एक संस्कृत उक्ति है -
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता."
किन्तु केवल पुस्तकों और धर्म शास्त्रों तक ही सिमट कर रह गई है यह उक्ति. सदैव से स्त्री को पुरुष सत्ता के द्वारा दोयम दर्जा ही प्रदान किया जाता रहा है. धर्म शास्त्रों ने पुरुष के द्वारा किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को उसकी धर्मपत्नी के अभाव में किए जाने की स्वीकृति नहीं दी और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने श्री राम द्वारा अश्वमेघ यज्ञ के समय उनके वामांग देवी सीता की विराजमान मूर्ति के रूप में देखा है. हमने अपने बाल्यकाल में गार्गी, अपाला जैसी विदुषियों का मुनि याज्ञवल्क्य जैसे महर्षि से शास्त्रार्थ के विषय में भी पढ़ा है किन्तु धीरे धीरे नारी को दबाने का चलन बढ़ा और इसके लिए ढाल बने महाकवि तुलसीदास, जिन्होंने श्री रामचरितमानस में लिख दिया
"ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी -
ये सब ताड़न के अधिकारी"
अब तुलसीदास जी के इस लिखे को पढ़े लिखों ने अपने हिसाब से, अनपढ़ों ने अपने हिसाब से, पुरूष समुदाय ने अपने दिमाग से, नारी वर्ग ने अपने दिल से, सभ्य समाज ने सभ्यता की सीमाओं में, असभ्य - अभद्र लोगों ने मर्यादा की सीमाएं लाँघकर वर्णित किया, किंतु सबसे ज्यादा मार पड़ी नारी जाति पर, जिसका योगदान महाकवि के द्वारा रचित पवित्र पुण्य महाकाव्य श्री रामचरित मानस में सर्वाधिक था और उसी नारी जाति के लिए महाकवि दो शब्द धन्यवाद के लिखने के स्थान पर यह कई अर्थ भरी उक्ति लिख गए. अब नारी जाति का श्री रामचरित मानस लिखने मे क्या योगदान है, यह भी समझ लिया जाना चाहिए -
बाल्यकाल से ही तुलसी के जीवन में संघर्ष रहा, माता पिता का सुख तो कभी नहीं मिला क्योंकि वे मूल् नक्षत्र में पैदा हुए थे और पैदा होते ही उनकी माता जी के स्वर्गवास होने पर पिता ने उन्हें त्याग दिया था. मामा के घर रहे वहां शिक्षा का समय आ गया, वह भी पूरी कर ली। लेकिन जब इनका विवाह बनारस की एक बड़ी सुंदर स्त्री, रत्नावली से हुआ, पहली बार अपना परिवार पाया, तो पत्नी के प्रति आसक्ति कुछ अधिक ही हो गई। एक बार पत्नी मायके गई, अब पत्नी से मिलने की इच्छा में रात में ही पत्नी से मिलने पहुँच गए, द्वार बंद पाया तो पत्नी तक पहुंचने के लिए तेज बारिश में साँप को रस्सी समझकर उसे ही पकड़कर ऊपर चढ़ गए. पत्नी रत्नावली ने पति को ऐसे आया देखा तो उसे पति तुलसीदास पर बहुत क्रोध आया और उसने जो कहा वह पति तुलसीदास के लिए प्रभु का संदेश बन गया
"लाज न आवत आपको,
दौरे आयहू साथ,
धिक-धिक ऐसे प्रेम को
कहा कहहुं मैं नाथ.
अस्थि चर्ममय देह मम
ता में ऐसी प्रीती
तैसी जो श्रीराम में
कबहु न हो भव भीती."
अर्थात तुलसीदास जी से उनकी पत्नी कहती हैं, कि आपको लाज नहीं आई जो दौड़ते हुए मेरे पास आ गए।
हे नाथ! अब मैं आपसे क्या कहूँ। आपके ऐसे प्रेम पर धिक्कार है। मेरे प्रति जितना प्रेम आप दिखा रहे हैं उसका आधा प्रेम भी अगर आप प्रभु श्री राम के प्रति दिखा देते, तो आप इस संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति पा जाते.
इस हाड़-माँस की देह के प्रति प्रेम और अनुराग करने से कोई लाभ नहीं। यदि आपको प्रेम करना है, तो प्रभु श्री राम से कीजिए, जिनकी भक्ति से आप संसार के भय से मुक्त हो जाएंगे और आपको मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी।"
और पत्नी रत्नावली का यह कहना मात्र ही तुलसीदास जी के जीवन का ध्येय बन गया और उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित पर आधारित युगान्तरकारी कालजयी ग्रंथ श्री रामचरित मानस की रचना की किन्तु अपने पुरुष अहं को ऊपर रखते हुए पत्नी - नारी रत्नावली का धन्यवाद अर्पित नहीं किया और लिख गए नारी को ताड़न की अधिकारी - जिसे भले ही सभ्य समाज कितना सही रूप में परिभाषित कर नारी के पक्ष में प्रचारित कर ले, असभ्य-अभद्र समाज नारी की ताड़ना करता ही रहेगा नारी को अपमानित करता ही रहेगा क्योंकि भले ही लव कुश ने अपनी माता सीता का सच्चरित्र अयोध्या वासियों के सामने रख दिया हो, भले ही महर्षि वाल्मीकि ने रामायण का सुखद अंत किए जाने की चेष्टा में अपना सारा पुण्य ज्ञान लगा दिया हो किन्तु माता सीता को तो धरती माँ की गोद में हो समाना पड़ा था. इसलिए महाकवि तुलसीदास जी का पुरुष अहं नारी समुदाय पर सदैव भारी हो पड़ेगा.
शालिनी कौशिक
एडवोकेट
कैराना (शामली)