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काली कमाई का सबसे सुरक्षित ठिकाना बैंक लॉकर !

Written By Swarajya karun on मंगलवार, 18 नवंबर 2014 | 8:11 am


                                                                                                               -स्वराज्य करुण
      भ्रष्टाचार और काला धन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं . दोनों एक-दूजे के लिए ही बने हैं और एक-दूजे के फलने-फूलने के लिए ज़मीन तैयार करते रहते हैं . यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों एकदम सगे मौसेरे भाई हैं. भ्रष्टाचार से अर्जित करोड़ों-अरबों -खरबों की दौलत को छुपाकर रखने के लिए तरह -तरह की जुगत लगाई जाती है . भ्रष्टाचारियों द्वारा इसके लिए अपने नाते-रिश्तेदारों ,नौकर-चाकरों और यहाँ तक कि कुत्ते-बिल्लियों के नाम से भी बेनामी सम्पत्ति खरीदी जाती है . बेईमानी की कालिख लगी दौलत अगर छलकने लगे तो सफेदपोश चोर-डाकू उसे अपने बिस्तर और यहाँ तक कि टायलेट में भी छुपाकर रख देते हैं . .हालांकि देश के सभी राज्यों में हर साल और हर महीने कालिख लगी कमाई करने वाले सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के घरों पर छापेमारी चलती रहती है ,करोड़ों -अरबों की अनुपातहीन सम्पत्ति होने के खुलासे भी मीडिया में आते रहते हैं .
     आपको यह जानकर शायद हैरानी होगी कि हमारे देश के राष्ट्रीयकृत और निजी क्षेत्र के बैंक भी भ्रष्टाचारियों  की   बेहिसाब दौलत को छुपाने का सबसे सुरक्षित ठिकाना बन गए हैं .जी हाँ !  ये बैंक  जाने-अनजाने इन भ्रष्ट लोगों की मदद कर रहे हैं और उनकी काली कमाई के अघोषित संरक्षक बने हुए हैं  ! वह कैसे ? तो जरा विचार कीजिये ! प्रत्येक बैंक में  ग्राहकों को लॉकर रखने की भी सुविधा मिलती है .हालांकि सभी खातेदार इसका लाभ नहीं लेते ,लेकिन कई इच्छुक खातेदारों को बैंक शाखाएं  निर्धारित शुल्क पर लॉकर आवंटित करती हैं  .उस लॉकर में आप क्या रखने जा रहे हैं , उसकी कोई सूची बैंक वाले नहीं बनाते . उन्हें केवल अपने लॉकर के किराए से ही मतलब रहता है . लॉकर-धारक से उसमे रखे जाने वाले सामानों की जानकारी के लिए कोई फ़ार्म नहीं भरवाया जाता .  .आप सोने-चांदी ,हीरे-जवाहरात से लेकर  बेहिसाब नोटों के बंडल तक उसमे रख सकते हैं . एक मित्र ने मजाक में कहा - अगर आप चाहें तो अपने बैंक लॉकर में दारू की बोतल और अफीम-गांजा -भांग जैसे नशीले पदार्थ भी जमा करवा सकते हैं .
          कहने का मतलब यह  कि बैंक वाले अपनी शाखा में लॉकर की मांग करने वाले किसी भी ग्राहक  को निर्धारित किराए पर लॉकर उपलब्ध करवा कर अपनी ड्यूटी पूरी मान  लेते हैं  .हाल ही में कुछ अखबारों में यह समाचार पढ़ने को मिला कि   एक भ्रष्ट अधिकारी के बैंक लॉकर होने की जानकारी मिलने पर जांच दल ने जब उस बैंक में उसे साथ ले जाकर लॉकर खुलवाया तो उसमे पांच लाख रूपए नगद मिले ,जबकि उसमे विभिन्न देशों के बासठ नोटों के अलावा कई विदेशी सिक्के भी उसी लॉकर से बरामद किये गए ..उसके ही एक अन्य बैंक के लॉकर में करोड़ों रूपयों की जमीन खरीदी से संबंधित रजिस्ट्री के अनेक दस्तावेज भी पाए गए .जरा सोचिये ! इस व्यक्ति ने  पांच लाख रूपये की नगद राशि को अपने बैंक खाते में जमा क्यों नहीं किया ? उसने इतनी बड़ी रकम को लॉकर में क्यों रखा ? फिर उस लॉकर में विदेशी नोटों और विदेशी सिक्कों को रखने के पीछे  उसका इरादा क्या था ? हमारे जैसे लोगों के लिए तो  पांच लाख रूपये भी बहुत बड़ी रकम होती है .इसलिए मैंने इसे 'इतनी बड़ी रकम' कहा .
          बहरहाल हमारे  देश में बैंकों के लॉकरों में पांच लाख तो क्या , पांच-पांच करोड रूपए रखने वाले भ्रष्टाचारी भी होंगे .आम धारणा है कि भारत के काले धन का जितना बड़ा जखीरा विदेशी बैंकों में है ,उससे कहीं ज्यादा काला धन देश में ही छुपा हुआ है और तरह-तरह के काले कारोबार में उसका धडल्ले से इस्तेमाल हो रहा है . ऐसा लगता है कि बैंक लॉकर भी काले-धन को सुरक्षित रखने का एक सहज-सरल माध्यम   बन गए हैं .ऐसे में अगर देश के भीतर छुपाकर रखे गए काले धन को उजागर करना हो तो सबसे पहले तमाम बैंक-लॉकर धारकों के लिए यह कानूनन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे अपने लॉकर में रखे गए सामानों की पूरी जानकारी बैंक-प्रबंधन को दें .ताकि उसका रिकार्ड सरकार को भी मिल सके .अगर लॉकर धारक ऐसा नहीं करते हैं तो उनके लॉकर जब्त कर लिए जाएँ . मुझे लगता है कि ऐसा होने पर  अरबों-खरबों रूपयों का काला धन अपने आप बाहर आने लगेगा और उसका उपयोग देश-हित में किया जा सकेगा .(स्वराज्य करुण )

शरीर, आत्मा, मैं और तुम

Written By Anurag Anant on मंगलवार, 11 नवंबर 2014 | 11:39 am

जब जब तुम्हारी आत्मा तक जाना चाहा है
तुम्हारा शरीर मिला है
एक रूकावट की तरह
एक रास्ते की तरह
उससे उलझा हूँ जब जब
उलझ ही गया हूँ बस 
उस पर चला हूँ जब जब 
चलता ही गया हूँ बस

शरीर, आत्मा, मैं और तुम
एक दूसरे की ओर चलते रहे
और बढ़ते रहे फासले
हर कदम के साथ
कितना अजब सफ़र है
कितने अजब मुसाफिर
और कितनी अजब राह है ये
--अनुराग अनंत

सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों की असलियत !

Written By Swarajya karun on रविवार, 9 नवंबर 2014 | 1:27 pm

निजी क्षेत्र में सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों के नाम पर लूट-मार जारी है. हालांकि अपवाद स्वरुप कुछ अच्छे अस्पताल और अच्छे डॉक्टर भी होते हैं , जिनमे  परोपकार और समाज  सेवा  की भावना जीवित है ,लेकिन अधिकाँश अस्पतालों की व्यवस्था देखकर लगता है कि मानवता खत्म हो गई है .अपने एक मित्र के बीमार पिताजी को देखने एक ऐसे ही स्वनाम धन्य अस्पताल गया तो मित्र ने बताया --- इस अस्पताल के डॉक्टरों की आपसी बातचीत अगर सुन लें तो आपको डॉक्टर और हैवान में कोई अन्तर नज़र नहीं आएगा .ये डॉक्टर अपने लंच टाईम में आपसी चर्चा में मरीजों को क्रिकेट का 'विकेट' कहते हैं. .एक डॉक्टर दूसरे से कहता है -आज चार विकेट आए थे ,एक विकेट गिरा है .

 दरअसल  सुपर स्पेशलिटी में स्पेशल बात ये होती है कि वहाँ किसी गंभीर मरीज को ले जाने के बाद सबसे पहले बिलिंग काऊंटर में बीस-पच्चीस या पचास हजार रूपए जमा करवा लिए जाते हैं . उसके बाद शुरू होता है असली लूट -खसोट का सिलसिला . मरीज को आई.सी. यू .में भर्ती करने के बाद तरह-तरह के मेडिकल टेस्ट करवाने और हर दो -चार घंटे बाद नई -नई दवाइयों की लिस्ट उसके परिजन को थमा दी जाती है .उसी अस्पताल के परिसर में अस्पताल मालिक का मेडिकल स्टोर भी होता है .यह मरीज के घर के लोगों के लिए सुविधा की दृष्टि से तो ठीक है ,लेकिन वहाँ दवाईयां मनमाने दाम पर खरीदना उनकी मजबूरी हो जाती है.मरीज को छोड़कर ज्यादा दूर किसी मेडिकल स्टोर तक जाने -आने का जोखिम उठाना ठीक भी नहीं लगता . खैर किसी तरह अगर दवाई खरीद कर डॉक्टर को दे दी जाए तो उसके बाद यह पता भी नहीं चलता कि उन सभी दवाइयों का इस्तेमाल मरीज के लिए किया गया है या नहीं ?गौर तलब है कि आई.सी. यू. में मरीज के साथ हर वक्त उसके परिजन को मौजूद रहने की अनुमति नहीं होती .उसे बाहर ही बैठकर इन्तजार करना होता है .वह बड़ी व्याकुलता से समय बिताता है. उसे केवल आई.सी.यू. में दाखिल अपने प्रियजन के स्वास्थ्य की चिन्ता रहती है,लिहाजा डॉक्टर से कई प्रकार के मेडिकल टेस्ट का और मरीज के लिए खरीदी गयी दवाइयों के उपयोग का हिसाब मांगने की बात उसके मन में आती ही नहीं. इसका ही बेजा फायदा उठाते हैं कथित सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों के मालिक और डॉक्टर .वैसे इस प्रकार के ज्यादातर अस्पतालों के मालिक स्वयं डॉक्टर होते हैं .सरकार तो जन-कल्याण अच्छे  इरादे के साथ गरीब परिवारों को स्मार्ट -कार्ड देकर उन्हें सालाना एक निश्चित राशि तक निशुल्क इलाज की सुविधा देती है यह सुविधा पंजीकृत अस्पतालों में दी जाती है ,लेकिन वहाँ डॉक्टर कई स्मार्ट कार्ड धारक परिवार के किसी एक सदस्य के एक बार के इलाज में ही अनाप-शनाप खर्च बताकर स्मार्ट कार्ड की पूरी राशि निकलवा लेते हैं.
     दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी अस्पताल हैं ,जहां गंभीर से गंभीर बीमारियों का मुफ्त इलाज होता है.जैसे - नया रायपुर और पुट्टपर्थी  स्थित श्री सत्य साईसंजीवनी अस्पताल ,जहां जन्मजात ह्रदय रोगियों का पूरा इलाज और ऑपरेशन मुफ्त किया जाता है .यह एक ऐसा अस्पताल है ,जहाँ कोई बिलिंग काऊंटर नहीं है. मरीजों के और उनके सहायकों के लिए भोजन और आवास की व्यवस्था भी निशुल्क है .-स्वराज्य करुण

(पुस्तक चर्चा ) भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर एक जरूरी किताब

Written By Swarajya karun on शनिवार, 8 नवंबर 2014 | 6:07 pm

   संगीत की अपनी भाषा होती है ,जो दुनिया के हर इंसान के दिल को छू जाती है और चाहे कोई देश-प्रदेश हो या विदेश,  कहीं का भी संगीत , कहीं के भी इंसान को सहज ही अपनी ओर आसानी से खींच लेता है.  भारतीय संगीत और वाद्य यंत्रों की भी अपनी कई विशेषताएं हैं .उनकी उत्पत्ति का अपना इतिहास है .   अवनद्ध वाद्य भी इनमे अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं . संगीत में अवनद्ध वाद्यों की जरूरत भोजन का जायका बढ़ाने वाली  मसालेदार सब्जियों और स्वादिष्ट चटनियों की तरह है . 
      भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर  डॉ.जवाहरलाल नायक का शोध-ग्रन्थ लगभग तीस साल बाद पुस्तक के रूप में सामने आया है .लेखक के अनुसार  चमड़े से ढंके वाद्य-यंत्रों के बारे में शायद अपने किस्म की यह पहली शोध पुस्तक है .. डॉ जवाहर नायक छत्तीसगढ़ में महानदी के किनारे ग्राम लोधिया (जिला -रायगढ़ ) के निवासी हैं. मध्यप्रदेश के जमाने में उस जिले के सरिया क्षेत्र से विधायक भी रह चुके हैं .उनकी पहचान एक कुशल तबला वादक के रूप में भी है .उन्होंने छत्तीसगढ़ के इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से तबले में एम .ए. की उपाधि प्राप्त की है.और इसी विश्वविद्यालय से भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर पी.एच-डी की है. 
      डॉ. नायक के अनुसार चर्म-आच्छादित वाद्यों जैसे तबला , पखावज ,मृदंग खंजरी , डफ ,ढोलक, ,आदि के लिए 'अवनद्ध ' संज्ञा दी गयी है. उन्होंने इस बारे में पुस्तक में अवनद्ध वाद्य  यंत्रों  के बारे में कई विद्वानों की परिभाषाएं भी संकलित की हैं .स्वर्गीय डॉ. लालमणि मिश्र के अनुसार -वे वाद्य जो भीतर से पोले तथा चमड़े से मढ़े हुए होते हैं और हाथ या किसी अन्य वस्तु के ताड़न से ध्वनि या शब्द उत्पन्न करते हैं ,उन्हें 'अवनद्ध ' या ' वितत ' भी कहा गया है. डॉ. जवाहर नायक ने 407 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक मे भारतीय अवनद्ध वाद्यों का वर्गीकरण करते हुए प्राचीन काल के अवनद्ध वाद्यों , मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों और आधुनिक अवनद्ध वाद्यों का दिलचस्प विश्लेषण किया है. सर्वाधिक प्रचलित अवनद्ध वाद्य 'तबला ' पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है.प्रत्येक अवनद्ध वाद्यकी उत्पत्ति, बनावट, निर्माण विधि की जानकारी भी इसमें दी गयी है. 
        शोध-ग्रन्थ नौ अध्यायों में है. विषय प्रवेश के साथ पहले अध्याय में अवनद्ध वाद्य : शब्द व्युत्पत्ति , परिभाषा , अवनद्ध वाद्यों की निर्माण सामग्री , अवनद्ध वाद्यों का महत्व और उत्पत्ति का संक्षिप्त विवेचन है . दूसरे अध्याय में अवनद्ध वाद्यों का वर्गीकरण किया गया है. तीसरे अध्याय में भारत के प्राचीन अवनद्ध  वाद्य यंत्रों का उल्लेख है .इसमें भूमि- दुन्दुभि ,  दुन्दुभि , केतुमत और मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों पर प्रकाश डाला गया है. चौथे अध्याय में संजा , धोंसा , तम्बकी , ढक्का, हुडुक जैसे  मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों पर, पांचवें अध्याय में खंजरी , दफ़ , दुक्कड , दमामा , ढोल  जैसे आधुनिक अवनद्ध वाद्यों पर और छठवें अध्याय में सर्वाधिक प्रचलित अवनद्ध वाद्य 'तबला' पर शोधकर्ता लेखक ने ज्ञानवर्धक जानकारी दी है. सातवें अध्याय में प्रमुख भारतीय अवनद्ध वाद्यों के अनेक प्रसिद्ध वादकों का परिचय दिया गया है .लेखक ने आठवें अध्याय में पाश्चात्य अवनद्ध वाद्यों का विश्लेषण किया है .इसमें लेखक डॉ.नायक की  ये पंक्तियाँ संगीत कला को लेकर उनके व्यापक और प्रगतिशील नज़रिए को प्रकट करती हैं - पाश्चात्य और हिन्दुस्तानी ,इन दो संगीत पद्धतियों के नाम से सभी संगीत रसिक परिचित हैं .दोनों ही संगीत पद्धतियाँ अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं .आज वैज्ञानिक विकास के युग में जब सम्पूर्ण विश्व की दूरी नगण्य -सी हो गई है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सांस्कृतिक उपलब्धियों का पूर्ण सहिष्णुता के आधार पर समाकलन प्रस्तुत करें ,जिससे विस्तृत वसुन्धरा के प्रत्येक कला में स्वाभाविक सामंजस्य स्थापित हो सके .समय की आवाज को यदि आज के परिवेश में सही रूप से पहचाना जाए तो प्रत्येक विचारधारा का निष्कर्ष राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर विश्व-बन्धुता की प्रेरणा प्रदान करता हुआ मिलेगा .
           शोधार्थी डॉ. नायक के अनुसार भारतीय अवनद्ध वाद्यों के स्वतंत्र अध्ययन की दृष्टि से संभवतः यह पहला प्रयास है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ और इंदिरा संगीत एवं कला विश्वविद्यालय के पूर्व उप-कुलपति स्वर्गीय डॉ. अरुण कुमार सेन के मार्ग दर्शन में यह शोध-कार्य पूर्ण किया था . लगभग तीस साल के लंबे अंतराल के बाद वर्ष .2012 में डॉ. नायक की मेहनत पुस्तक के रूप में सामने आयी .उन्हें बहुत-बहुत बधाई. (स्वराज्य करुण )

क्या सपना ही रह जाएगा अपने मकान का सपना ?

Written By Swarajya karun on मंगलवार, 4 नवंबर 2014 | 2:05 pm

           आधुनिक भारतीय समाज में यह आम धारणा है कि इंसान को अपनी कमाई बैंकों में जमा करने के बजाय ज़मीन में निवेश  करना चाहिए . कई लोग ज़मीन खरीदने में पूँजी लगाने को बैंकों में  'फिक्स्ड  डिपौजिट' करने जैसा मानते हैं . यह भी आम धारणा है कि सोना खरीदने से ज्यादा फायदा ज़मीन खरीदी में है . समाज में प्रचलित इन धारणाओं में काफी सच्चाई है, जो साफ़ नज़र आती है .  अपने शहर में किसी ने आज से पचीस साल पहले अगर दो हजार वर्ग फीट जमीन कहीं बीस रूपए प्रति वर्ग फीट के भाव से चालीस हजार रूपए में खरीदी थी तो आज उसकी कीमत चालीस लाख रूपए हो गयी है . पीछे  मुड़कर बहुत दूर तक देखने की जरूरत नहीं है .याद कीजिये तो पाएंगे कि  छोटे और मंझोले शहरों में आज से सिर्फ दस  साल पहले एक हजार  वर्ग फीट वाले जिस मकान की कीमत छह -सात लाख रूपए थी आज वह बढकर पैंतीस-चालीस लाख रूपए की हो गयी है . कई कॉलोनियां ऐसी बन रही हैं ,जहां एक करोड ,दो करोड और पांच-पांच करोड के भी मकान बिक रहे हैं .उन्हें खरीदने वाले कौन लोग हैं और उनकी आमदनी का क्या जरिया है , इसका अगर ईमानदारी से पता लगाया जाए तो काले धन के धंधे वालों के कई चौंकाने वाले रहस्य उजागर होंगे .प्रापर्टी का रेट शायद ऐसे ही लोगों के कारण तेजी से आसमान छूने लगा है . प्रापर्टी डीलिंग का काम करने वाले कुछ बिचौलियों की भी इसमें काफी संदेहास्पद भूमिका हो सकती है .  कॉलोनियां बनाने वालों के लिए यह कानूनी रूप से अनिवार्य है कि वे उनमे दस-पन्दरह प्रतिशत मकान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए भी बनवाएं ,लेकिन अधिकाँश निजी बिल्डर इस क़ानून का पालन नहीं करते और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता .जमीन और मकानों की  कीमतें  इस तरह बेतहाशा बढने के पीछे क्या गणित है ,यह कम से कम मुझ जैसे सामान्य इंसान की समझ से बाहर है ,लेकिन इस रहस्यमय मूल्य वृद्धि की वजह से  गरीबों और सामान्य आर्थिक स्थिति वालों पर जो संकट मंडराने लगा है , वह देश और समाज दोनों के भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है. जब किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति या उसके परिवार को रहने के लिए एक अदद मकान नहीं मिलेगा तो उसके दिल में सामाजिक व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से आक्रोश पैदा होगा .अगर यह आक्रोश सामूहिक रूप से प्रकट होने लगे तो फिर क्या होगा ? सोच कर ही  डर लगता है .

        यह एक ऐसी समस्या है जिस पर सरकार और समाज दोनों को मिलकर विचार करना और कोई रास्ता निकालना चाहिए . रोटी और कपडे का जुगाड तो इंसान किसी तरह कर लेता है ,लेकिन अपने परिवार के लिए मकान खरीदने या बनवाने में उसे पसीना आ जाता है.  खुद का मकान होना सौभाग्य की बात होती है ,लेकिन यह सौभाग्य हर किसी का नहीं होता . खास तौर पर शहरों में यह एक गंभीर समस्या बनती जा रही है . जैसे-जैसे रोजी-रोटी के लिए , सरकारी और प्राइवेट नौकरियों के लिए ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर पलायन हो रहा है , यह समस्या और भी विकराल रूप धारण कर रही है .जहां आज से कुछ साल पहले शहरों में आवासीय भूमि की कीमत पच्चीस-तीस या पचास  रूपए प्रति वर्ग फीट के आस-पास हुआ करती थी ,आज वहाँ  उसका  मूल्य सैकड़ों और हजारों रूपए वर्ग फीट हो गया है . ऐसे में कोई निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार स्वयं के घर का सपना कैसे साकार कर पाएगा ?
        सरकारी हाऊसिंग  एजेंसियां शहरों में लोगों को सस्ते मकान देने का दावा करती हैं ,लेकिन उनकी कीमतें भी इतनी ज्यादा होती हैं कि  उनका मकान  खरीद पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता .इधर निजी क्षेत्र के बिल्डरों की भी  मौज ही मौज है . अगर किसी मकान की प्रति वर्ग फीट निर्माण लागत अधिकतम एक हजार  रूपए प्रति वर्ग फीट हो तो सीधी-सी बात है कि  पांच सौ वर्ग फीट का मकान पांच  लाख रूपए में बन सकता है .लेकिन बिल्डर लोग इसे पन्द्रह -बीस लाख रूपए में बेचते हैं ,यानी निर्माण लागत का तिगुना -चौगुना दाम वसूल करते हैं . ज़ाहिर है कि गरीब या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार के लिए खुद के मकान का सपना आसानी से साकार नहीं हो सकता . ऐसे में सरकार को अलग-अलग आकार के मकानों की  प्रति वर्ग फीट  एक निश्चित निर्माण लागत तय कर देनी  चाहिए ,जो  सरकारी तथा निजी दोनों तरह के बिल्डरों के लिए अनिवार्य हो . शहरों में आवासीय ज़मीन की बेलगाम बढती कीमतों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है . अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश के शहरों में अधिकाँश लोगों के लिए अपने मकान  का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाएगा .(स्वराज्य करुण )

Founder

Founder
Saleem Khan