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हिंदी की चूहों से तुलना
दक्षिणी नेताओं ने हिंदी की मुखालफत में एक अजीबो गरीब तर्क दिया, उन्होंने कहा कि हिंदी को राज्यभाषा बनाने के पीछे क्या कारण हैं। तो नेहरू ने जवाब दिया, यह देश की भाषा है, ज्यादा से ज्यादा लोग इसे बोलते हैं। इस जवाब के बाद दक्षिण के नेताओं ने कहा यूं तो देश में चूहे सर्वाधिक पाए जाते हैं, तो फिर क्यों ने उसे राजकीय जीव घोषित कर दिया जाए। इस तर्क के बाद मुंह फाडक़र सारे के सारे दक्षिणी नेता, खासकर तमिल के नेताओं ने संसद में ठहाका लगाया था। इस घटना के बाद हिंदी पर कभी कोई बहस सीधी-सीधी नहीं की गई।हिंदी क्यों जरूरी है, जरा समझिए
गूगल के सौजन्य से. |
अमेरिक मूल की एक एमएनसी जब गुडग़ांव में अपना मुख्यालय खोलने पहुंची, तो उसके सामने भाषा की बड़ा संकट पैदा हुआ। तब इसके लिए कंपनी ने एक व्यापक सर्वे करवाया। इसमें पाया गया कि देश के करीब 72 फीसदी लोग हिंदी में जीते हैं। जबकि इसमें 80 फीसदी लोग ऐसे हैं, जो हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओं में असहज हैं। कंपनी ने इस सर्वे में बोलियों तक को हिंदी की निकटस्थ पाया था। इसमें 14वें नंबर पर हिंदी की छत्तीसगढ़ी बोली शामिल थी, जबकि पहले नंबर पर मजबूत, अल्हड़ता और सहजता के साथ बोली जाने वाली हिंदी की हरियाणवी बोली थी। ऐसे में हम यह कैसे कह दें कि हिंदी राज्य भाषा नहीं बन सकती।
90 करोड़ हिंदी वालों की कोई भावनाएं नहीं
तमिल के महज 7 करोड़ लोगों की भावनाएं इतनी मजबूत हैं, कि 90 करोड़ हिंदी बोलने वालों की कोई औकात नहीं। नेहरू ने इस हिंदी के सांप को पिटारे में बंद करके रखा तो, फिर किसी शीर्ष नेता ने दोबारा छुआ नहीं। चूंकि यह उन्हें ही डसने लगा था। अब कहीं जाकर एक वास्तविक मुद्दे के साथ हिंदी को उठाया गया है। जबकि तथ्य कहते हैं, आजादी के समय भारत की आबादी 40 करोड़ थी। अब यह 125 करोड़ है, जिसमें से संवाद, संचार और हिंदी फिल्मों ने हिंदी को और व्यापक बनाया है। 1950 के संदर्भ में हिंदी बोलने वाले और अन्य भाषियों के बीच 60 और 40 का अनुपात था। जबकि अब यह अनुपात घटकर 72 और 28 तक आ गया है। यानी हिंदी बोलने वाले देश में 72 हंैं, तो अन्य भाषी महज 28। इन 28 में भी करीब 12 लोग ऐसे हैं, जो हिंदी को आंशिक रूप से समझते हैं। ऐसे में हिंदी इतने विरोध के बाद देश में बढ़ी है, तो आने वाले वक्त में तो यह दुनिया की भाषा बन सकती है। इसमें किसी को ऐतराज क्यों होना चाहिए। मान लिया जाए कि तमिल को दुनिया की भाषा बनाया जा रहा है, तो क्या हिंदी भाषी इसका विरोध करेंगे। अगर तमिल की स्वीकार्यता है और दुनिया उसे इंज्लिश के स्थान पर स्थापित करना चाहती है, तो इसमें क्या बुरा है। ये सियासत नहीं तो क्या है, जहां 90 करोड़ लोगों की भावनाएं कुचलकर महज 7 करोड़ लोग उनमें भी आधों को तो पता ही नहीं होगा, कि हिंदी और तमिल में कोई लड़ाई है, को खुश किया जाता है।अब वक्त है जरा नेशनलिज्म का
यह कोई मोदी का करिश्मा नहीं है और न ही भाजपा की भारी चुनावी जीत। एक जन मानस है, जहां हिंदी को व्यापक स्तर पर स्वीकारा जा रहा है। भारतीयता को अपनाया जा रहा है। 80 का दशक पीछे छूट गया है, जब इंज्लिश का आना और हिंदी का न आना उच्च मध्यमवर्गीय होने की निशानी थी। हिंदी का टूटा फूटा बोलना और मजदूरों से हिंदी में बात करने की कोशिश करना व्यावसायिक घराने से ताल्लुक को दर्शाती थी। अब वक्त उल्टा है, जहां संसद में ठेठ कन्नड़ भाषी मल्लिकार्जुन खडग़े बड़ी नफासत के साथ शुद्ध उच्चारण और सही मुहावरों के साथ हिंदी बोलते हैं। अरुणांचल के किरण रिजिजू ऐसी फर्राटेदार हिंदी बोलते हैं, कि लगता ही नहीं कि यह आदमी अहिंदी राज्य का है। हिंदी फिल्मों में संवाद अदायगी में हिंदी के अच्छे शब्दों को आधुनिक शब्दों के साथ घोल कर एक नई शब्द रेसिपी बनाई जा रही है। उर्दू को हिंदी में ऐसे घोल दिया गया जैसे उर्दू कोई हिंदी की ही एक बहन है। इतने खूबसूरत वक्त में जहां तकनीकी में हिंदी के कई सॉफ्टवेयर आ रहे हैं, वहां हिंदी का विरोध बिल्कुल बेवजह है। लोगों को हिंदी के नाम पर भडक़ाना बंद करें, अन्य हिंदी भाषी नेतागण। अब वक्त नेशनलिज्म का है।- सखाजी