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Life is Just a Life: कहीं मर न जाए Kahin Mar Na Jaye

Written By नीरज द्विवेदी on रविवार, 29 जुलाई 2012 | 10:05 am

Life is Just a Life: कहीं मर न जाए Kahin Mar Na Jaye: बुन सकता हूँ , रंग बिरंगे स्वप्न रेशमी धागों से , पर डरता हूँ , कहीं ये रंगीन स्वप्न बस न जाएँ , किसी गरीब की आ...

Life is Just a Life: पानी बना बहता रहूँगा Pani Bana Bahta Rahunga

Life is Just a Life: पानी बना बहता रहूँगा Pani Bana Bahta Rahunga: चमचमाती रोशनी देखी है, जिसने ख्वाब में बस , मैं उन्हीं की  आँख का , पानी बना बहता रहूँगा। जिसने स्वेद और रक्त मे...

खबरगंगा: 'डायन' : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका

Written By devendra gautam on शनिवार, 28 जुलाई 2012 | 2:09 pm

वे बचपन के दिन थे ....मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद  काना-फूसी शुरू हो गयी और एक बूढी विधवा को 'डायन' करार दिया गया...हम उन्हें प्यार से 'दादी' कहा करते थे...लोगो की ये बाते हम बच्चों तक भी पहुची और हमारी प्यारी- दुलारी दादी एक  'भयानक डर' में तब्दील हो गयी... उनके घर के पास से हम दौड़ते हुए निकलते कि वो पकड़ न ले...उनके बुलाने पर भी पास नहीं जाते ...उनके परिवार को अप्रत्यक्ष तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया ....आज सोचती हूँ तो लगता है कि हमारे बदले व्यवहार ने उन्हें कितनी 'चोटे' दी होंगी ...और ये सब इसलिए कि हमारी मानसिकता सड़ी हुई थी....जबकि हमारा मोहल्ला बौद्धिक (?) तौर पर परिष्कृत (?) लोगो का था ..!....................

खबरगंगा: 'डायन' : औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका:

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हास्य के साथ हास्यास्पद बदलाव की आशा

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शुक्रवार, 27 जुलाई 2012 | 11:11 pm

एक वीडियो कॉन्फ्रेंस के दौरान अरविंद केजरीवाल से बात हुई। यह बात करीब अभी से एक साल पुरानी है। यानी पिछले साल जब अन्ना हजारे करप्शन विरोधी मशीन ईजाद कर रहे थे। अरविंद से मैंने पूछा था कि आपके पास ह्युमन चैन क्या है? जिसके जरिए आप देशभर के जन सैलाब को बांधे रखेंगे। एकाध बार तो सही है कि लोग स्वस्फूर्त आ भी जाएंगे। और फिर मीडिया के पास कुछ और रहा तो फिर आप क्या करेंगे।? अरविंद इतने आत्मविश्वस्त थे कि वे कुछ भी विरोधी बात नहीं सुनना चाहते थे। उन्होंने इस प्रश्न को इतना हल्के से लिया और कहा, यह तो लोगों को सोचना है कि वे करप्शन से निपटने के लिए कोई बिल पास करवाने की विल रखते हैं या नहीं। अरविंद की इस बात से मैं सहमत नहीं हुआ। मैंने वीडियो कॉन्फ्रेंस की अपनी मर्यादाओं के बीच तीन बार उनसे इस पर बहस चाही। मगर अरविंद को लगा जैसे मेरे अखबार ने उन्हें यहां अपमानित करने के लिए बुलाया है। तो वह पैर पटककर बोले यह तो मीडिया के कुछ जिम्मेदार लोगों को सोचना होगा, वरुण जी आप इस बारे में नहीं समझ पाएंगे। मेरा प्रश्न पत्रकार के नाते जरूर था, किंतु आम आदमी की छटपटाहट भी था। मैं वास्तव में इस टीम से जुडऩा चाहता था। किंतु मुझे कोई रास्ता ही नहीं दिख रहा था। इससे जुडऩे के लिए टीवी देखना इकलौती शर्त थी, वो भी न्यूज चैनलों की बातें जो वे पूर्वाग्रस्त से भी कह सकते थे। उस दौर का मेरा मानस था कि देश, राष्ट्र अगर रिएक्ट कर रहा है, यह नहीं कि वह लोकपाल के लिए लड़ रहा है। बस रिएक्ट कर रहा है, तो अच्छा अवसर है हमें भी समाज में आगे आना चाहिए। मन मानस सब तैयार था कि कैसे भी इस महा आंदोलन में कूदेंगे। चाहे नौकरी जाए, चाहे घर, चाहे परिवार। देशप्रेम या यूं कहिए एक सोशल कंर्सन इतना बलवान हुआ। किंतु अरविंद की बेहूदा इस बात ने झल्ला दिया। मैं यह नहीं कहता कि मैं कूद ही जाता, किंतु कूद जरूर जाता। अगर अरविंद या अन्ना थोड़े भी प्रैक्टिकल होते। भीड़ के बूते आगे बढ़े लोगों को आखिरकार चाहिए तो भीड़ ही होती है। मैं नहीं गया उल्टा मुझे कोफ्त सी भी हुई कि यह क्या व्यवस्था बदलने की बात कर रहे हैं, वो भी इतने अव्यवस्थित तरीके से। इस विंडबना ने मुझे इस आंदोलन से दूर किया और यह भी मैं दावे से कहता हूं कि मेरे जैसे लाखों लोगों को आंदोलन ने ऐसी ही गैर जिम्मेदाराना बातों से दूर किया है। अब जब बाबा रामदेव उर्फ राजनीतिज्ञ योगासन गुरु यह कह रहे हैं, कि लोकतंत्र में अपनी बात मनवाने के लिए कम से कम 1 फीसदी लोग तो साथ हों। तो गलत नहीं कह रहे। सच है ऐसे तो यह पर्सनल आंदोलन हो गया। और रहा अनशन का तो यह लोकतंत्र में गरिमापूर्ण स्थान रखता है, लेकिन कल, परसो, शाक भाजी जैसा अनशन हो गया तो क्या होगा। यह अभी भी मौका है अन्ना को थिंक टैंकों की शरण में होना चाहिए। वे इसे फिर से बनाकर निश्चित ही प्रासंगिक, सांदर्भिक और कार्यरूपित आंदोलन की शक्ल में ढाल सकेंगे। अन्ना को मेरा खुला निमंत्रण है अगर चाहें तो मुझसे बात कर सकते हैं। इसी हास्य के साथ गंभीर बात पर हास्ययुक्त तरीके से बदलाव की अति हास्यास्पद आशा के साथ। वरुण।

सुलगता भारत --असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है

Written By mark rai on गुरुवार, 26 जुलाई 2012 | 6:27 pm

सुलगता भारत

असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है .इससे यह भी पता चलता है कि हमें आग लग जाने पर कुआं खोदने की पुरानी बिमारी है .तरुण गोगोई की सरकार लगातार तीसरी बार असम में सत्ता में आई तो इसका मतलब ये नहीं कि वो हाथ पर हाथ धरे बैठ सकती है या उसे ऐसा करने का जनाधार मिला है .समय रहते न चेतना आज के लोकतांत्रिक सरकारों की आदत बनती जा रही है .इस तरह की आदतों का शिकार वैसी पार्टियाँ अधिक है जिन्हें मतदाता लगातार चुनकर भजते रहते है .उनके नेताओं में कहीं न कही सामंतवादी सोच का उद्भव होने लगा है .यह लोकतांत्रिक सामंतवाद मध्यकालीन सामंतवाद से अधिक खतरनाक है .आज सुनियोजित ढंग से आम आदमी को प्रताड़ित किया जा रहा है ....कुछ नए नेताओं को तो व्यवस्थित रूप से इसकी ट्रेनिंग डी जा रही है .

एक कहावत है , जैसा राजा वैसी प्रजा. आज के सन्दर्भ में भी इस कहावत की अहमियत उतनी ही है जितनी राजशाही के समय में थी बल्कि मेरा तो मानना है की आज यह अधिक सटीक है . लोकतांत्रिक अंगों की दुर्बलता देख कुछ असामाजिक तत्व इसका भरपूर फायदा उठाते है और उन्हें कुछ विकृत मानसिकता वाले नेताओं का भी भरपूर समर्थन मिलता है. असम के मौजूदा हालात में सरकार निक्कमी दिख रही है या फिर उसको इस जनसंहार और हिंसा में कुछ फायदा दिख रहा है .सबको पता है असम के कोकराझार ,चिरांग आदि जिलों में आदिवासियों और मुस्लिमों के मध्य हिंसा कोई अनोखी घटना नहीं है . अभी चार साल पहले ही २००८ में ऐसी वारदातें हो चुकी है . फिर भी सबक न लेना सरकार के लकवाग्रस्त होने की ही निशानी है .

ग़ज़लगंगा.dg: रखते हैं लोग जिल्द में दिल की किताब को

Written By devendra gautam on रविवार, 22 जुलाई 2012 | 3:09 pm

कांटों से भरी शाख पर खिलते गुलाब को.
हमने क़ुबूल कर लिया कैसे अज़ाब को.

दिल की नदी में टूटते बनते हुबाब को.
देखा नहीं किसी ने मेरे इज़्तराब को.

चेहरों से झांकते नहीं जज़्बात आजकल
रखते हैं लोग जिल्द में दिल की किताब को.

लम्हों की मौज ले गयी माजी के सब वरक़
अब तुम  कहां से लाओगे यादों के बाब को.

बेचेहरगी ने थाम लिया होगा उनका हाथ
चेहरे से फिर हटा लिया होगा नकाब को.

ऐसे भी कुछ सवाल थे जो हल न हो सके
ताउम्र ढूढ़ते रहे जिनके जवाब को.

तहजीब के फलक पे सितारों के दर्मियां
आंखें तलाशती रहीं आवारा ख्वाब को.

सबकी नज़र में खार सा चुभने लगा था वो
देखा था जिस किसी ने मेरे इन्तखाब को.

वो जिनकी दस्तरस में है सिमटा हुआ निजाम
दावत भी वही दे रहे हैं इन्कलाब को.

हम यूं नवाजते हैं उन्हें अपने मुल्क में
 जैसे कोई शिकार नवाज़े उकाब को.

गौतम हमारे बीच में दीवार क्यों रहे
अबके तुम अपने साथ न लाना हिजाब को.

----देवेंद्र गौतम


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पंचायत मतलब सबकुछ गलत क्यों?

कभी फरमानों तो कभी बेजा शोषण के अरमानों के लिए खाप पंतायतें अपने पाप के साथ चर्चाओं में रहती हैं। इसे लोकतंत्र का चरम कहिए या फिर अतिश्योक्ति। या यूं भी कह सकते हैं कि यह मौजूदा यूनिफॉर्म सिस्टम के खिलाफ एक अजीब सी आवाज भी है। हम यह भी जानते हैं कि गांधी के ग्राम सुराज की परिकल्पना इन्हीं पंचायतों की सीढ़ी से साकार हो सकती है। मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में इन्हीं पंचायतों की गरिमा और गर्व की बात की जाती है। इन्हीं पंचायतों में मानव के स्वभावगत व्यवस्थापन की कल्पना भी की जाती रही है। लेकिन अफसोस कि अब खापें खंडहर होकर भी भूतिया सोच और फरमानों की एशगाह सी बन गईं हैं। हमारे गांव मेंं किसी दौर में एक ऐसी ही पंचायत हुआ करती थी। नजदीकी गांव तक से लोग इस पंचायत में जमीनी विवाद से लेकर हर उस बात के लिए आते थे, जो कि यहां सच्चे न्याय के लिए संभावित नजर आती। सालों इस पंचायत ने न्याय दिया। मुझे याद है 1993 में एक बड़े किसान के हलवाए (नौकर) को उसके ही रिश्तेदारों ने लठ से मार-मारकर अधमरा कर दिया था। यह घटना बिल्कुल गुपचुप तरीके से हुई। हलवाए को मरा मानकर मारने वाले घर आ गए। लेकिन दूसरे दिन जब हलवाए की खोज की गई तो वह खेत में मरणासन्न मिला। पुलिस को बुलाने जैसी बातें भी की गईं। साथ ही गांव की यही पंचायत भी सक्रिय हो गई। सक्रिय इसलिए नहीं कि कोई उलूल-जुलूल फरमान जारी करेगी। सक्रिय इसलिए भी नहीं कि पुलिस के दखल को कम करेगी। और सक्रिय इसलिए भी नहीं हुई कि पंचायत तय कर दे कि कौन हत्यारा है। पंचायत के लोगों ने एक राज्य की व्यवस्था की तरह आनन-फानन में पंचों को बुलाया। पूरे गांव के लोग जमा हुए। एक संसद सा माहौल। एक ऐसी संसद जहां पर प्रतिनिधि चुना नहीं, उसका राज्य में पैदा होना ही चुने जाने के बराबर है। हर कोई खुलकर इस पंचायत में बात कर सकता था। पंचायत का मुख्य विचार यही निकला कि यह महज एक हलवाए की हत्या के प्रयास का मामला नहीं, बल्कि गांव की शांति का भी मसला है। पंचों ने इस मौके पर बहुत ही संजीदा और जिम्मेदाराना रुख अपनाया। पंचायत ने पुलिस को पड़ताल में साथ देने के लिए युवाओं की टोली बनाई। बुजुर्गों ने अपने अनुभवों को सांझा किया। यहां पर न तो रॉ जैसी जासूस एजेंसी थी, न सीबीआई जैसी जांच एजेंसी। मगर इस पंचायत ने ऐसे किया जैसे एक राज्य में कोई सरकार करती। पुलिस के साथ मिलकर पूरे गांव ने एक सप्ताह के भीतर हत्यारों की गतिविधियों को पकड़ लिया। मरणासन्न हलवाया बयान देता इससे पहले ही अपराधी हिरासत में थे। यह कहानी कहने का मतलब महज इतना है कि गांवों की यह पंचायतें खाप नहीं हैं। न ही यह ऐसी हैं जिनके वजूद को खत्म कर दिया जाए। अच्छा होगा कि इनके बारे में नकारात्मक राय फैलाने की बजाए इन्हें नैतिकता और प्राकृतिक न्याय के प्रति उन्मुख किया जाए। और गांधी के ग्राम सुराज की परिकल्पना को साकार बनाया जाए। वरुण के सखाजी

"स्वच्छ सन्देश" पत्रिका के आठ वर्ष पूरे.

Written By Saleem Khan on रविवार, 15 जुलाई 2012 | 11:56 pm


सी.एम्. अखिलेश यादव जी (स्वच्छ सन्देश पत्रिका 8 वर्ष पूरे होने पर हौसला अफजाई के लिए आये)


सभी ब्लॉगर्स को यह सुचना देते हुए मुझे अति प्रसन्नता हो रही है कि आज स्वच्छ सन्देश पत्रिका के आठ वर्ष पूरे हो गए है. सुन्नी वक्फ बोर्ड के सेक्रेटरी और बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के सदर जनाब ज़फरयाब जिलानी साहब की रहनुमाई में यह पत्रिका आज से ठीक आठ वर्ष पहले शुरू हुई थी।

चलते चलते उन्होंने यूपी में सच्चर व रंगनाथ की सिफारिशें लागू करने के लिए भी कहा.

लखनऊ के मशहूर ब्लॉगर डॉ. महफूज़ अली AIBA के उपाध्यक्ष चुने गए


हरदिल अज़ीज़ लखनऊ के मशहूर ब्लॉगर


जनाब डॉ. महफूज़ अली साहब


को

AIBA का उपाध्यक्ष बनाया गया
.

जनाब महफूज़ अली

उन्हें बहुत बहुत बधाई!

Know more about Dr. Mahfooz Ali at here.

हमारे प्रिय जांबाज दारा सिंह जी अब हमें छोड़ चले

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on गुरुवार, 12 जुलाई 2012 | 11:28 pm


हमारे प्रिय जांबाज दारा सिंह जी अब हमें छोड़ चले


हमारे प्रिय जांबाज कुश्ती के माहिर , पहलवानी से 50 के दशक में आये फिल्म जगत में छाये दारा  सिंह जी 84 तक साथ निभा अब हमें छोड़ चले ..नम  आँखों से हम उन्हें हार्दिक और भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं .....प्रभु उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार जन को इस कष्ट की बेला को झेल कर आगे बढ़ने की शक्ति दे ...
रामायण में उनके हनुमान जी के किरदार को कौन भूल सकता है ...

आज सुबह साढ़े  सात बजे उन्होंने अंतिम साँसे ली और आज 12.7.12 को शाम चार बजे मुम्बई के विले पार्ले शवदाह केंद्र में हमारे 'रुस्तम- ऐ -हिंद ...पञ्च तत्व में विलीन हो गए ....उनका चरित्र बहुत ही सुलझा हुआ था वे सचमुच हनुमान सरीखे लोगों के दिल में छा जाते थे ...१९५९ में किंग कांग को हराने    के पश्चात वे विश्व चैम्पियन शिप जीते और फिर तो गाँव गाँव कुश्ती का दौर चल पड़ा ...मेले में ,, नागपंचमी में ..फ्री स्टाईल .....



एक्स्ट्रा से एक्टर बनी मशहूर अदाकारा मुमताज के साथ उन्होंने १६ के लगभग फिल्मे कीं .......लम्बे अरसे से अभी तक वे बालीवुड में छाये रहे 


हनुमान जी के अभिनय से उनकी लोकप्रियता से भाजपा ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी दिलाई .....आज भी जय बजरंग बलि का नारा भरते उनका चेहरा सामने आ जाता है ..वे नयनों में बस गए ...
एक बार पुनः उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि .....

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'५ 

Life is Just a Life: माँ, इसमें मेरा दोष न देख Man Ismein Mera Dosh N d...

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 11 जुलाई 2012 | 8:13 am

Life is Just a Life: माँ, इसमें मेरा दोष न देख Man Ismein Mera Dosh N d...: रस्म रिवाजों के चन्दन में , देहरी के  पावन  बंधन में , बंधी रही हूँ बिना शिकायत , पावन  सी   तेरे  कंगन  में , अरुणोदय की प्रथम क...

फिल्म एक था टाइगर में आईएसआई और रॉ की तुलना गलत

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on मंगलवार, 10 जुलाई 2012 | 12:46 pm

सलमान खान की नई फिल्म एक था टाइगर पाकिस्तान में आईएसआई के नाम को इस्तेमाल करने पर बैन हो गई है। दूर से जरूर ऐसा लगता है कि यह पाकिस्तान का हठवादी फैसला है, किंतु जरा करीब जाइए तो लगेगा वास्तव में ऐसा ही फैसला तो भारत को भी लेना चाहिए। यह कैसी बात है कि पाकिस्तान की आईएसआई और भारत की रॉ को एक ही जैसा मान लिया गया और किसी को एतराज तक नहीं हुआ। फिल्म के ट्रेलर में एक वाइस ओवर में कहा गया है पिछल 65 सालों में भारत पाकिस्तान के बीच 4 जंगों हो चुकी हैं, और इनके नतीजे भी सभी को पता हैं। किंतु पाकिस्तान की आईएसआई और भारत की रॉ ऐसी एजेंसियां हैं तो हर घंटे जंगों लड़ा करती हैं। इस बात पर भारत सरकार को कड़ा ऐतराज होना चाहिए। दरअसल फिल्म का यह डायलॉग साबित करता है कि भारत की रॉ एजेंसी भी आईएसआई की तरह ही आतंकवाद को बढ़ावा देने में मदद करती है। रॉ जैसी प्रतिष्ठित स्वरक्षा के लिए जासूसी करने वाली एजेंसी पर यह आरोप सरासर गलत कहने वाले भारत में ही ऐसी फिल्में चालाकी से ऐसा कर जाती हैं। सलमान खान उत्साहित फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं। भीड़ इकट्ठा करने के लिए माने जाते हैं, एक अच्छे कलाकार हैं। किंतु चुपके से इस तरह का इंजेक्शन भारतीय मानुष में लगा देना बिल्कुल ही गलत है। इस बात पर जंू तक नहीं रेंगा लोगों के सिर पर, कि फिल्म ने कितनी ही चालाकी से यह साबित कर दिया कि रॉ और आईएसआई में कोई फर्क नहीं। आईएसआई मुल्ला परस्ती के साये में आतंक और सिर्फ भारत के खिलाफ आतंक फैलाने में सहायक होती है। यह बात कई आतंकियों के पकड़े जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर भी साबित हो चुकी है। किंतु रॉ के बारे में पाकिस्तान ऐसे कई मिथ्या प्रयास कर चुका है, साबित नहीं कर पाया। एक अदद फिल्म ऐसा कहकर करने जा रही है और हम हैं कि चुप बैठे हैं। - वरुण के सखाजी

Life is Just a Life: प्यास बुझ ही तो जाएगी Pyas Bujh hi to Jayegi

Written By नीरज द्विवेदी on सोमवार, 9 जुलाई 2012 | 10:35 pm

Life is Just a Life: प्यास बुझ ही तो जाएगी Pyas Bujh hi to Jayegi: कई आंखें , देख रहीं हैं, आकाश में बिखरी उदासी, छोटा सा बादल , और धरती का उत्सुक चेहरा । एक जलती बुझती आशा , परिवर्तन की जिज्ञा...

Life is Just a Life: मेरी आवाज

Written By नीरज द्विवेदी on रविवार, 8 जुलाई 2012 | 10:01 am

Life is Just a Life: मेरी आवाज: मैं खोना नहीं चाहता अपनी आवाज , एहसानों के नीचे क्यूँ दबाते हो मुझे ? सिद्दत से बेहद चाहा है हमने तुमको , खुद ही कमजोर क्यूँ बन...

मैं सिपाही अमजद ख़ान बोल रहा हूं....

Written By बेनामी on शुक्रवार, 6 जुलाई 2012 | 9:23 am


शहीद अमजद ख़ान 

जंगलपारा नगरी ज़िला धमतरी छत्तीसगढ़...यही है मेरी जन्मस्थली...जहाँ मेरी ज़िंदगी ने पहली साँसे ली थी...उस दिन बहुत खुश थे मेरे पिता कलीम ख़ान जो की वनोपज के एक निहायत ही छोटे दर्जे के व्यापारी हैं...बचपन से मुझे वर्दी का बड़ा शौक था..वर्दी पहने लोगों को देखकर मुझे मन ही मन गर्व महसूस होता था...मैनें अपने अब्बा से कह दिया था कि देखना एक ना एक दिन पुलिस वाला बन के ही दिखलाउंगा....खेलों में भी मेरी गहरी रूचि थी....और अल्लाह के फ़ज़लो क़रम से मैं पढ़ाई में भी आला दर्जे का था...एक दिन मेरी चाहत रंग लायी और मुझे 2006 में ज़िला पुलिस बल में आरक्षक के पद पर तैनाती मिल गयी...मुझे याद है की ट्रेनिंग के बाद मैनें बड़ी शान से अपनी क़लफदार वर्दी अपने अब्बा को दिखलायी थी जिसे देख कर उनकी आँखे भर आयी थी...मैनें पूरी शिद्दत के साथ अपनी नौकरी को अमली जामा पहनाया था...
इस बीच पूरे प्रदेश को छोटे-छोटे ज़िलों में बांटने की क़वायद शुरू हो गयी थी जिसके मद्देनज़र बस्तर के घने जंगलो के बीच बसे एक सुविधा विहीन ईलाके सुकमा को ज़िले का दर्ज़ा प्राप्त हो गया...मुझे क्या मालूम था की आगे चल कर सुकमा का ईलाक़ा ही मेरी कब्रगाह बनने वाला था...मुझे अतिउत्साही कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का गार्ड बना कर सुकमा भेज दिया गया...नक्सली मामलों में सुकमा के एक बेहद संवेदनशील ईलाके होने की वजह से सुरक्षा की हर चेतावनी को नज़र अंदाज़ करते कलेक्टर मेनन बीहड़ ईलाकों में भी पहुंचने से गुरेज़ नहीं करते थे और उनका सुरक्षा गार्ड होने के नाते मैं हर वक़्त साये की तरह उनके साथ रहा करता था...मुझे क्या पता था की साहब की नाफरमानी एक दिन मुझे ही साये की शक़्ल लेने के लिये मजबूर कर देगी...
अप्रेल का महीना सन 2012 जिसके बाद मेरी ज़िंदगी की क़िताब के अक्षर हमेशा के लिये विराम लेने वाले थे...ग्राम सुराज का सरकारी ढोल पूरे प्रदेश में ज़ोरों से पीटा जा रहा था...नेता,प्रशासनिक अमला गाँव-गाँव पहुंच कर फायदेमंद सरकारी योजनाओं की जानकारी आम जनो को दे रहा था भले ही फायदा किन ख़ास लोगों तक पहुंचता है यह बात किसी से छुपी ना हो पर एक शासकीय कर्मी होने के नाते हमें ग्राम सुराज को सफल बनाने के लिये तत्परता से काम करना था...कलेक्टर साहब सुराज अभियान के लिये कमर कस तैय्यार थे....सुकमा का बीहड़ ईलाका जहां तमाम तरह की सुविधायें यथार्थ से कोसो दूर हैं...सड़क की परिकल्पना ही की जा सकती है...कई गाँव ऐसे मुहाने में बसे हैं जहाँ चार पहियों पर तो क्या दुपहिया भी बड़ी मशक़्क़त के बाद पहुंचा जा सकता है....पर 2006 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन की सुरक्षा में तैनात मैं और मेरा एक और छत्तीसगढ़ के ही रायगढ़ निवासी साथी किशन कुजूर की प्रतिबद्धता थी साहब की पूर्ण सुरक्षा की....
21 अप्रेल 2012 दिन शनिवार की सुबह मैं जल्दी उठ गया....मेरे साथी किशन ने मेरे उठते साथ ही उजली धूप की मुस्कान की तरह गुड मार्निंग कहा...और हम कलेक्टर साहब के साथ ग्राम सुराज अभियान की भेंट चढ़ने के लिये निकल गये.....जैसा मैनें पहले ही कहा है कि साहब बड़े उत्साही क़िस्म के व्यक्ति हैं....काम के आगे वो कुछ और नहीं सोचते...यहां तक की नाश्ता और भोजन भी...ये बात अलहदा है कि उनके पास महंगा फूड सप्लीमेंट हमेशा मौजूद रहता था जिसे हम जैसे मिडिल क्लास लोगों के लिये ख़रीद पाना अमूमन नामुमकिन होता है.....साहब के साथ सुराज अभियान का जायज़ा लेते हुये पूरा दिन बीता और फिर वो लम्हा आ गया जब मैं और मेरा साथी किशन इस ईंसानी दुनिया को हमेशा के लिये छोड़ कर जाने वाले थे...
शाम करीब साढ़े 4 बजे केरलापाल के मांझीपारा में ग्राम सुराज शिविर लगा था… बताया गया कि पहले से कुछ नक्सली ग्रामीण वेशभूषा में वहां मौजूद थे.... कलेक्टर साहब शिविर में बैठे हुए थे तभी एक ग्रामीण वहां पहुंचा और मांझीपारा में किसी काम दिखाने की बात उन्हें कही... जिस पर साहब अपनी स्कार्पियों में कुछ ही दूर निकले थे तभी 10 से 15 मोटर साइकिल में सवार नक्सलियों ने उनके वाहन को घेर लिया और पूछा कलेक्टर कौन हैं...?? पास के ही पेड़ के पास अपनी बाईक पर बैठे-बैठे मेरे साथी किशन कुजूर ने अपनी गन तानी ही थी कि उस पर गोलियों की बौछार कर दी गयी और वह वहीं ढेर हो गया....मैनें एक पेड़ की आड़ लेकर अपनी गन से नक्सलियों पर फायरिंग शुरू कर दी और एक नक्सली को ढेर करने में क़ामयाब भी रहा...पर मैं अकेला और नक्सली अधिक...आख़िर मेरी अकेली गन कब तक उनका मुक़ाबला कर पाती...तभी अचानक लगा की बहुत सी लोहे की कीलें मेरे शरीर में चुभती चली जा रही हैं....और उस चुभन का दर्द बयाँ करना शायद मरने के बाद भी मुमकिन नहीं है...ख़ून से लत-पथ मैं ज़मीन पर आ गिरा....मेरी आँखे धीरे-धीरे बंद हो रही थी और उस आख़िरी वक़्त में भी मैं ख़ुदा को याद करने की बजाय अपनी गाड़ी में बैठे कलेक्टर साहब को देख रहा था और मन ही मन अफसोस कर रहा था की मैं उनकी सुरक्षा नहीं कर पाया.....और फिर मैनें एक हिचकी के साथ अपना शरीर ज़मीन के और जान अल्लाह के हवाले कर दिया....
मैं तो इस दुनिया से दूर चला गया..लेकिन उसके बाद साहब को नक्सलियों की क़ैद से आज़ाद कराने की संभवतः तयशुदा क़वायद शुरू कर दी गयी...समझौते के बहाने नक्सलियों के बुज़ुर्ग समर्थकों को राज्य अतिथि के दर्जे से नवाज़ा गया...आने-जाने के लिये हैलीकॉप्टर मुहैय्या कराया गया...हर जायज़ और नाजायज़ मांगो को माना गया....और कलेक्टर साहब की सुरक्षित रिहाई हो गयी...आसमानी हवाओं में ऊड़ते-ऊड़ते बात आयी की साहब की रिहाई में सरकारी पैसों का भी जमकर लेन-देन हुआ....ख़ैर मैं अब इन सब ईंसानी हरक़तों से परे हूं लेकिन मेरे बेवजह गुज़र जाने के बाद सरकारी मदद की राह तकते किशन और मेरे परिवार को देख मन भर आता है...दिल में रह-रह कर एक टीस सी उभरती है...पर आँखों से आँसू नहीं निकलते...यक़ीनन राजनीत की चौसर पर मोहरों की तरह बैठे लोगों की चाकरी करने से बेहतर है ख़ुदा का यह आरामगाह...जहाँ कुछ मतलब-परस्त लोगों की वजह से शहादत झेल रहे लोगों की कमी नहीं है...और वह सब भी बेहद ख़ुश हैं...अरे..अरे मेरे अब्बा हूज़ूर अपने पुराने रेडियो पर एक गाना सुनकर...मेरी याद में फफक-फफक कर रो रहे हैं....गाना भी माशा अल्लाह कमाल का है....ज़रा आप भी सुनिये...”मतलब की दुनिया को छोड़कर..प्यार की दुनिया में...ख़ुश रहना मेरे यार”........॥ 

बचपन: वक्त का खूबसूरत कोना

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on मंगलवार, 3 जुलाई 2012 | 10:04 pm

बालमन की सुलभ इच्छाएं बड़ी आनंद दायक होती हैं। कई बार सोचते-सोचते हम वक्त के उस कोने तक पहुंच जाते हैं, जहां हम कभी सालों पहले रचे, बसे और रहे होते हैं। जिंदगी जैसे अपनी रफ्तार पकड़ती जाती है, हम उतने ही व्यवहारिक और यथार्थवादी होते जाते हैं। किंतु यह यथार्थ हमसे कल्पनाई संसार की रंगत ले उड़ता है। वह कल्पनाई संसार जो अनुभवों की गठरी होता है, सुखद एहसासों के आंगन में मंजरी होता है, हल्की सहसा आई मुस्कान की वजह होता है। इस कल्पनाई संसार से दूर जाकर हम देश, दुनिया की कई बातें सीखते, समझते और जानते हैं। किंतु जब बचपन की यह खोई, बुझी, बिसरी और स्थायी सी सुखद यादें दिमाग में ढोल बजाती हैं, तो मन भंगड़ा करने लग जाता है। यादों की धुन पर मन मस्ती में डूब गया, जब 20 साल पुरानी चिल्ड्रन फेवरेट लिस्ट पर चर्चा शुरू हुई। किस तरह से एक अदद स्वाद की गोली के लिए तरसते थे, किस तरह से हाजमोला कैंडी के विज्ञापन को देख मन मसोस कर बैठ जाते थे, कैसे स्कूल के रास्ते में पडऩे वाली दुकानों पर लटके पार्ले-जी के विज्ञापन को देख मन डोल उठता था। सोचने लगते कि वह बच्चा कितना लकी है जो इस बिस्किट के पैकेट पर छपा रहता था, जब चाहे बिस्किट खाता होगा। खूब खाता होगा, मम्मी तो उसे कभी मना करती नहीं होगी, फोटो तक उसका खिंचवाया है। बालमन यहां तक इच्छा कर बैठता कि काश मेरे घर बैल गाड़ी में ऊपर तक भरकर बिस्किट आएं। और ऐसा नहीं कि यह इच्छा मर गई हो, वह इमेज भी आज जेहन में जस की तस है, जब इस बात की कल्पना की गई थी। मेरा घर, उसमें खड़ी लकड़ी की बैल गाड़ी, उसमें लदे फसल के स्थान पर बिस्किट, हरेक बिस्किट में दिख रहा है वही गोरा-नारा हिप्पीकट बच्चा। इस बात की कल्पना कोयल जब भी मन के किसी कोने से कूकती है तो यादों का बियावां खग संगीत पर और जवां हो जाता है। वो मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम की बसों के पीछे बना एक सुंदर सा बच्चा और हाथ में लिए स्वाद की गोली। वाह मजा आ जाता। जब उसे देखता और उसके चेहरे की परिकल्पना करते कि वह कितना लकी है जिसके हाथ में स्वाद की गोली है, वो भी जब वह चाहे तब। स्वाद के प्रति क्रेज ऐसा रहा कि टीवी पर जब एड आता स्वाद-स्वाद और एक व्यक्ति आसमान से स्वाद की गोलियां फेंकता तो लगता था जैसे अब गिरी या कब गिरी मेरे आंगन में। बालमन की कल्पनाएं यहीं नहीं थमतीं वह मीठे पान पर भी खूब मुज्ध होता है। मीठे पान में डलने वाले लाल-लाल पदार्थ को क्या कहते हैं आज भी नहीं मालूम, मगर हम लोग उसे हेमामालिनी कहते थे। लोग इसमें मीठे पेस्ट की ट्यूब डालकर उसे धर्मेंद्र कहते थे। तब तो नहीं, लेकिन आज लगता है धर्मेंद्र और हेमामालिनी का मीठे पान की दुनिया में अद्भुत योगदान रहा है। बालमन एक और कुलांचे भरता है। बातों ही बातों में शरारतें भी जवां होने लगती हैं। इनमें छुप-छुपकर कंचा खेलने, स्कूल में आधी छुट्टी के बाद न जाने, चौक चौराहों पर बैठकर बड़ों की बातें सुनने जैसी बातों पर लगे प्रतिबंध आज के अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों जैसे विषय हुआ करते थे। बालमन की कल्पनाएं उस वक्त और अंगड़ाई लेने लगती हैं, जब बीसों साल पुराने किसी खाद्य उत्पाद के पैकेट्स कहीं मिल जाएं। कहीं बात छिड़े तो यूपी, बिहार, गुजरात, की सीमाओं से परे होकर कॉमन इच्छाएं, कठिनाइयां, कमजोरियां, चोरियां, शरारतें और मन को आह्लादित करने वाली खुशियां मिलने लग जाती हैं। इस अद्भुत बचपन के सफर को संभालकर रखने की जिम्मेदारी अपने दिमाग की किसी स्टोरेज ब्रांच को दे दीजिए, वरना सोने जैसी मंहगी होती मेमोरी में स्पेस नहीं बचेगा इन खूबसूरत एवर स्माइल स्वीट मेमोरीज को सहजेने के लिए। चूंकि संसार में घटनाएं बहुत बढ़ गईं हैं। रोजी के जरिए आपका दिमागी ध्यान ज्यादा चाह रहे हैं, ऐसे में दिमाग के पास हर घटना के डाटा रखने की जिम्मेदारी है, तब फिर कहां रखेंगे इन बाल चित्रों जैसे स्माइली इवेंट्स को। वरुण के. सखाजी

Life is Just a Life: भारत भोला है Bharat Bhola hai

Life is Just a Life: भारत भोला है Bharat Bhola hai: ये मिली नहीं है चुन  ली है,  मैंने तन्हाई जीवन में , फिर  मैंने ही  राजमहल का, पथ  छोड़ा तरुणाई में , मैं कागज का  लिए सहारा, निकला आग...

आ रहा हूँ पलट के, मैं हूँ सलीम ख़ान !

Written By Saleem Khan on सोमवार, 2 जुलाई 2012 | 7:29 pm


मेरे दुश्मन समझ रहे थे 

मैं अब कभी लौट के ना आऊंगा, 

एक गुमनामी का समुन्दर है 

उसमे ही जाके डूब जाऊँगा. 


अभी बाक़ी मेरी कहानी है,
 
सारी दुनिया को जो सुनानी है... 


मुझे पहचानो 

देखो मैं हूँ कौन 

आ रहा हूँ पलट के 

मैं हूँ सलीम ख़ान, ख़ान, ख़ान....!


Life is Just a Life: I am Alone & I don’t know why?

Written By नीरज द्विवेदी on रविवार, 1 जुलाई 2012 | 11:10 pm

Life is Just a Life: I am Alone & I don’t know why?: Emptiness, Loneliness In some situations in our life we don’t wanna anybody to be with us… rather we wanna face those situations alone. ...

Life is Just a Life: Enjoy life. This is not a dress rehearsal

Life is Just a Life: Enjoy life. This is not a dress rehearsal: The Condition of our Villages                 "Enjoy life. This is not a dress rehearsal”  :  Most people do most of the things for showi...

Life is Just a Life: लावारिस गम Lavarish Gam

Life is Just a Life: लावारिस गम Lavarish Gam: बूंदों से आँसू नैना हैं बदरा सूखे हुये ताल सी जिंदगी में , फूलों के बिन एक पागल सा भँवरा , कि विक्षिप्त सा और मदहोश सा ही , क...

QUOTATION: Life is indeed difficult, partly because of the re...

QUOTATION: Life is indeed difficult, partly because of the re...: Life is indeed difficult, partly because of the real difficulties we must overcome in order to survive, and partly because of our own innate...

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