बार बार उड़ने की कोशिश
गिरती और संभलती थी
कांटों की परवाह बिना वो
गुल गुलाब सी खिलती थी
सूर्य रश्मि से तेज लिए वो
चंदा सी थी दमक रही
सरिता प्यारी कलरव करते
झरने चढ़ ज्यों गिरि पे जाती
शीतल मनहर दिव्य वायु सी
बदली बन नभ में उड़ जाती
कभी सींचती प्राण ओज वो
बिजली दुर्गा भी बन जाती
करुणा नेह गेह लक्ष्मी हे
कितने अगणित रूप दिखाती
प्रकृति रम्य नारी सृष्टि तू
प्रेम मूर्ति पर बलि बलि जाती
--------------------
सुरेंद्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत