रास्ते में कहीं उतर जाऊं?
घर से निकला तो हूं, किधर जाऊं?
पेड़ की छांव में ठहर जाऊं?
धूप ढल जाये तो मैं घर जाऊं?
हर हकीकत बयान कर जाऊं?
सबकी नज़रों से मैं उतर जाऊं?
जो मेरा जिस्मो-जान था इक दिन
उसके साये से आज डर जाऊं?
जाने वो मुझसे क्या सवाल करे
हर खबर से मैं बाखबर जाऊं.
जिसने रुसवा किया कभी मुझको
फिर उसी दर पे लौटकर जाऊं?
क्या पता वो दिखाई दे जाये
दो घडी के लिए ठहर जाऊं.
वो भी फूलों की राह पर निकले
मैं भी खुशबू से तर-ब -तर जाऊं.
अपना चेहरा बिगाड़ रक्खा है
उसने चाहा था मैं संवर जाऊं.
मैंने आवारगी बहुत कर ली
सोचता हूं कि अब सुधर जाऊं.
----देवेंद्र गौतम
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