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निशा

Written By pratibha on सोमवार, 30 मई 2011 | 1:18 pm


कभी आपको फैमिली कोर्ट जाने का अवसर मिला है। मुझे यह अवसर अनेकों बार मिला है। कई बार लिखने के सिलसिले में जाना पड़ा। कई बार अन्य कारणों से भी जाना पड़ा। पर फैमिली कोर्ट जाना वहां बात करना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। बस मज़बूरियों के तहत जाना पड़ता था। उसी परिसर में मेरी दुखों से जान-पहचान हुई। कई बार घर लौट कर ठीक से सो भी नहीं पाती थी क्योंकि उदास-परेशान, मानसिक रूप से टूटे हए चेहरे पीछा करते हुए घर तक आ जाते थे।

निशा से पहली मुलाकात फैमिली कोर्ट में ही हुई थी। मैं बहुत लोगों से मिलती हूं। लेकिन उस जैसी लड़की से दोबारा फिर कभी मुलाकात नहीं हुई। वह जीवन से लबालब भरी हुई थी। आँखों में अज़ीब सी मासूमियत थी। वह एक बहाव में बह रही थी, बिना इस बात को महसूस किए की उसके साथ क्या हो रहा है। उसके परिणाम क्या होंगे। हर चीज़ से बेखबर थी। ऐसा मुझे लगता था। पहली बार फैमिली कोर्ट में जस्टिस कपूर ने अपने चेम्बर में मेरा उससे मेरा परिचय कराते हुए कहा था-श्रुति, यह निशा है। एकदम पागल है। मैं इसे तुम्हारे सुपुर्द करता हूं। इसे समझाओं और इसकी मदद करो। और निशा तुम इससे मिलती रहा करो। पत्रकार है। तुम्हारी सहायता करेगी। निशा के चेहरे में एक बड़ी सी मुस्कान फैल गई थी। उसकी मुस्कान देखकर ऐसा लगा, गोया मैं पत्रकार न होकर मानों कोई जिन्न हूं, जो पलक झपकते ही उसकी समस्याओं का समाधान कर देगा।

निशा एक वेगवान जल-प्रपात सी थी। जो अपने बहाव में सबको बहा ले जाती थी। कमरे से बाहर निकलकर उसने मुझसे से कहा-दीदी, आइए, उधर बैठते हैं। उधर लोग भी नहीं हैं और धूप भी अच्छी आ रही है। आज सर्दी कुछ ज्यादा है न। वह लगातार बोल रही थी और मैं सोच रही थी कि यह लड़की यहां कर क्या रही है? हम एक पेड़ के नीचे बैठ गए।

तुम अकेल आई हो .....

हां, क्योंकि घर में मम्मी के अलावा कोई नही है।

पापा.....

उनका जॉब दूसरे शहर में हैं। दो –तीन महीने में छुट्टी लेकर आते हैं, लेकिन हरदम तो यहां रह नहीं सकते! आखिर नौकरी भी तो करनी है।

हां वो तो है।

तो तुम अकेले आती हो?

हां, यहां सब मुझे जानते हैं। कोई परेशानी नहीं होती।

मैं पूछना चाहती कि निशा तुम्हारे हुआ साथ हुआ क्या है?

लेकिन वह अपनी ही धुन में मस्त बातें कर रही थी। कोई सूत्र मुझे थमा ही नहीं रही थी जिसे लेकर मैं आगे बढ़ती।

अचानक उसने कहा-दीदी मुझे बचपन से ही शादी का बहुत शौक था। जब छोटी थी, तो गुड्डे-गुड़ियों की शादी रचाती। पूरे धूमधाम से। एक बार तो मैं ज़िद पकड़कर बैठ गई कि मेरी गुड़िया को भी हनीमून के लिए भेजो।

तुम जानती थी हनीमून क्या होता है?-मैंने पूछा।

वो हँस पड़ी। अरे कहां। मुझे कहां मालूम था कि हनीमून क्या होता है? मामा की शादी हुई थी, वहीं मैंने सुना था। वहां से लौटकर जब मैंने अपनी गुड़िया की शादी रचाई तो मैं भी जिद पकड़कर बैठ गई।

फिर......

फिर क्या, पहले मम्मी ने समझाया फिर गुस्सा होने लगी। तो मैंने उनसे कहा-देखिए गुस्सा मत होइए. अगर आप कहीं नहीं जाना चाहती तो मत जाइए। हम लोग पापा के पास चलते हैं। गुड़िया का हनीमून हो जाएगा और हम पापा से मिल लेंगे। मेरी बात सुनकर मम्मी हंसने लगी। वह बोलती जा रही थी। दीदी शुरू से ही न मैं बहुत चालाक थी। लोगों को बातों में फंसाकर अपना काम निकालना मुझे खूब अच्छी तरह आता था।

उसकी बात सुनकर मैं हंस पड़ी। वो इतनी मासूमियत से बात कर रही थी कि मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। हर बार शब्द जुबां तक आते-आते रुक जाते। मैंने कहा-आज तो काफी देर हो गई है। ऐसा करते हैं कि फिर मिलते हैं तभी बात करेंगे। उसने चट से अपने बैग से कागज और कलम निकाल लिया। आप मुझे अपना नम्बर दे दीजिए। हम फोन पर बात करेंगे।

मैंने कहा- ऐसी बाते फोन पर नहीं होती। हम आमने-सामने बैठ तक बात करेंगे, तभी तो मैं समझ पाऊंगी कि तुम्हारी समस्या क्या है?

तो मैं चंदन को भी फोन करके यहां आने को कहूं। हम तीनों लोग बैठ कर बात करेंगे।

ये चंदन कौन है?

मेरा पति!

नहीं निशा, पहले हम लोग बैठकर आपस में तय करेंगे कि हमें चंदन से क्या बात करनी है। फिर उससे मिलेंगे। चंदन कहते समय उसके चेहरे पर जो चमक आई थी, वह बिना कहे ही बता गई गई थी कि चंदन कौन है?
सर्दियों में शाम जल्दी हो जाती है। लम्बे होते सायों को देखकर मैं उठ खड़ी हुई। अब चलना चाहिए, मैंने कहा।

ठीक है, मैं आपको फोन करूंगी। वह मेरे साथ-साथ गेट तक आई। मैंने बाहर निकल कर स्टेशन जाने के लिए आटो ले लिया और वह भी अपने घर की तरफ मुढ़ गई।

दूसरी मुलाकात और भी अज़ीब परिस्थितियों मं हुई। सुबह के छह-साढ़े छह बजे होंगे। मैंने अभी तक अपनी रजाई तक नहीं छोड़ी थी कि फोन कि पापा ने जगाते हुए कहा-किसी निशा का फोन है। तुमसे बात करना चाहती है।

निशा! इतनी सुबह! हां यही नाम बता रही हो। उठो उससे बात कर लो। रजाई से एक हाथ बाहर निकल कर मैंने फोन का रिसीवर उठा लिया-

दीदी मैं निशा बोल रही हूं।

कहां से बोल रही हो

स्टेशन से

पर इतनी सुबह तुम स्टेशन में क्या कर रही हूं।

मैं तो कल रात में ही यहां आ गई थी

मां को बता कर आई हो

नहीं

क्यों

वो मुझे आने नहीं देती

तो मुझे फोन क्यों नहीं किया। रात भर एक अंजान स्टेशन में भटकती रही। अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो?

नहीं मुझे कुछ नहीं होगा। दीदी, आज वो आज चंदन का जन्मदिन है। तो मैंने सोचा सबसे पहले मैं ही उसे विश करूं। वो खुश हो जाएगा।

तुम पागल हो....ऐसा भी कहीं किया जाता है....खैर छोड़ों आटो पकड़ सीधा घर आ जाओं। मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। मैं उसे घर का पता नोट करवाने लगी। अब रजाई से निकलना जरूरी हो गया था। सबसे पहले मैंने निशा की मां को फोन किया। बेहद घबड़ाई हुई सी लग रही थी। मैंने कहा-चिंता मत करिए, निशा सुरक्षित है। ये लड़की न एक दिन मेरी जान लेकर छोड़ेगी। न कुछ कहना न सुनना बस बैग उठाया और निकल गई। जानती है कि बुरी तरह जर्जर हो चुका है यह रिश्ता। फिर भी जोड़ने की जिद पकड़ कर बैठी है। प्लीज़ उसे समझाइए। मेरी तो सुनती ही नहीं है। आप परेशान मत होइए। मैं बात करती हूं-मैंने उन्हें सान्त्वना दी। उन्होंने बेहद आहिस्ता से कहा ठीक है. और फोन कट कर दिया।

ये तो पागलपन है-मैं सोच रही थी। एक घंटे से ऊपर हो गया था अभी तक वह नहीं आई थी। अब मुझे चिंता होने लगी थी। कहीं ऐसा तो नहीं यहां की तरफ रुख करते करते वह चंदन को विश करने चली गई हो और किसी मुसीबत में फंस गई हो। थोड़ी देर बाद घर के बाहर आटो रुकने की आवाज सुनाई दी। मेंने राहत की सांस ली
चलो मैडम आईं तो.....

मैं गेट खोलकर बाहर निकल आई। वह आटो वाले को पैसे दे रही थी, मुझे देखकर मुस्करा दी। मैंने कोई जवाब नहीं दिया, मैं उसकी इस हरकत से नाराज थी। वह बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ गई।

आप नाराज है मुझसे?

कोई खुश करने जैसा भी तो कोई काम नहीं किया।

आप लोग समझते क्यों नहीं वो मेरा पति है।

और तुम उसको विश करके आ रही हो।

आपको कैसे पता चला।

स्टेशन से यहां तक आने में इतना समय नहीं लगता जितना तुमने लगाया।

वह चुप हो गई।

निशा मुझे समझाओं तुम ऐसी हरकतें क्यों करती हो कि सब लोग परेशान हो जाए।

मैं उसे बहुत प्यार करती हूं। उसके बिना नहीं रह सकती।

तो तलाक क्यों दे रही है

उसने नज़रे झुका ली। मुझे भी लगा कि मैं कुछ ज्यादा ही कठोर हो गई हूं, इसलिए बात को पलटते हुए कहा-थक गई होगी चाय पी लो।

नहीं, अभी-अभी पी है

कहां, स्टेशन में ......

नहीं, चंदन के लैटर बॉक्स में बर्थ डे कार्ड डालने गई थी, पर मौका नहीं मिल रहा था। नुक्कड़ की चाय की दुकान वाले ने कहा-बहू जी तब तक आप चाय पी लो। तबतक साहब आ ही जाएंगे।

मतलब वो नुक्कड़ वाला भी तुम्हें जानता है।

हां, वहां आस-पास के सभी लोग मुझे जानते है कि मैं चंदन की बीवी हूं।

तो यह भी जानते होंगे कि अब तुम उसके साथ नहीं रहती।

हां।

और तुम वहां खड़ी होकर चाय पी रही थी।

हां....

अगर उसके घर वाले तुम्हें देख लेते तो.....

जान से मार डालते, निशा ने जवाब दिया।

माफ करना, पर मैं तुम्हें समझ नहीं पा रही हूं.......तुम उसे प्यार करती हो....तुम उसके साथ रहना चाहती हो....इतनी सर्द रात में इस तरह विश करने उसके घर तक जाती हो। फिर तलाक क्यों देना चाहती हो।

मैं नहीं वो मुझे तलाक देना चाहता है.....

लेकिन अर्जी तो तुमने लगाई है....

नहीं लगाती तो क्या करती मज़बूरी थी

कैसी मज़बूरी.....वो खामोश हो गई। मैं भी चुप हो गई। मैं भी चाहती थी कि वह अपना समय ले पर बातें स्पष्ट करे। जब से मिली है मुझे घुमा रही है कभी कुछ साफ-साफ कहती ही नहीं नही कि आखिर समस्या क्या है। ससुराल वाले मारते थे, सताते थे, आखिर उनका कौन सा व्यवहार इसे इतना नगवार गुजरा कि इस लड़की को बात कोर्ट तक घसीटनी पड़ी और उस दिन जज साहब भी कह रहे थे। देख लो, बात कर लो। लेकन इसके केस में दम नहीं है। तलाक तो इसे मिल ही जाएगा। बात बस पैसे पर अटकी हुई है। मैं चाहता हूं कि इसे इतना पैसा तो मिल ही जाए कि यह बाकी ज़िदगी आराम से काट सके।

चलिए अंदर चले-निशा ने कहा।

हां चलो, अंदर चलते हैं। खा-पीकर थोड़ा आराम कर लो। बाद में बात करेंगे।

नहीं दीदी, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। बात तो हम अभी ही करेंगे। अभी नहीं कर पाए, तो कभी नहीं कर पाएंगे। यूं ही घुटते रहेंगे अंदर ही अंदर। और एक दिन मर जाएंगे। वह सहसा गंभीर हो गई थी। हम कमरे में आ गए। निशा मेरे सामने चेअर पर बैठ गई। उसने कहना शुरू किया। चंदन के घर वाले बहुत पैसे वाले है और चंदन उनकी अकेली औलाद। घर में पापा की नहीं चलती। सभी निर्णय मम्मी और नानी मिल कर लेते है। सुना है पापा ने मना भी किया था पर मम्मी ने कहा- ये सब फालतू की बातें हैं। घर में बीवी आ जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा।

हमारे पापा ने घर देखा। देखा लड़का अकेला है। पैसे की भी कोई कमी नहीं। उन्होंने पूछताछ भी की, पर ऐसी बातें बताता कौन है। शुभ घड़ी देखकर मेरा विवाह चंदन से हो गया। वो पंड़ित कैसा था जिसने हमारी कुंडली विचार कर कहा था-लड़की की कुंडली में तो राजयोग है। अगर इसी को राज योग कहते हैं तो भगवान किसी भी लड़की की कुंडली में राजयोग मत बनाना। वह अपनी ही रौ में बही जा रही थी। मेरी उपस्थिति भी उसके लिए नगण्य थी।

शादी के बाद कमरा तो एक मिला, पर सोने की व्यवस्थाएं अलग-अलग थी। मैं चंदन का इंतजार ही करती रही और वे देर रात आए और अपने बिस्तर पर सो गए। एक बार भी पलट कर नहीं देखा कि वहां कोई और मौज़ूद भी है की नहीं। पूरी रात बैठ कर इंतजार करती रही शायद पलट कर एक बार देख लें, पर ऐसा नहीं हुआ। ये व्यवस्था मम्मी की थी। कई दिन गुज़र गए। नानी को जब इसका पता चला तो वो मम्मी पर बहुत नाराज हुई। कमरे को एक बार फिर नई रंगत दी गई। उस घर में मां और नानी के अलावा किसी और को घर के मामलों में दखंलदाज़ी का अधिकार नहीं था। मैं भी दर्शक की तरह चीज़ों का होना देखती रहती थी।

उस रात पहली बार चंदन मेरे साथ मेरी बगल में लेटे हुए थे। उनका पास होना ही मेरे हजारों सपनों को जन्म दे रहा था। मैं मन ही मन चंदन को उकसा रही थी कि कुछ तो बोलो अच्छा, भला-बुरा। ये मैं भी जानती थी कि वह जाग रहा था और ये वह भी जानता था कि मैं जाग रही हूं, लेकिन खामोशी की चादर हमारे बीच पसरी पड़ी थी। आखिरकार मैंने ही चुप्पी तोड़ी।

क्या आप इस शादी से खुश नहीं है?

नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है।

फिर आप मुझसे बात क्यों नहीं करते?

बात .......नहीं बस बात करने की आदत नहीं है.....वक्त लगेगा। हम फिर चुप हो गए। आप मुझे प्यार क्यों नहीं करते....

प्यार! वो ऐसा चिहुंका जैसे किसी ने सुई चुभो दी हो। तुमको प्यार चाहिए। मैंने मन ही मन कहा, ये भी कोई पूछने की बात है। दुनिया में भला ऐसी कौन सी बीवी होगी जो नहीं चाहती होगी कि उसका पति उसे प्यार करे। अचानक वह रज़ाई हटाकर उठ बैठा। मैं जबतक कुछ समझूं-समझूं एक भूखे भेड़िए की तरह उसने मेरे शरीर को झिझोड़ कर रख दिया।

खुश! यही चाहिए था न तुम्हें? वह अभी तक हाँफ रहा था। सपने टूटना किसे कहते हैं उस रात पहली बार जाना। जाड़ों की राते तो वैसे भी लंबी होती है, पर दीदी वो रात बहुत लंबी थी ।

दूसरे दिन जब मैं नानी के पैर छूने गई, उन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा- डरना नहीं। वो ऐसा ही है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यह दूसरा झटका था कि इन्हें कैसे पता कि मेरे साथ कल रात क्या हुआ? क्या ये लोग रात भर मेरे कमरे में कान लगाए बैठे रहते हैं।

धीरे-धीरे मैंने खुद को उस परिवेश में ढालना शुरू कर दिया था। चंदन के काम ही कितने होते थे ज्यादा से ज्यादा कपड़े निकालकर दे देना। बाकी कामों के लिए तो नौकर-चाकर मौज़ूद थे। इतने कायजे-कानूनों में बंधा घर मैंने पहले कभी नहीं देखा था। हमारे यहां तो हम बिस्तर पर बैठ कर चाय क्या खाना तक खा लेते थे। कभी किसी ने नहीं टोका। पर यहां ऐसा नहीं था। घर के नियम कायदे बड़ी कठोरता से लागू होते थे। यहां तक कि घर के कुत्ते को भी मालूम था कि कितनी बार भौंकना है और कब चुप हो जाना है।

हमारा बेडरूम घर के पिछले हिस्से में था। खिड़की पर खड़े होकर गर्दन थोड़ी सी टेढ़ी करने पर सर्वेंट क्वाटर नज़र आने लगते थे। एक दिन मैं खिड़की पर खड़ी यूं ही इधर-उधर देख रही थी कि अचानक मेरी नज़र चंदन पर पड़ी जो आधा घंटे पहले घर से ऑफिस के लिए निकल चुका था। वह इस वक्त यहां क्या कर रहा है? थोड़ी और गरदन टेढ़ी की तो देखा- वह घर के उस सुनसान कोने में अपने माली के साथ................ उस रात टूटे सपनों की किरचों से आज पूरा शरीर लहूलुहान हो गया।

तो ये है चंदन का सच। जिसे मुझसे छुपाने के लिए की गई है इतनी किलेबंदी। चंदन का मेरे साथ हर व्यवहार फिल्म की तरह मेरी आँखों के सामने घूम गया। उस दिन वो मुझे बहुत निरीह प्राणी लगा जो अपनी मर्जी से अपनी ज़िदगी तक नहीं जी सकता। उसके लिए मेरे मन में जितना आक्रोश था धीरे-धीरे पिघलने लगा। वो खूंखार भेड़िया जो अपनी मां के आदेश पर हफ्ते-पंद्रह दिन में एक-दो बार मेरा शिकार किया करता था, निरीह कुत्ते जैसा लग रहा था जो हड्डी के लालच में अपने मालिक के पीछे दुम हिलाता घूमता है।

जब मां को पता चला कि मुझे चंदन के बारे में सबकुछ पता चल गया है। तो उनका व्यवहार मेरे प्रति बहुत कठोर हो गया। वो तो नानी थी जिनके कारण मैं इतने दिन वहां रह सकी। जबतक मैंने तलाक के पेपर दाखिल नहीं किए। मम्मी ने मुझे चैन से नहीं बैठने दिया। उन्हें लगता था कि अगर मैं वहां रही तो चंदन की सच्चाई सबको बता दूंगी। और यह उन्हें मंज़ूर नहीं था। साथ ही वे अपना दामन भी पाक रखना चाहती थी इसलिए उन्होंने मुझे तलाक की अर्जी देने को मज़बूर किया

इतना कहने के बाद निशा का शरीर बेजान सा कुर्सी पर पड़ा था। निशा के इतना सब कहने के बाद भी एक प्रश्न मेरे दिमाग को कुरेद रहा था कि इतना सब होने के बावजूद वह चंदन को अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ विश करने क्यों आई है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा मुझे पता है आप क्या सोच रही हैं। यही न कि इतना सब होने जानने के बावजूद मैं यहां क्यों आई हूं। जिस हालत में मैंने चंदन को उसके माली के साथ देखा था, मुझे तो उससे घृणा करनी चाहिए थी , पर कर नहीं सकी क्योंकि वो तो खुद ही अपनी परिस्थितियों का दास था। उसको वह रिश्ता जीने को कहा जा रहा था जिसके लिए बना ही नहीं था। जब मेरे पास एक रिश्ता निभाने के लिए उसे भेजा जाता होगा तो कितना गिल्ट फील करता होगा। हमने कभी उसके एंगल से सोचा नहीं है। इसीलिए मैं उसे बहुत प्यार करती हूं। समाज मेरी बात कभी नहीं समझेगा। उसको तो लगता है पैसे से दुनिया की हर चीज़ खरीदी जा सकती है। लेकिन कोई मुझे बताए कि क्या चंदन का परिवार अपने इकलौते बेटे की खुशिया खरीद सकता है। क्या मेरे माथे पर लगने वाले तलाकशुदा के दाग को मिटा सकता है।

इसीलिए जस्टिस कपूर के कमरे में मेरी बाकी की ज़िदगी को सुखद बनाने को लेकर पैसे की बारगेनिंग होती है तो मुझे अच्छा नहीं लगता। आप लोग कहते हैं कि मैं व्यवहारिक नहीं हूं। ठीक है, अगर मैं व्यवहारिक बन भी जाऊं, तो बताइए आप मेरी किस भवना की कितनी बड़ी बोली लगाएगी। दीदी वो लोग उतना ही देंगे, जितना उन्होंने पहले से तय करके रखा होगा। जस्टिस कपूर चाहे जितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन उन्होंने जो पहले निर्धारित किया होगा उससे ज्यादा वो कुछ और नहीं देंगे। आप जज साहब से बात क्यों नहीं करती। उनसे कहिए कि भावनाएं, संवेदनाए महसूस करने की चीज़े हैं। ये बनिया की दुकान में खरीदी और बेंची नहीं जातीं। नहीं दीदी, मैं अपनी भावनाओं की बोली किसी को भी नहीं लगाने दूंगी। अगर एक बार मैंने ऐसा कर दिया। तो मैं कंगाल हो जाउंगी। मन से, आत्मा से, भावनाओं से, संवेदनाओं से और रिश्तों से भी। इसी लिए मैं उसे तलाक नहीं देना चाहती। वो जैसी ज़िदगी जीना चाहता है जिए। मैं कभी बाधक नहीं बनूंगी उसके जीवन में। मुझे विश्वास है कि एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा।

निशा की बात ने मुझे भी सोच में डाल दिया। इस एंगल से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था। आज पहली बार महसूस हुआ कि निशा मानसिक रूप से कितनी परिपक्व है। उसका जीवन को देखने अपना अलग नजरिया हैं जो शायद हमारी कारोबारी भावनाओं से मेल नहीं खाता। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि वह गलत है। मैं सोफे से उटकर उसके पैरों के नज़दीक बैठ गई। निशा तुम जो कुछ कह रही हो वह सब सही है पर ज़िदगी सिर्फ भावनाओं से नहीं चलती। इसे चलाने के लिए और भी बहुत कुछ करना पड़ता है। कई बार जानबूझ कर कम्प्रोमाइज़ करने पड़ते है। जो यह कर लेते है। समाज उन्हें सफल इंसान मानता है और जो नहीं कर पाते, वो हरदम अपने में ही उलझे रहते हैं और कभी-कभी जिसके लिए उलझते उन्हें भी कभी इस बात का अहसास नहीं होता किसी ने उनके लिए अपनी ज़िदगी तबाह कर दी। तो बताओ ऐसे समाज में तुम कैसे सर्वाइव करोगी। इसी समाज में इन्हीं लोगों के बीच तुम्हें रहना है तो इनकी बात भी सुननी ही पड़ेगी। इनसे छिटककर हम दूर नहीं जा सकते। इसलिए उलझों मत। जो चीज़ें जैसी हो रही है उन्हें वैसा ही होने दो। और याद रखो, ये जीवन का अंत नहीं है। मात्र एक पड़ाव है। संभव है भगवान ने तुम्हारे लिए कोई और काम सोच रखा हो। वो तुम्हारे हाथों कोई बहुत श्रेष्ठ काम करवाना चाहते हों। इसलिए रुको मत। आगे बढ़ो। और उसके काम में बाधक मत बनो। यहां सब तुम्हारे बारे में अच्छा सोचते हैं। हिमशिला की भांति ठण्डे निशा के दोनों हाथ मेरे हाथों में थे। और आँखो से आँसू टपक रहे थे। मैंने उसे गले लगा लिया। ये निशा की कहानी का अंत नहीं बल्कि नई शुरुआत थी।

आज निशा ने मुझे प्यार की नई परिभाषा से परिचित करवाया था।

-प्रतिभा वाजपेयी.
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1 टिप्पणियाँ:

prerna argal ने कहा…

bahut hi sambedansheel rachanaa.jeevan ke itane bade kadawe sach jaanane ke baad bhi sochane ka nayaa najariyaa.anoothi soch,badhaai aapko.



please visit my blog and feel free to comment,thanks

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