वह
रोज आती है मेरे यहाँ अपनी माँ के साथ ! छोटी सी बच्ची है पाँच छ: साल की ! नाम है
रानी ! माँ बर्तन माँज कर डलिया में रखती जाती है वह एक-एक दो-दो उठा कर शेल्फ में
सजाती जाती है ! छोटे-छोटे हाथों से बड़े-बड़े भारी बर्तन कुकर कढ़ाई उठाती है तो डर
लगता है कि कहीं गिरा न ले अपने पैरों पर ! कितनी चोट लग जायेगी !
मैं
उसे प्यार से अपने पास बिठा लेती हूँ अक्सर ! बिस्किट, रस्क या कुछ खाने को दे देती
हूँ कि उसकी माँ उसे काम ना बता पाये ! लेकिन ज़रा देर में ही उसकी पुकार लग जाती
है ! कभी पुचकार के साथ तो कभी खीझ भरी झिड़की के साथ !
“चल रानी ! जल्दी-जल्दी डला खाली कर दे बेटा ! फिर
झाडू भी तो लगानी है ! ज़रा जल्दी हाथ चला ले !“
मेरे
मन में मरोड़ सी उठती है ! मेरे परिवार में भी बच्चियाँ हैं ! अच्छे स्कूल में पढती
हैं ! क्या इस बच्ची को पढ़ने का हक नहीं है ! क्या उसका बचपन इसी तरह अपनी माँ के
साथ बर्तन माँजते और झाडू लगाते ही बीत जायेगा ! अगर यह नहीं पढ़ा पा रही है तो मैं
उसके स्कूल की फीस भर दूँगी ! कम से कम उसका भविष्य तो बन जायेगा ! मैं उसकी माँ मीरा
को बुलाती हूँ ! उसे अपने मन की बात बताती हूँ ! लेकिन मेरी बात सुन कर जब उसके
चहरे पर कोई अपेक्षित प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती है तो मुझे आश्चर्य के साथ कुछ
निराशा भी होती है !
“मैं तो उसका स्कूल में एडमीशन करवाना चाहती हूँ
और तुम कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखा रही हो ! इतनी ज़रा सी बच्ची से घर का काम करवा
रही हो पता है यह अपराध होता है ! बच्चों से काम नहीं कराते ! किसीने रिपोर्ट कर
दी तो हमें भी सज़ा हो जायेगी और तुम भी लपेटे में आ जाओगी ! इसे अपने साथ मत लाया
करो !”
“तो कहाँ छोड़ कर आऊँ इसे आप बताओ !” मीरा जैसे फट पड़ी ! “सारा दिन तो मेरा आप लोगन के घर के काम करने
में निकल जाता है ! इसे घर में किसके पास छोड़ूँ ! इसका बाप सुबह से ही कारखाने चला
जाता है काम पर ! लड़के भी दोनों अभी बच्चा ही हैं ! स्कूल से आकर बाहर दोस्तों में
डोलने चले जाते हैं ! उनके ऊपर इसकी जिम्मेदारी कैसे डाल सकू हूँ ! लड़की जात है इसीके
मारे साथ लेकर आती हूँ ! सबका काम निबटाते-निबटाते मुझे संजा के सात बज जाते हैं !
कैसा बुरा बखत चल रहा है आजकल ! अकेली छोरी चार पाँच बजे संजा को स्कूल से घर
लौटेगी तो कौन इसे देखेगा ! इसीलिये इसका नाम नहीं लिखवाया ! मेरी आँख के सामने
रहेगी तो बची तो रहेगी ! नहीं तो आजकल तो हर जगह बस एक ही बात सुनाई देत है ! कैसा
बुरा ज़माना आ गया है !”
मुझे
कोई जवाब नहीं सूझ रहा था ! वाकई मीरा जैसे लोगों की समस्या गंभीर है ! यह भी
कामकाजी महिला है ! लेकिन अपने बच्चों को क्रेच में नहीं डाल सकती ! लड़कों को पढ़ा
रही है लेकिन लड़की को स्कूल में सिर्फ इसलिए नहीं भर्ती कराया कि उसकी सुरक्षा की
जिम्मेदारी किस पर डाले ! कैसे विचित्र नियम और क़ानून हमने बनाये हैं ! श्रम दिवस
के गुणगान बहुत गाये जाते हैं लेकिन जो वास्तव में श्रमजीवी हैं उनके लिये ये
क़ानून कितने सुविधाजनक एवँ फलदायी हैं और कितने समस्याएँ बढ़ाने वाले और दिक्कतें
पैदा करने वाले हैं इसका आकलन करने की ज़हमत कौन उठाता है ! जबकि सबसे ज्यादह ज़रूरत
इसी बात की है !
स्वयंसेवी संस्थायें जो निर्धन बस्तियों में
इनकी सहायता के लिये काम कर रही हैं उन्हें इन बच्चों के लिये नि:शुल्क क्रेच
खोलने चाहिये जहाँ इन्हें प्रारम्भिक शिक्षा भी मिल सके, इनके खेलकूद, मनोरंजन एवँ
उम्र के अनुसार इनकी कलात्मकता को बढ़ावा देने वाली ट्रेनिंग की भी समुचित व्यवस्था
हो और ये एक सुरक्षित एवँ स्वस्थ माहौल में रह सकें ! मँहगाई इतनी बढ़ी हुई है कि
इस वर्ग के परिवार में एक व्यक्ति की कमाई से सबका पेट भर जाये यह कल्पना भी असंभव
है ! और माता पिता जब दोनों ही काम पर निकल जाते हैं तो नासमझ बच्चे गली मोहल्लों
में असुरक्षित यहाँ वहाँ घूमते रहते हैं जिन्हें समाज में व्याप्त नकारात्मक
प्रवृत्ति के लोग आसानी से मिठाई, चॉकलेट्स या खिलौने इत्यादि का लालच देकर आसानी
से फुसला लेते हैं और फिर हृदय विदारक पाशविक घटनाओं को अंजाम देने में सफल हो
जाते हैं !
बच्चों
के यौन शोषण की समस्या की जड़ें कहाँ पर हैं उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है यह तो
बहुत ही पेचीदा सवाल है ! सबकी मानसिकता में रातों रात सुधार आ जाये, फिल्मों,
टीवी, या सेंसर बोर्ड के सारे कायदे कानूनों में बदलाव कर दिया जाये, लोगों को
नैतिक शिक्षा और संस्कारों की घुट्टी पिलाना शुरू कर दी जाये ये सब बातें कहने सुनने
में भले ही अच्छी लगें पर व्यावहारिकता के स्तर पर अमल में लाना असंभव हैं ! लेकिन
अगर हम सचमुच गंभीरता से कोई निदान ढूँढना चाहते हैं तो इतना तो कर ही सकते हैं कि
नासमझ छोटे बच्चे सड़कों पर लावारिस घूमते ना दिखें इसके लिये कुछ ऐसी व्यवस्था की
जाये कि माता पिता पर बिना कोई अतिरिक्त भार डाले हुए बच्चों की बुनियादी शिक्षा
और सुरक्षा का दायित्व उठा लिया जाये ! और ज़रूरी नहीं है कि प्रोफेशनल एन जी ओज़ ही
इस तरह के काम को अंजाम दे सकते हैं ! शहरों में कुछ इस तरह की व्यवस्था होती है
कि जहाँ सम्भ्रांत लोगों की रिहाइशी कॉलोनीज़ होती हैं उन्हीं के आस पास उनके घरों
में तरह तरह से अपनी सेवाएं देने वाले वर्ग के लोगों की बस्तियाँ भी होती हैं ! सम्भ्रांत
लोग अपनी और अपने बच्चों की सुरक्षा तो चाक चौबंद रखते हैं लेकिन दरिंदों की लपेटे
में ये बच्चे आ जाते हैं जिनके पास उनके घर वालों की रहनुमाई उपलब्ध नहीं होती
क्योंकि वे उस समय आपको घरों में आपकी सेवा में उपस्थित होते हैं और जिनके बिना
आपका एक वक्त भी काम नहीं चल सकता ! तो क्या हम इनकी सेवाओं के बदले इतना भी नहीं
कर सकते कि इनके बच्चों को कुछ समय देकर उनकी सुरक्षा, शिक्षा और खुशी के लिये थोड़ा
सा वक्त दे दें ! इससे कितनी ही रानी, गुड़िया, मुनिया, बिटिया तो बच ही जायेंगी हमें
भी खुद पर नाज़ करने के लिये एक पुख्ता वजह मिल जायेगी !
साधना
वैद
लेबल: कुछ निदान, कुछ सुझाव, श्रम दिवस पर विशेष
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