आदिवासियों का क्या यही इस्तेमाल है। मैंने उनके साथ फोटो खिंचवा ली। बस्तर के जिस रास्ते में ये लोग चमकदार पोशाक में मिले वहां ये किसी सवर्ण के भव्य विवाह समारोह में बैंड बजाने आए थे। फिर आप इनकी युवतियों के अर्धनग्न चित्र ड्राॅइंग रूम में सजा लीजिए। कुछ आर्ट दीवार पर टांग लीजिए। कुछ राॅट आयरन इत्यादि के बस्तर आर्ट शोभायमान कर लीजिए। लेकिन इनकी जिंदगी में कोई मुकम्मलियत मत दीजिए। सरकारों के हेल्पिंग हैंड भी भरोसे के साथ नहीं जाते। वे एक हाथ में दूध भात तो दूसरे हाथ में इनके जीवन का सहारा जंगल छीन लेना चाहते हैं। बैलाडीला खोखला हो रहा है। टाटा, एस्सार, एनएमडीसी आदि बस्तर की कोख से सब निकाल बेच देना चाहते हैं। प्रेस, गैर सरकारी संगठन, समाजसेवी अपने अलग ही मकसद से यहां दाखिल होते हैं। बड़ी भारी होटलों में सेफ घुसकर मीडिया बस्तर के बीहड़ का ग्राउंड जीरो दिखाता है। चंद गांवों में लकड़ियों की झौंपड़ियों में विपन्नता में दो पाव धान ले देकर गैर सरकारी संगठन चले जाते हैं और वस्त्र विहीन बुड्ढे आदिवासियों को सत्यनारायण की कथा वाली धोती देते हुए फोटो खिंचवाकर समाजसेवी चले जाते हैं।
ऐसे में इनके साथ तपती धरती, जलते सूरज और उफनते नालों व बीहड़ जंगल के खूंखार जानवरों के बीच माओवादी ही रहते हैं। हर कदम पर हमकदम। तब न तो आदिवासियों की किस्मत बदलनी है और न ही माओवाद खत्म होना है।
-सखाजी
(पहली बस्तर यात्रा के अनुभव)
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वाह बस्तर वाह
Written By Barun Sakhajee Shrivastav on रविवार, 31 मई 2015 | 1:15 am
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1 टिप्पणियाँ:
विधि की विडम्बना प्रशासन की नक्कारी व मक्कारी
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