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हास्य के साथ हास्यास्पद बदलाव की आशा

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शुक्रवार, 27 जुलाई 2012 | 11:11 pm

एक वीडियो कॉन्फ्रेंस के दौरान अरविंद केजरीवाल से बात हुई। यह बात करीब अभी से एक साल पुरानी है। यानी पिछले साल जब अन्ना हजारे करप्शन विरोधी मशीन ईजाद कर रहे थे। अरविंद से मैंने पूछा था कि आपके पास ह्युमन चैन क्या है? जिसके जरिए आप देशभर के जन सैलाब को बांधे रखेंगे। एकाध बार तो सही है कि लोग स्वस्फूर्त आ भी जाएंगे। और फिर मीडिया के पास कुछ और रहा तो फिर आप क्या करेंगे।? अरविंद इतने आत्मविश्वस्त थे कि वे कुछ भी विरोधी बात नहीं सुनना चाहते थे। उन्होंने इस प्रश्न को इतना हल्के से लिया और कहा, यह तो लोगों को सोचना है कि वे करप्शन से निपटने के लिए कोई बिल पास करवाने की विल रखते हैं या नहीं। अरविंद की इस बात से मैं सहमत नहीं हुआ। मैंने वीडियो कॉन्फ्रेंस की अपनी मर्यादाओं के बीच तीन बार उनसे इस पर बहस चाही। मगर अरविंद को लगा जैसे मेरे अखबार ने उन्हें यहां अपमानित करने के लिए बुलाया है। तो वह पैर पटककर बोले यह तो मीडिया के कुछ जिम्मेदार लोगों को सोचना होगा, वरुण जी आप इस बारे में नहीं समझ पाएंगे। मेरा प्रश्न पत्रकार के नाते जरूर था, किंतु आम आदमी की छटपटाहट भी था। मैं वास्तव में इस टीम से जुडऩा चाहता था। किंतु मुझे कोई रास्ता ही नहीं दिख रहा था। इससे जुडऩे के लिए टीवी देखना इकलौती शर्त थी, वो भी न्यूज चैनलों की बातें जो वे पूर्वाग्रस्त से भी कह सकते थे। उस दौर का मेरा मानस था कि देश, राष्ट्र अगर रिएक्ट कर रहा है, यह नहीं कि वह लोकपाल के लिए लड़ रहा है। बस रिएक्ट कर रहा है, तो अच्छा अवसर है हमें भी समाज में आगे आना चाहिए। मन मानस सब तैयार था कि कैसे भी इस महा आंदोलन में कूदेंगे। चाहे नौकरी जाए, चाहे घर, चाहे परिवार। देशप्रेम या यूं कहिए एक सोशल कंर्सन इतना बलवान हुआ। किंतु अरविंद की बेहूदा इस बात ने झल्ला दिया। मैं यह नहीं कहता कि मैं कूद ही जाता, किंतु कूद जरूर जाता। अगर अरविंद या अन्ना थोड़े भी प्रैक्टिकल होते। भीड़ के बूते आगे बढ़े लोगों को आखिरकार चाहिए तो भीड़ ही होती है। मैं नहीं गया उल्टा मुझे कोफ्त सी भी हुई कि यह क्या व्यवस्था बदलने की बात कर रहे हैं, वो भी इतने अव्यवस्थित तरीके से। इस विंडबना ने मुझे इस आंदोलन से दूर किया और यह भी मैं दावे से कहता हूं कि मेरे जैसे लाखों लोगों को आंदोलन ने ऐसी ही गैर जिम्मेदाराना बातों से दूर किया है। अब जब बाबा रामदेव उर्फ राजनीतिज्ञ योगासन गुरु यह कह रहे हैं, कि लोकतंत्र में अपनी बात मनवाने के लिए कम से कम 1 फीसदी लोग तो साथ हों। तो गलत नहीं कह रहे। सच है ऐसे तो यह पर्सनल आंदोलन हो गया। और रहा अनशन का तो यह लोकतंत्र में गरिमापूर्ण स्थान रखता है, लेकिन कल, परसो, शाक भाजी जैसा अनशन हो गया तो क्या होगा। यह अभी भी मौका है अन्ना को थिंक टैंकों की शरण में होना चाहिए। वे इसे फिर से बनाकर निश्चित ही प्रासंगिक, सांदर्भिक और कार्यरूपित आंदोलन की शक्ल में ढाल सकेंगे। अन्ना को मेरा खुला निमंत्रण है अगर चाहें तो मुझसे बात कर सकते हैं। इसी हास्य के साथ गंभीर बात पर हास्ययुक्त तरीके से बदलाव की अति हास्यास्पद आशा के साथ। वरुण।
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4 टिप्पणियाँ:

Shikha Kaushik ने कहा…

वरुण जी -अन्ना आन्दोलन की विफलता ये साबित करता है कि जब भी कोई आन्दोलन व्यापक हितो को लेकर किया जाये उसमे राजनीति नहीं होनी चाहिए .आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुआ और केवल कॉग्रेस के खिलाफ होकर रह गया .अरविन्द केजरीवाल जी की अति बौद्धिकता भी इस आन्दोलन की विफलता का बड़ा कारण है .आपने सार्थक आलेख प्रस्तुत किया है .आभार

Manoranjan Manu Shrivastav ने कहा…

main is lekh se purntah sahmat hu
aur kam jyada mera bhi is anshan ko vaicharik samartha isi karno se nahi jaata.

Barun Sakhajee Shrivastav ने कहा…

शिखा जी
अरविंद केजरीवाल तो इसे अपनी वैतरणी समझ बैठे। कोई बड़ी बात नहीं है कि 2014 में जब नॉन कांग्रेस गवर्नमेंट बने तो अरविंद बाबू किसी खास ओहदे को सुशोभित करें। यही समान रूप से प्रशांत पर भी लागू होता है। देखिए अब इन लोगों को मीडिया और लोगों का जमघट ही इनकी ताकत थी और आज वे इन्हीं दोनों के खिलाफ जी खोलकर बोल रहे हैं।

Barun Sakhajee Shrivastav ने कहा…

मनू जी
आप सही कह रहे हैं। इस आंदोलन से कई और लोग जुड़ सकते थे, किंतु इन नामक्कूलों की वजह से न जाने कितने लोग दूर हैं। दरअसल राजनीति आज भी किचन तक का विषय है, किंतु लोगों को शुचिता चाहिए। और अब वाकई ऐसा वक्त है कि जब लोग राजनीति में सत्य की बात करते हैं तो उन्हें सियासी अपेक्षाओं से भी ज्यादा अच्छा प्रतिफल मिलता है। यानी चेंज हो रहा है, किंतु अन्ना अन्नी के जरिए नहीं।

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