेल रहे लोगों की कमी नहीं है...और वह सब भी बेहद ख़ुश हैं...अरे..अरे मेरे अब्बा हूज़ूर अपने पुराने रेडियो पर एक गाना सुनकर...मेरी याद में फफक-फफक कर रो रहे हैं....गाना भी माशा अल्लाह कमाल का है....ज़रा आप भी सुनिये...”मतलब की दुनिया को छोड़कर..प्यार की दुनिया में...ख़ुश रहना मेरे यार”........॥ 
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