भारतीय मीडिया इतना पथभ्रष्ट कभी नहीं था, जितना अभी पिछले कुछ सालों से हुआ है. पत्रकारिता और राजनीति एक दूसरे के बहुत महत्वपूर्ण पर्याय रहे हैं , पत्रकारिता ने हमेशा राजनीति की बखिया उधेड कर रख दी हैं, राजनीतिज्ञों की कोई भी योजना रही हो, किसी भी दल की, पत्रकारों की पारखी नजरों से कोई भी राजनीतिक चाल कभी छुपी नहीं रह सकी, यही नहीं भारतीय राजनीति में एक दबदबा कायम रहा है कैराना के राजनीतिज्ञों और पत्रकारों का जिसके कारण कैराना राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर चर्चाओं का मुद्दा रहा है किन्तु ये सब तथ्य अब पुराने पड़ चुके हैं, अब राजनीति का जो स्वरूप सामने है वह चापलूसी को ऊपर रखता है और कैराना वह राजनीति के हल्के में स्व बाबू हुकुम सिंह जी और मरहूम मुनव्वर हसन के बाद से अपनी पहचान खोता जा रहा है और पत्रकारिता भटक गई है केवल एक मसखरे अजीम मंसूरी की खबरों में, जो पहले अपने निकाह कराने की दरख्वास्त को लेकर प्रशासन को तंग करता है, फिर बरात ले जाने, निकाह स्थल पर गोदी में ले जाने, फिर दुल्हन बुशरा को घर लाने, उसकी मुँह दिखाई, बुशरा की डिमांड और अब खुशी में चुन्नी ओढ़कर नाचने की खबरों को लेकर चर्चाओं में है और कैराना का मीडिया पूरी कवरेज दे रहा है एक मसखरे की मसखरी चर्चाओं को, कैराना की पत्रकारिता का स्तर इतना नीचे कभी नहीं गिरा होगा कि मात्र चर्चाओं में बने रहने के लिए पत्रकार एक मसखरे का सहारा लें. क्या कैराना अपराधियों के जंजाल से मुक्त हो गया, क्या कैराना की सडकें गड्ढा मुक्त हो गई, क्या डी. के. कॉन्वेंट स्कूल में हादसे का शिकार हुई बेटी अनुष्का को न्याय मिल गया, क्या बन्दरों के हमले में मृत सुषमा चौहान की मृत्यु के कारण से अन्य कैराना वालों को बचाने में प्रशासन ने सफलता प्राप्त कर ली? क्यूँ नहीं ध्यान दे रहे हैं कैराना के पत्रकार अपने जरूरी कर्तव्य पर क्या वास्तव में बिक चुकी है पत्रकारिता और भटक चुके हैं आज के पत्रकार, क्या फिर से किसी जामवंत को आना होगा हनुमान रूपी पत्रकारों को उनकी शक्ति याद दिलाने के लिए.
शालिनी कौशिक
एडवोकेट
कैराना (शामली)
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