जीवन की सबसे नाजुक सी भावना होती है, कमेच्छा। यह यूं तो बहुत दबे पांव मन में आती है, लेकिन गाहेबगाहे यह पूरे जीवन की निर्धारिका सी बन जाती है। इससे निपटने के लिए संवेदनशील होना आवश्यक हो जाता है। नतीजों को हर कसौटी पर कसकर सही-सही तय कर पाना कि क्या होगा, कैसे होगा, क्यों होगा, क्या हानि और लाभ हो सकता है, इस बात की ताकत पर कामेच्छाएं वार करती हैं। संवेदनशीलता इन्हीं सब बातों से निपटने के लिए इकलौता दिमागी सॉफ्टवेयर है, जिसके माध्यम से हम सही मायनों में कामेच्छा समेत तमाम असामाजिक बातों से बच सकते हैं। संवेदनशीलता को बनाए रखने और इसे और उन्नतशील बनाने के लिए क्या होना चाहिए, इस बात के लिए क्या करना श्रेयष्कर हो सकता है। बेलगाम घोड़े पर सवारी जितनी कठिन होती है, उतना ही कठिन कामेच्छाओं से भरपूर असंवेदनशील मन होता है। काम को जीवन से बेदखल नहीं किया जा सकता, न ही ऐसी किसी भी अंसतुलित भाव विचार या संभावनाओं को ही नकारा जा सकता है। मगर इसे संयमित जरूर किया जाना चाहिए। काम के विभिन्न अंगों में गंवारपन, स्वार्थ, बेईमानी, अच्छे और बुरे के बीच की बड़ी भारी फर्क लाइन आदि ऐसी चीजें हैं, जो मानव के सभ्य समाज को दूषित बनाती हैं। मगर क्या काम को संयमित करने के लिए संवेदनशीलता के अतिरिक्त भी कुछ है, चूंकि संवेदनशीलता मन की गहराइयों में छिपे वह तत्व हैं, जो अध्यात्म, चरित्र, विचार, व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, नैतिकता, विवेक, चेतना, प्रज्ञा, विधि, संयम और नियंत्रित इच्छाओं की कई सारी परतों से मिलकर बनी होती है। संवेदनशीलता में मजबूती प्रदान करने वाले अवयवों में परिवार और परिजन हैं, इसके बाद बारी आती है दोस्तों, लगाव और कोई काम करने के अपने अभीष्ट की। संवेदनशीलता में लगातार ह्रास होता है, जब मनुष्य एकाकी होता जाता है और उसके जीवन में एकांत और सफलताओं से होकर हवाएं चलती हैं। इनका असर कुछ यूं होता है कि वह या तो इस एकाकी को अध्यात्म बना ले या फिर स्वयं को नष्ट कर दे। चरित्र हारने वाले लोगों को लाख विद्वान, गुणी, विचारवान और संस्कारवान होते हुए भी अच्छा नहीं माना जाता है। चूंकि चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत है, जो मनुष्यों के बीच भरोसा पैदा करता है। जानवरों में समान जाति के प्रति प्रेम, संवाद और कुछ भावनाएं मिल सकती हंैं, किंतु भरोसा नहीं। मनुष्य में यह पाया जाता है, और इसका निर्माण होता है अच्छे चरित्र से। चरित्रहीन व्यक्ति अपनी बड़ी ऊर्जा को या तो इस पर काबू पाने में या इसकी पूर्ति में लगा देता है।
कुछ इस तरह की बातों के बीच लगातार एक ही प्रश्न तैरता है।
१. काम पर काबू पाने के लिए क्या किया जाए?
इसके उत्तर की तलाश में हम पहले तो काम की पृष्ठभूमि को जान लें, फिर इसकी संभावनाओं और प्रेरणाओं को जानें, फिर कारणों और कारकों पर बात करें और अंत में इनके समाधान पर। काम मनुष्य ही नहीं संपूर्ण जगत के प्राणियों की सहज प्राकृतिक इच्छा है। यह स्वयं ही एक तरह की संवेदनशीलता है। यह मनुष्य समेत सभी जीवों में दो रूपों में पाई जाती है, एक अनियंत्रित और दूसरी नियंत्रित। मनुष्यों में ईश्वर ने ऐसी सामाजिक, पारिवारिक और व्यस्था का तानाबाना दिया है, जो नियंत्रित कामेच्छा की जरूरत को पैदा करता है। जबकि शेष में अनियंत्रित प्राकृतिक योनाकांक्षाएं पाई जाती हैं। मनुष्य को इसे कभी अपनी कमजोरी नहीं बल्कि एक संपत्ति के रूप में देखना चाहिए। इसके सही, नियमित, संयमित, कानून सम्मत और सही दिशा व दशा देने वाले बिंदुओं से बांधकर खर्चना चाहिए। यह तो बात हुई काम की पृष्ठभूमि की, अब हम बात करें इसकी संभावनाओं और प्रेरणाओं की तो यह दोनों ही एक दूसरे की अनुपूरक हैं, मार्केट बहुत बड़ा व्याध है। इसमें तमाम कामेच्छा जगाने वाले माध्यम हैं, तो ऐसे में प्रेरणाओं और संभावनाओं से नहीं बचा जा सकता है, हां चिंतन निरंतर करके इससे बचा जा सकता है। यानी इन प्रेरणाओं और संभावनाओं से बचने का सही तरीका एक ही है कि हम चिंतन करें। इसके कारणों को यथासंभव न पनपने दें। इसके समाधान क्या और क्या हो सकते हैं।
१. अध्यात्म की शरण- 2. चिंतन निरंतर. 3. पारिवारिक परिवेश. 4. सामाजिक, जिम्मेदारना पेशा. 5. स्थान, समय, कर्मक्षेत्र से अटूट लगाव. 6. विवेक और चेतना की संप्रभूता. 7. बुद्धिमानी. 8. अध्ययन. 9. भय. 10. ईमानदारी.
11:22 pm
नाजुक सी भावना
Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शनिवार, 31 मार्च 2012 | 11:22 pm
7:50 pm
DR. ANWER JAMAL
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9:14 pm
नूर नासूर बन गया
Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शुक्रवार, 30 मार्च 2012 | 9:14 pm
लड़कियों का नूर नासूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
काम आता नहीं, मेल चेक करना तक
कतार में हैं बॉस से अदने चाकर तक
सैलरी उठातीं इन बालाओं का सुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
टाइम जो जी में आया आ गईं
लंच हुआ तो पेल-पेल के खा गईं
आंसुओं को कह ही रखा है
लगे तुम्हे जरा भी ठेस चले आना
चश्में से झांकती आंखों का गुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
लिपस्टिक्स, लाली, गुलाली, फाउंडेशन
चूड़ी कंगन, बेंदी, वॉव, सरप्राइज में मुंह खुला
शैंपू, साड़ी, चप्पल, रंग, रोगन
परफ्यू सा बातों में घुला
काम कहां, किसे करना है
बॉस टैंपरेरी झूठा ही सही हुजूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
खैर है सरकारी, जहां यह तो नहीं हैं
मगर स्वेटर न जाने कितनी बुनी हैं
ऊन के भाव बैठ वित्त विभाग में बताएं
डंडे के पीले कलर पर पुलिस में आपत्ति जताएं
लाल कर दो प्यार होगा,
काम होगा, मुजरिमों का दीदार होगा
वुमन हरासमेंट सेल में सुबकना जरूर बन गया
हर दफ्तरान का यह दस्तूर बन गया
- सखाजी
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
काम आता नहीं, मेल चेक करना तक
कतार में हैं बॉस से अदने चाकर तक
सैलरी उठातीं इन बालाओं का सुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
टाइम जो जी में आया आ गईं
लंच हुआ तो पेल-पेल के खा गईं
आंसुओं को कह ही रखा है
लगे तुम्हे जरा भी ठेस चले आना
चश्में से झांकती आंखों का गुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
लिपस्टिक्स, लाली, गुलाली, फाउंडेशन
चूड़ी कंगन, बेंदी, वॉव, सरप्राइज में मुंह खुला
शैंपू, साड़ी, चप्पल, रंग, रोगन
परफ्यू सा बातों में घुला
काम कहां, किसे करना है
बॉस टैंपरेरी झूठा ही सही हुजूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
खैर है सरकारी, जहां यह तो नहीं हैं
मगर स्वेटर न जाने कितनी बुनी हैं
ऊन के भाव बैठ वित्त विभाग में बताएं
डंडे के पीले कलर पर पुलिस में आपत्ति जताएं
लाल कर दो प्यार होगा,
काम होगा, मुजरिमों का दीदार होगा
वुमन हरासमेंट सेल में सुबकना जरूर बन गया
हर दफ्तरान का यह दस्तूर बन गया
- सखाजी
7:52 pm
बादशाह अपना हो तो फिर चिंता किस बात की है ?
सच्चे बादशाह से बातें कीजिए God hears.
रूह में रब का नाम नक्श है।
रूह सबकी एक ही है।
जो भी पैदा होता है, उसी एक रूह का नूर लेकर पैदा होता है।
रूह क्या है ?
रब की सिफ़ाते कामिला का अक्स (सुंदर गुणों का प्रतिबिंब) है।
सिफ़ाते कामिला को ज़ाहिर करने वाले बहुत से नाम हैं।
रब का हरेक नाम रूह को ताक़त देता है। रब का नाम रूहानी ताक़त का ख़ज़ाना है।
रब का नाम दिल का सुकून है।
खड़े बैठे या लेटे कैसे भी उसका नाम लो, दिल को सुकून मिलता है।
जहां तुम हो, वहीं तुम्हारी रूह है और तुम्हारा रब भी वहीं है।
रब की मौजूदगी को महसूस कीजिए।
अपने अहसास को थोड़ा थोड़ा करके गहरा करते जाइये।
अपने रब से बातें कीजिए, उसके साथ हंसिए बोलिए।
उसके साथ अपने सुख दुख शेयर कीजिए, जैसे कि आप अपने मां बाप और दोस्त से शेयर करते हैं।
आप जो भी कहते हैं, वह उसे सुनता है।
यक़ीन कीजिए, आपको उससे बातें करके अच्छा लगेगा।
वह आपकी बातों का आपको जवाब भी देगा।
वह आपकी बातों का जवाब बहुत तरह से देता है, आज भी दे रहा है लेकिन आपका ध्यान उसकी तरफ़ नहीं है इसलिए आप यह जान ही नहीं पाते कि उसने आपकी किस बात पर किस तरह रिएक्ट किया है ?
आप जो कुछ सुनते हैं, उसे रब से जोड़कर सुनिए, उनमें आपको जवाब मिलेगा।
जो कुछ आप देखते हैं, उसे रब से जोड़कर देखिए, वे चीज़ें आपको रब की तरफ़ से संकेत देंगी।
जिन धार्मिक ग्रंथों को आप पढ़ते हैं, उन पर ध्यान दीजिए, आपको वहां अपनी बात का जवाब मिलेगा।
जैसे जैसे आपकी प्रैक्टिस बढ़ती जाएगी, आप ख़ुदा के इशारों को बेहतर तरीक़े से समझने लगेंगे।
रब से बात करेंगे तो आपको वह हमेशा अपने साथ ही महसूस होगा।
इससे आपके टेंशन्स दूर होंगे, आपको सुकून मिलेगा।
आप जिस रब से बात कर रहे हैं, वह इस कायनात का बादशाह है और बादशाह से बात करना अपने आप में ही एक गौरव की बात है।
कायनात का बादशाह आपको हमेशा अवेलेबल है।
बादशाह अपना हो तो फिर चिंता किस बात की है ?
बस हम बादशाह के हो जाएं।
रूह सबकी एक ही है।
जो भी पैदा होता है, उसी एक रूह का नूर लेकर पैदा होता है।
रूह क्या है ?
रब की सिफ़ाते कामिला का अक्स (सुंदर गुणों का प्रतिबिंब) है।
सिफ़ाते कामिला को ज़ाहिर करने वाले बहुत से नाम हैं।
रब का हरेक नाम रूह को ताक़त देता है। रब का नाम रूहानी ताक़त का ख़ज़ाना है।
रब का नाम दिल का सुकून है।
खड़े बैठे या लेटे कैसे भी उसका नाम लो, दिल को सुकून मिलता है।
जहां तुम हो, वहीं तुम्हारी रूह है और तुम्हारा रब भी वहीं है।
रब की मौजूदगी को महसूस कीजिए।
अपने अहसास को थोड़ा थोड़ा करके गहरा करते जाइये।
अपने रब से बातें कीजिए, उसके साथ हंसिए बोलिए।
उसके साथ अपने सुख दुख शेयर कीजिए, जैसे कि आप अपने मां बाप और दोस्त से शेयर करते हैं।
आप जो भी कहते हैं, वह उसे सुनता है।
यक़ीन कीजिए, आपको उससे बातें करके अच्छा लगेगा।
वह आपकी बातों का आपको जवाब भी देगा।
वह आपकी बातों का जवाब बहुत तरह से देता है, आज भी दे रहा है लेकिन आपका ध्यान उसकी तरफ़ नहीं है इसलिए आप यह जान ही नहीं पाते कि उसने आपकी किस बात पर किस तरह रिएक्ट किया है ?
आप जो कुछ सुनते हैं, उसे रब से जोड़कर सुनिए, उनमें आपको जवाब मिलेगा।
जो कुछ आप देखते हैं, उसे रब से जोड़कर देखिए, वे चीज़ें आपको रब की तरफ़ से संकेत देंगी।
जिन धार्मिक ग्रंथों को आप पढ़ते हैं, उन पर ध्यान दीजिए, आपको वहां अपनी बात का जवाब मिलेगा।
जैसे जैसे आपकी प्रैक्टिस बढ़ती जाएगी, आप ख़ुदा के इशारों को बेहतर तरीक़े से समझने लगेंगे।
रब से बात करेंगे तो आपको वह हमेशा अपने साथ ही महसूस होगा।
इससे आपके टेंशन्स दूर होंगे, आपको सुकून मिलेगा।
आप जिस रब से बात कर रहे हैं, वह इस कायनात का बादशाह है और बादशाह से बात करना अपने आप में ही एक गौरव की बात है।
कायनात का बादशाह आपको हमेशा अवेलेबल है।
बादशाह अपना हो तो फिर चिंता किस बात की है ?
बस हम बादशाह के हो जाएं।
5:16 pm
---देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: खता क्या है मेरी इतना बता दे:
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ग़ज़लगंगा.dg: खता क्या है मेरी इतना बता दे
खता क्या है मेरी इतना बता दे.
फिर इसके बाद जो चाहे सजा दे.
अगर जिन्दा हूं तो जीने दे मुझको
अगर मुर्दा हूं तो कांधा लगा दे.
हरेक जानिब है चट्टानों का घेरा
निकलने का कोई तो रास्ता दे.
न शोहरत चाहिए मुझको न दौलत
मेरा हासिल है क्या मुझको बता दे.
अब अपने दिल के दरवाज़े लगाकर
हमारे नाम की तख्ती हटा दे.
जरा आगे निकल आने दे मुझको
मेरी रफ़्तार थोड़ी सी बढ़ा दे.
ठिकाना चाहिए हमको भी गौतम
ज़मीं गर वो नहीं देता, खला दे.
ठिकाना चाहिए हमको भी गौतम
ज़मीं गर वो नहीं देता, खला दे.
ग़ज़लगंगा.dg: खता क्या है मेरी इतना बता दे:
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12:14 pm
कम से कम बची तो है जान....
Written By Barun Sakhajee Shrivastav on गुरुवार, 29 मार्च 2012 | 12:14 pm
संसार के जंगल में रोज जाती है वो
गठरी मजबूरियों के भर-भर लाती है वो
चूल्हा धधकता तभी है पेट का
चुन-चुन बूंद जिंदगी को बुझाती हो वो
ओहदे, चेहरे, नाम, धर्म सबने कहा
चंद दिनों का और मुफलिसी का जीवन रहा
पर, मगर, सदियां बीत गईं सुनते-सुनते यही
अब तो बात बस उसके नहीं रही
बसें तो नहीं पर बस्तर पहुंचे लक्कड़. लोहा,
मिट्टी, गिट्टी, रेती, पानी, हवा,
पत्ते, पौधे, यहां तक कि जिंदगियों को चोर
मैना, कोयल, कूक, शाल, बीज
दशहरा, सल्फी, शहद, और मसूली भी
छोड़ हटरी उसकी बिक रही देश में चारो ओर
सियासत आती कहने मत रखो फूल पर
दुनियावी नाइंसाफियां भूलकर
रमन, रहनुमा है तुम्हारा
क्या नहीं जानते यह एहसान हमारा
छोड़ दो संस्कृति, संसार, मनाओ खैर कि
कम से कम बची तो है जान...
-सखाजी
गठरी मजबूरियों के भर-भर लाती है वो
चूल्हा धधकता तभी है पेट का
चुन-चुन बूंद जिंदगी को बुझाती हो वो
ओहदे, चेहरे, नाम, धर्म सबने कहा
चंद दिनों का और मुफलिसी का जीवन रहा
पर, मगर, सदियां बीत गईं सुनते-सुनते यही
अब तो बात बस उसके नहीं रही
बसें तो नहीं पर बस्तर पहुंचे लक्कड़. लोहा,
मिट्टी, गिट्टी, रेती, पानी, हवा,
पत्ते, पौधे, यहां तक कि जिंदगियों को चोर
मैना, कोयल, कूक, शाल, बीज
दशहरा, सल्फी, शहद, और मसूली भी
छोड़ हटरी उसकी बिक रही देश में चारो ओर
सियासत आती कहने मत रखो फूल पर
दुनियावी नाइंसाफियां भूलकर
रमन, रहनुमा है तुम्हारा
क्या नहीं जानते यह एहसान हमारा
छोड़ दो संस्कृति, संसार, मनाओ खैर कि
कम से कम बची तो है जान...
-सखाजी
9:27 am
मिलिये राहुल गाँधी जी से !
यूं तो राहुल गाँधी जी का जीवन एक खुली किताब की तरह है .स्व .श्री राजीव गाँधी जी व् सोनिया गाँधी जी के सुपुत्र राहुल जी का जन्म 19 जून १९७० को नईदिल्ली में हुआ .राहुल जी ने ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी [ यूं..के. ]से डेवलपमेंट इकोनोमिक्स में एम् .फिल की डिग्री हासिल की है .राहुल जी की - प्राथमिक शिक्षा के उन्नतिकरण ,समाज के दलित व् अन्य शोषित वर्गों के सशक्तिकरण से सम्बंधित मुद्दों में,अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों- आदि में विशेष रुचि है .खेलों में राहुल जी को-Scuba diving , swimming , cycling , playing squash में विशेष दिलचस्पी है .इतिहास ,समाज शास्त्र,अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध ,विकास,प्रबंधन व् जीवनी आदि विषयों को पढना उन्हें भाता है व् शतरंज व् flying उनके प्रिय समय व्यतीत करने के साधन है . अब तक वे निम्न पदों को सुशोभित कर चुके हैं -
मिलिये राहुल गाँधी जी से !
मिलिये राहुल गाँधी जी से !
shri rahul gandhi [facebook se sabhar ] |
यूं तो राहुल गाँधी जी का जीवन एक खुली किताब की तरह है .स्व .श्री राजीव गाँधी जी व् सोनिया गाँधी जी के सुपुत्र राहुल जी का जन्म 19 जून १९७० को नईदिल्ली में हुआ .राहुल जी ने ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी [ यूं..के. ]से डेवलपमेंट इकोनोमिक्स में एम् .फिल की डिग्री हासिल की है .राहुल जी की - प्राथमिक शिक्षा के उन्नतिकरण ,समाज के दलित व् अन्य शोषित वर्गों के सशक्तिकरण से सम्बंधित मुद्दों में,अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों- आदि में विशेष रुचि है .खेलों में राहुल जी को-Scuba diving , swimming , cycling , playing squash में विशेष दिलचस्पी है .इतिहास ,समाज शास्त्र,अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध ,विकास,प्रबंधन व् जीवनी आदि विषयों को पढना उन्हें भाता है व् शतरंज व् flying उनके प्रिय समय व्यतीत करने के साधन है . अब तक वे निम्न पदों को सुशोभित कर चुके हैं -
Positions Held | |
2004 | Elected, to 14th Lok Sabha |
Member, Committee on Home Affairs | |
5 Aug. 2006 | Member, Committee on Home Affairs |
5 Aug. 2007 onwards | Member, Committee on Human Resource Development |
2009 | Re-elected to 15th Lok Sabha (2nd ter |
31 Aug. 2009 | Member, Committee on Human Resource Development |
एक लोकसभा सदस्य के रूप में राहुल जी का परिचय इस प्रकार है --'' Details of MemberParticularsDescriptionNameShri Rahul GandhiConstituency from which I am electedAmethiState from which I am electedUttar PradeshPolitical party nameIndian National CongressPresent Address12, Tughlak Lane,New Delhi - 110 011Tels. (011) 23795161 Fax. (011) 23012410Permanent Address12, Tughlak Lane,New Delhi - 110 011Tels. (011) 23795161 Fax. (011) 23012410''[india.gov.in से sabhar ]
ये तो हुई राहुल जी के विषय में वे जानकारियां जो सबको दिखाई देती हैं पर आज मैं यहाँ उनकी उन विशेषताओं का उल्लेख भी करना चाहूंगी जिन्हें केवल हम तभी देख सकते हैं जब हम राजनैतिक रूप से निष्पक्ष होकर देखें .१४ वर्ष की किशोर आयु में अपनी दादी की नृशंस हत्या का हादसा झेलने वाले राहुल जी के धैर्य की कड़ी परीक्षा लेने में क्रूर प्रकृति ने कोई दया नहीं की .२१ मई १९९१ की रात को जब उनके स्नेही पिता राजीव जी की एक बम विस्फोट में नृशंस हत्या की गयी तब वे भारत में नहीं थे .जिसने भी अपने किसी प्रिय परिवारीजन को हादसे में खोया होगा वह उस समय के उनके हालात...मानसिक अवस्था को सहज ही महसूस कर सकता है .किस तरह २१ वर्षीय उस युवा राहुल ने झेला होगा यह हादसा !........आज जब स्वामी सुब्रमण्यम जैसे तथाकथित ज्ञानी राहुल जी को ''बुद्धू'' कहकर उनकी खिल्ली उड़ाने का प्रयास करते हैं ..वे भूल जाते हैं हमारे राहुल जी चट्टानी- कड़ाई जैसी मानसिक सबलता रखते हैं .दादी व् पिता को हादसों में खो देने के बावजूद वे स्वयं जन सेवा हेतु राजनीति में आये और सन 2004 से निरंतर जनसेवा में लगे हुए हैं .....बिना किसी पद के लालच के .
राहुल जी द्वारा किये जाने वाले जनसंपर्क को ''नाटक ''का नाम देने वाले ये भूल जाते हैं कि-राहुल जी इन आक्षेपों से घबराते नहीं है .वे ऐसे कुत्सित बयां देने वालों को चुनौती देते हुए ठीक ही तो कहते हैं-''यदि ये नाटक है तो ये चलता रहेगा ''.उत्तर प्रदेश में मिले जनादेश को भी उन्होंने बड़ी शालीनता के साथ स्वीकार किया पर मीडिया ने राहुल जी की आलोचना को ही स्थान दिया ...उनकी मेहनत को नहीं.
गरिमामयी व् आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी राहुल जी से यदि आप कभी मिले तो ये अवश्य पूछियेगा कि ''आखिर वे इतने अनर्गल आक्षेपों को ..........कटु आलोचनाओं को .... को कैसे सह जाते हैं? .विपरीत परिस्थितियों में इतने शालीन कैसे रह पाते हैं ?
3:44 pm
चटकनी
Written By kavisudhirchakra.blogspot.com on मंगलवार, 27 मार्च 2012 | 3:44 pm
(कवि सुधीर गुप्ता "चक्र" कविता)
दरवाजे
हर रोज
अनगिनत बार
चौखट से गले मिलते हैं
साक्षी हैं कब्जे
इस बात के
जो
सौगंध खा चुके हैं
दोनों को मिलाते रहने की
जंग लगने पर
कमजोर हो जाते हैं कब्जे
और
चर्र-चर्र.....
आवाज करते हुए
कराहते हैं दर्द से
फिर भी
निःस्वार्थ भाव से
दोनों को मिलाते रहने का क्रम
जारी रखते हैं
जलते हैं तो
गिट्टक और स्टॉपर
मिलन के अवरोधक बनकर
कहने को अपने हैं
सहयोग करती है
हवा
अपनी सामर्थ्य के अनुसार
ललकारती भी है
और
चौखट से दरवाजे का
मिलन हो न हो
जारी रखती है प्रयास
उससे भी महान है
चटकनी
जो
ढूँढती है मौका
दोनों के प्रणय मिलन का
और
खुद बंद होकर
घंटों मिला देती है दोनों को।
1:13 pm
संबंधों कि परिभाषाएं ,........
Written By हरीश भट्ट on शनिवार, 24 मार्च 2012 | 1:13 pm
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
मित्र तुम्हारी कामनाएं.. फर्जी सी लगती हैं अब तो !!
बेमन कि ये प्रार्थनाएं,. अब मुझको रास नहीं आती !
प्रिय तुम्हारा प्रेम पत्र भी अर्जी सी लगती हैं अब तो !!
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
रिश्तों में अपनत्व कहाँ अब पहले सा अधिकार कहाँ !
तिनकों सा बिखरा बिखरा हैं संबल और आधार कहाँ !!
दोमुहेपन कि ये बातें अब अंतस विचलित कर जाती हैं !
शत्रु ह्रदय भी विजय करे जो अब ऐसा व्यवहार कहाँ !!
करुण दया का भाव भी खुदगर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
राग और विद्वेष की भाषा प्रियवाचन पर प्रथ्मांकित हैं !
ह्रदय शूल से वेधित हैं और चित्त भी भय से शंकित हैं !!
मित्र तुम्हारे बाहुपाश में, अपनापन अब निस्तेज हुआ !
कृतिघ्न्ताओं से भरी शिराएँ...धवल रक्त से रंजित हैं !!
कभी जो थी सहयोगितायें मनमर्जी सी लगती हैं अब तो!
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
अविरल संबंधों कि पूँजी को क्या पल भर मैं ठुकरा दोगे !
अतरंग क्षणों के प्रतिवेदन, क्या तत्क्षण ही बिखरा दोगे !!
पलभर का भी विचलन तुमको प्रिय कभी स्वीकार नथा !
अब कैसा ब्रजपात की मुझको ह्रदय से ही बिसरा दोगे !!
साधारण नयनों की भाषा अपवर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
मित्र तुम्हारी कामनाएं.. फर्जी सी लगती हैं अब तो !!
बेमन कि ये प्रार्थनाएं,. अब मुझको रास नहीं आती !
प्रिय तुम्हारा प्रेम पत्र भी अर्जी सी लगती हैं अब तो !!
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !
रिश्तों में अपनत्व कहाँ अब पहले सा अधिकार कहाँ !
तिनकों सा बिखरा बिखरा हैं संबल और आधार कहाँ !!
दोमुहेपन कि ये बातें अब अंतस विचलित कर जाती हैं !
शत्रु ह्रदय भी विजय करे जो अब ऐसा व्यवहार कहाँ !!
करुण दया का भाव भी खुदगर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
राग और विद्वेष की भाषा प्रियवाचन पर प्रथ्मांकित हैं !
ह्रदय शूल से वेधित हैं और चित्त भी भय से शंकित हैं !!
मित्र तुम्हारे बाहुपाश में, अपनापन अब निस्तेज हुआ !
कृतिघ्न्ताओं से भरी शिराएँ...धवल रक्त से रंजित हैं !!
कभी जो थी सहयोगितायें मनमर्जी सी लगती हैं अब तो!
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
अविरल संबंधों कि पूँजी को क्या पल भर मैं ठुकरा दोगे !
अतरंग क्षणों के प्रतिवेदन, क्या तत्क्षण ही बिखरा दोगे !!
पलभर का भी विचलन तुमको प्रिय कभी स्वीकार नथा !
अब कैसा ब्रजपात की मुझको ह्रदय से ही बिसरा दोगे !!
साधारण नयनों की भाषा अपवर्जी सी लगती हैं अब तो !
संबंधों कि परिभाषाएं कुछ रस्मी सी लगती हैं अब तो !!
8:30 pm
आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर लाखों श्रद्धालुओं की आस्था के केन्द्र हैं। बेवजह उनके प्रति असम्मान का भाव होने का सवाल ही नहीं उठता। मगर हाल ही उन्होंने एक ऐसा बयान दे दिया कि यकायक विवादास्पद हो गए। जब शिक्षक और सामाजिक संगठनों के अलावा जनप्रतिनिधियों ने उनके बयान को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है, राजस्थान भर में में कई जगह श्रीश्री के पुतले फूंके गए और जयपुर में सांगानेर न्यायिक मजिस्ट्रेट कोर्ट में उनके खिलाफ इस्तगासा भी दायर किया गया, तो उन्हें सफाई देनी पड़ गई कि हम इतने मूर्ख भी नहीं जो ऐसा बयान दें। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तो उनके बयान पर हैरानी जताते हुए कहा कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति संतुलित मस्तिष्क से ऐसी कोई बात कह सकता है। इस पर श्रीश्री ने दी सफाई मानसिक संतुलन बिगडऩे की बात कहने वाले मेरे बयान को दोबारा पढ़ें। हमने ये नक्सली क्षेत्रों के लिए कहा था। वहां कुछ रुग्ण विद्यालय हैं। उन विद्यालयों के निजीकरण पर मैंने जोर दिया है। मैं बहुत सोच-समझ कर बोलता हूं। हम इतने मूर्ख नहीं जो यह कहें कि सारे सरकारी स्कूलों में नक्सलवाद पैदा हो रहा है। श्रीश्री ने कहा कि जो क्षेत्र नक्सलवाद से ग्रस्त हैं, वहां सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे अक्सर हिंसा से ग्रस्त पाए गए हैं। पूर्वांचल और यूपी के क्षेत्रों में ऐसा पाया गया। अच्छा है राजस्थान में नक्सली प्रभाव नहीं है।
श्रीश्री की सफाई से यह स्पष्ट है कि वे सही बात गलत जगह कह गए। राजस्थान में जब नक्सलवाद नाम की कोई चिडिय़ा है ही नहीं तो यहां नक्सल प्रभावित इलाकों की समस्या का जिक्र सार्वदेशिक रूप से करने पर तो हंगामा होना ही था। इतना पक्का है कि वे इतने भी मूर्ख नहीं कि देश की सारी सरकारी स्कूलों के बारे में ऐसा कह दें, मगर इतने समझदार तो हैं ही कि कौन सी बात कहां पर कहनी है। माना कि वे दीन दुनिया से दूर हैं और यह संतों की मौज है कि वे समाज के भले के लिए कुछ भी कह दें, मगर उन्हें अब तो समझ में आ ही गया होगा कि संदर्भहीन बात करना कितना भारी पड़ जाता है। बात न बात, बेबात का बतंगड़ हो गया।
वैसे एक बात है श्रीश्री का बयान में कुछ ज्यादा की अतिरेक हो गया, मगर यह भी कम सच नहीं कि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई इतनी लचर हो गई है कि औरों की छोडिय़े खुद सरकारी स्कूलों के अध्यापकों तक के बच्चे महंगी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। उन्हें पता है कि उनके हमपेशा शिक्षक क्या पढ़ा रहे हैं। हालत ये है कि सरकारी स्कूल में बच्चे को वही पढ़ाता है, जो या तो गरीब है और या फिर जिसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की कोई फिक्र नहीं। श्रीश्री रविशंकर के बयान पर तुरंत प्रतिक्रिया कर बवाल मचाने वाले शिक्षा कर्मियों के पास क्या इस बात का जवाब है कि बोर्ड परीक्षाओं व प्रतियोगी परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे फिसड्डी क्यों रह जाते हैं? हम भले की सरकारी स्कूलों के इन्फ्रास्ट्रक्चर की महत्ता जताने के लिए यह कह दें कि इनसे कई नेता, विद्वान, बड़े व्यापारी भी निकलते हैं, मगर सच यही है कि जब कभी किसी सरकारी स्कूल का बच्चा बोर्ड की मेरिट में स्थान पाता है तो वह उल्लेखनीय खबर बन जाती है। स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जाता। चूंकि सरकार स्कूलों के शिक्षक संगठित हैं, इस कारण उन्होंने तौहीन होने पर तुरंत बवाल खड़ा कर दिया, मगर तब तौहीन नहीं लगती, जब अपने बच्चों को हरसंभव प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की कोशिश करते हैं।
बहरहाल, जब सरकारी स्कूलों की बात चलती है तो वहां के हालात यकायक स्मृति में आ ही जाते हैं। स्कूलों की ही क्यों सरकारी नौकरी के कुछ और ही मजे हैं। इस बात पर एक एसएमएस याद आ गया। हमारे यहां सरकारी नौकरी का अजीबोगरीब हाल है। लोग अपने बच्चों को पढ़ाएंगे प्राइवेट स्कूल में, इलाज करवाएंगे प्राइवेट अस्पताल में, मगर नौकरी करेंगे सरकारी। सवाल उठता है क्यों? जवाब आपको पता ही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
श्रीश्री इतने तो समझदार हैं ही कि कौन सी बात कहां कहनी है
Written By तेजवानी गिरधर on गुरुवार, 22 मार्च 2012 | 8:30 pm
आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर लाखों श्रद्धालुओं की आस्था के केन्द्र हैं। बेवजह उनके प्रति असम्मान का भाव होने का सवाल ही नहीं उठता। मगर हाल ही उन्होंने एक ऐसा बयान दे दिया कि यकायक विवादास्पद हो गए। जब शिक्षक और सामाजिक संगठनों के अलावा जनप्रतिनिधियों ने उनके बयान को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है, राजस्थान भर में में कई जगह श्रीश्री के पुतले फूंके गए और जयपुर में सांगानेर न्यायिक मजिस्ट्रेट कोर्ट में उनके खिलाफ इस्तगासा भी दायर किया गया, तो उन्हें सफाई देनी पड़ गई कि हम इतने मूर्ख भी नहीं जो ऐसा बयान दें। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तो उनके बयान पर हैरानी जताते हुए कहा कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति संतुलित मस्तिष्क से ऐसी कोई बात कह सकता है। इस पर श्रीश्री ने दी सफाई मानसिक संतुलन बिगडऩे की बात कहने वाले मेरे बयान को दोबारा पढ़ें। हमने ये नक्सली क्षेत्रों के लिए कहा था। वहां कुछ रुग्ण विद्यालय हैं। उन विद्यालयों के निजीकरण पर मैंने जोर दिया है। मैं बहुत सोच-समझ कर बोलता हूं। हम इतने मूर्ख नहीं जो यह कहें कि सारे सरकारी स्कूलों में नक्सलवाद पैदा हो रहा है। श्रीश्री ने कहा कि जो क्षेत्र नक्सलवाद से ग्रस्त हैं, वहां सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे अक्सर हिंसा से ग्रस्त पाए गए हैं। पूर्वांचल और यूपी के क्षेत्रों में ऐसा पाया गया। अच्छा है राजस्थान में नक्सली प्रभाव नहीं है।
श्रीश्री की सफाई से यह स्पष्ट है कि वे सही बात गलत जगह कह गए। राजस्थान में जब नक्सलवाद नाम की कोई चिडिय़ा है ही नहीं तो यहां नक्सल प्रभावित इलाकों की समस्या का जिक्र सार्वदेशिक रूप से करने पर तो हंगामा होना ही था। इतना पक्का है कि वे इतने भी मूर्ख नहीं कि देश की सारी सरकारी स्कूलों के बारे में ऐसा कह दें, मगर इतने समझदार तो हैं ही कि कौन सी बात कहां पर कहनी है। माना कि वे दीन दुनिया से दूर हैं और यह संतों की मौज है कि वे समाज के भले के लिए कुछ भी कह दें, मगर उन्हें अब तो समझ में आ ही गया होगा कि संदर्भहीन बात करना कितना भारी पड़ जाता है। बात न बात, बेबात का बतंगड़ हो गया।
वैसे एक बात है श्रीश्री का बयान में कुछ ज्यादा की अतिरेक हो गया, मगर यह भी कम सच नहीं कि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई इतनी लचर हो गई है कि औरों की छोडिय़े खुद सरकारी स्कूलों के अध्यापकों तक के बच्चे महंगी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। उन्हें पता है कि उनके हमपेशा शिक्षक क्या पढ़ा रहे हैं। हालत ये है कि सरकारी स्कूल में बच्चे को वही पढ़ाता है, जो या तो गरीब है और या फिर जिसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की कोई फिक्र नहीं। श्रीश्री रविशंकर के बयान पर तुरंत प्रतिक्रिया कर बवाल मचाने वाले शिक्षा कर्मियों के पास क्या इस बात का जवाब है कि बोर्ड परीक्षाओं व प्रतियोगी परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे फिसड्डी क्यों रह जाते हैं? हम भले की सरकारी स्कूलों के इन्फ्रास्ट्रक्चर की महत्ता जताने के लिए यह कह दें कि इनसे कई नेता, विद्वान, बड़े व्यापारी भी निकलते हैं, मगर सच यही है कि जब कभी किसी सरकारी स्कूल का बच्चा बोर्ड की मेरिट में स्थान पाता है तो वह उल्लेखनीय खबर बन जाती है। स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जाता। चूंकि सरकार स्कूलों के शिक्षक संगठित हैं, इस कारण उन्होंने तौहीन होने पर तुरंत बवाल खड़ा कर दिया, मगर तब तौहीन नहीं लगती, जब अपने बच्चों को हरसंभव प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की कोशिश करते हैं।
बहरहाल, जब सरकारी स्कूलों की बात चलती है तो वहां के हालात यकायक स्मृति में आ ही जाते हैं। स्कूलों की ही क्यों सरकारी नौकरी के कुछ और ही मजे हैं। इस बात पर एक एसएमएस याद आ गया। हमारे यहां सरकारी नौकरी का अजीबोगरीब हाल है। लोग अपने बच्चों को पढ़ाएंगे प्राइवेट स्कूल में, इलाज करवाएंगे प्राइवेट अस्पताल में, मगर नौकरी करेंगे सरकारी। सवाल उठता है क्यों? जवाब आपको पता ही है।
-तेजवानी गिरधर
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6:57 pm
हालांकि उत्तर प्रदेश में भाजपा की ओर से चुनावी कमान उमा भारती को सौंपने का राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का निर्णय कारगर नहीं रहा, उसके बावजूद संघ अब भी यही चाहता है कि आगामी लोकसभा चुनाव उनके अध्यक्ष रहते ही हो। संघ इसी साल दिसंबर में उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद पुन: कमान सौंपने के मूड में है। हालांकि संघ की यह मंशा दिल्ली में बैठे कुछ दिग्गजों को रास नहीं आ रही, क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि गडकरी ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकते हैं। इन दिग्गजों ने संगठन महामंत्री संजय जोशी को फिर से मौका दिए जाने पर भी ऐतराज जताया है।
अपन ने इसी कॉलम में लिख दिया था कि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तरप्रदेश में कई दिग्गजों को हाशिये पर रख कर चुनाव की कमान उमा भारती को सौंप कर न केवल उनकी, अपितु अपनी भी प्रतिष्ठा दाव लगा दी है, फिर भी माना जा रहा है कि यदि उमा के प्रयासों से भाजपा को कोई खास सफलता नहीं मिली तो भी गडकरी का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
असल में उमा को तरजीह दिए जाने से खफा नेता इसी बात का इंतजार कर रहे थे कि उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम आने पर गडकरी को घेरा जाए। हाल ही जब नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में गडकरी को ही रिपीट करने की मंशा जताई गई तो दिग्गज भाजपा नेताओं अपनी असहमति जता दी। यही वजह रही कि इस मामले में फैसला सभी से चर्चा के बाद करने का निर्णय किया गया है।
वस्तुत: संघ यह नहीं मानता कि उत्तरप्रदेश में सफलता न मिलने की वजह उमा है। वह मानता है कि वहां आज भी जातीय समीकरणों की वजह से मतदाता केवल बसपा व सपा की पकड़ में है। हालांकि उमा को भी जातीय समीकरण के तहत कमान सौंपी गई, मगर मतदाता बसपा से सपा की ओर शिफ्ट हो गया है। यहां कि कांग्रेस के युवराज राहुल की धुंआधार सभाएं भी कुछ चमत्कार नहीं दिखा पाईं।
संघ आज भी गडकरी की कार्यशैली से संतुष्ठ है। हिन्दुत्व के लिए समर्पित संजय जोशी को तरजीह देने से हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी खफा हुए, इसके बावजूद संघ के कहने पर गडकरी ने उनको नजरअंदाज कर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन किया है। संघ उनकी इसी कार्यशैली से खुश है। उनके पक्ष में ये बात जाती है कि उनके नेतृत्व में भाजपा ने बिहार में अच्छा प्रदर्शन किया। झारखंड में भाजपा की गठबंधन सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को हटाने जैसा साहसिक कदम उठाया। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों को बाहर का रास्ता दिखाया।
संघ की सोच है कि आगामी लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए गडकरी के अतिरिक्त किसी और पर आम सहमति बनाना कठिन है। उन बनी हुई आम सहमति को न तो संघ छेडऩा चाहता है और न ही किसी नए को बनवा कर रिस्क लेना चाहता है। सच तो ये है कि आगामी चुनाव के लिए गडकरी ने पूरी तैयारी शुरू कर दी है। सर्वे सहित प्रचार अभियान को हाईटैक तरीके से अंजाम देने की तैयारी है। यह सब संघ के इशारे पर हो रहा है।
वस्तुत: संघ को यह समझ में आ गया है कि भाजपा को हिंदूवादी पार्टी के रूप में ही आगे रखने से लाभ होगा। लचीला रुख अपनाने की वजह से वह न तो मुसलमानों को ठीक से आकर्षित कर पाई और न ही जातिवाद में फंसे हिंदू को ही लामबंद कर पाई। बहरहाल, अब देखना ये है कि दिग्गज नेताओं का विरोध गडकरी को रिपीट करने पर संघ को रोक पाता है या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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उमा की विफलता के बाद भी संघ गडकरी के पक्ष में
Written By तेजवानी गिरधर on सोमवार, 19 मार्च 2012 | 6:57 pm
हालांकि उत्तर प्रदेश में भाजपा की ओर से चुनावी कमान उमा भारती को सौंपने का राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का निर्णय कारगर नहीं रहा, उसके बावजूद संघ अब भी यही चाहता है कि आगामी लोकसभा चुनाव उनके अध्यक्ष रहते ही हो। संघ इसी साल दिसंबर में उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद पुन: कमान सौंपने के मूड में है। हालांकि संघ की यह मंशा दिल्ली में बैठे कुछ दिग्गजों को रास नहीं आ रही, क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि गडकरी ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकते हैं। इन दिग्गजों ने संगठन महामंत्री संजय जोशी को फिर से मौका दिए जाने पर भी ऐतराज जताया है।
अपन ने इसी कॉलम में लिख दिया था कि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तरप्रदेश में कई दिग्गजों को हाशिये पर रख कर चुनाव की कमान उमा भारती को सौंप कर न केवल उनकी, अपितु अपनी भी प्रतिष्ठा दाव लगा दी है, फिर भी माना जा रहा है कि यदि उमा के प्रयासों से भाजपा को कोई खास सफलता नहीं मिली तो भी गडकरी का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
असल में उमा को तरजीह दिए जाने से खफा नेता इसी बात का इंतजार कर रहे थे कि उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम आने पर गडकरी को घेरा जाए। हाल ही जब नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में गडकरी को ही रिपीट करने की मंशा जताई गई तो दिग्गज भाजपा नेताओं अपनी असहमति जता दी। यही वजह रही कि इस मामले में फैसला सभी से चर्चा के बाद करने का निर्णय किया गया है।
वस्तुत: संघ यह नहीं मानता कि उत्तरप्रदेश में सफलता न मिलने की वजह उमा है। वह मानता है कि वहां आज भी जातीय समीकरणों की वजह से मतदाता केवल बसपा व सपा की पकड़ में है। हालांकि उमा को भी जातीय समीकरण के तहत कमान सौंपी गई, मगर मतदाता बसपा से सपा की ओर शिफ्ट हो गया है। यहां कि कांग्रेस के युवराज राहुल की धुंआधार सभाएं भी कुछ चमत्कार नहीं दिखा पाईं।
संघ आज भी गडकरी की कार्यशैली से संतुष्ठ है। हिन्दुत्व के लिए समर्पित संजय जोशी को तरजीह देने से हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी खफा हुए, इसके बावजूद संघ के कहने पर गडकरी ने उनको नजरअंदाज कर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन किया है। संघ उनकी इसी कार्यशैली से खुश है। उनके पक्ष में ये बात जाती है कि उनके नेतृत्व में भाजपा ने बिहार में अच्छा प्रदर्शन किया। झारखंड में भाजपा की गठबंधन सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को हटाने जैसा साहसिक कदम उठाया। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों को बाहर का रास्ता दिखाया।
संघ की सोच है कि आगामी लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए गडकरी के अतिरिक्त किसी और पर आम सहमति बनाना कठिन है। उन बनी हुई आम सहमति को न तो संघ छेडऩा चाहता है और न ही किसी नए को बनवा कर रिस्क लेना चाहता है। सच तो ये है कि आगामी चुनाव के लिए गडकरी ने पूरी तैयारी शुरू कर दी है। सर्वे सहित प्रचार अभियान को हाईटैक तरीके से अंजाम देने की तैयारी है। यह सब संघ के इशारे पर हो रहा है।
वस्तुत: संघ को यह समझ में आ गया है कि भाजपा को हिंदूवादी पार्टी के रूप में ही आगे रखने से लाभ होगा। लचीला रुख अपनाने की वजह से वह न तो मुसलमानों को ठीक से आकर्षित कर पाई और न ही जातिवाद में फंसे हिंदू को ही लामबंद कर पाई। बहरहाल, अब देखना ये है कि दिग्गज नेताओं का विरोध गडकरी को रिपीट करने पर संघ को रोक पाता है या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
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5:02 pm
वो बरगद बूढ़ा
Written By नीरज द्विवेदी on शनिवार, 17 मार्च 2012 | 5:02 pm
9:12 am
कांग्रेस ने पहाड़ी राज्य उत्तराखंड पर कब्जा तो कर लिया, मगर आंतरिक कलह की वजह से यहां की सत्ता उसके लिए गले की फांस बन गई है। कांगे्रस हाईकमान ने किसी जमाने में कांग्रेस से बगावत करने वाले दिग्गज नेता हेमवती नंदर बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री घोषित कर शपथ भी दिलवा दी, दूसरी ओर राज्य के खांटी नेता हरीश रावत बगावत पर उतर आए हैं। बताते तो यहां तक हैं कि उन्होंने अपने अपमान को प्रतिष्ठ का सवाल बना दिया है और भाजपा से मेल मुलाकात बढ़ा रहे हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए सत्ता का ताज कांटों भरा नजर आने लगा है, जिसका संकेत इसी से मिलता है कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस के केवल 10 विधायक ही उपस्थित थे, जबकि रावत के दिल्ली स्थित निवास पर 18 विधायक जुटे थे। इस मसले पर जहां तक कांग्रेस हाईकमान के रुख का सवाल है, उसे पहले से पता था कि रावत बगावती तेवर अपना सकते हैं, इसके बावजूद वह सख्त नजर आ रहा है। उधर रावत ने मंत्रीपरिषद से इस्तीफा दे कर दबाव बनाने की कोशिश की है। अब सबकी नजर इस पर है कि ये बगावत कांगे्रस सरकार को ले डूबेगी या रावत निपट जाएंगे।
इस मसले का सबसे रोचक पहलु ये है कि उत्तराखंड हालांकि है छोटा सा राज्य, लेकिन उस पर चर्चा ऐसे हो रही है, मानो कोई राष्ट्रीय मसला हो। इसकी वजह ये कि रावत मीडिया मैनेजमेंट में माहिल हैं और अनेक पत्रकार रावत की उपेक्षा को कांग्रेस के लिए आत्मघाती बता रहे हैं, जबकि दूसरी ओर कांग्रेस हाईकमान के नजदीकी पत्रकार पूरे चुनाव के दौरान रावत की ओर से की जा रही बदमाशी को उजागर कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
बताया जा रहा है कि उत्तराखंड में प्रत्याशियों के चयन के दौरान ही रावत ने खुद मुख्यमंत्री बनने की बिसात बिछाना शुरू कर दी थी। इसके लिए अंदर की अंदर बसपा से तार जोड़ रखे थे। इसका खुलासा तब हुआ जब उन्होंने बसपा के समर्थन से सरकार बनाने ऐलान कर दिया, जबकि कांग्रेस के बागी बन कर जीते निर्दलीय विधायकों से सहयोग से भी यह संभव था। इस पर कांग्रेस हाईकमान की त्यौरियां चढ़ गईं और उसने तय कर लिया कि इस प्रकार के क्षत्रप को निपटाना ही बेहतर रहेगा, वरना बाद में दिक्कत पेश आएगी। ज्ञातव्य है कि कांग्रेस की शुरू से यह शैली रही है कि वह कभी उभरते राज्य स्तरीय क्षत्रपों को बर्दाश्त नहीं करती, हालंकि इससे उसे नुकसान भी होता रहा है। इसके एकाधिक उदाहरण सबके सामने हैं।
राजनीति में रुचि रखने वाले जानते हैं कि पूर्व में इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के जमीनी नेता कमलापति त्रिपाठी के चूंचपड़ करने पर उन्हें निपटा दिया, हालांकि इससे उसे परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे ब्राह्मणों से हाथ धोना पड़ा। हेमवती नंदन बहुगुणा को भी इसी प्रकार निपटाया गया था, जिसके नुकसान की भरपाई करने की सुध वर्षों बाद आई और अब विजय बहुगुणा को गले लगा रही है। कुछ ऐसा ही जगजीवन राम के साथ करने पर जब दलित वोट छिटक गए तो लंबे अरसे बाद उनकी पुत्री मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बना कर वापस खींचने की कोशिश की। एक जमाने में राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिय़ा को इसी कारण राज्यपाल बना कर राजस्थान से बाहर भेज दिया क्योंकि वे भारी पड़ रहे थे।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि ताजा मामले में यद्यपि कांग्रेस के लिए एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई थी, मगर मौके की नजाकत यही थी कि वे फिलहाल रावत को ही तरजीह देते क्यों कि विजय बहुगुणा से रावत जैसी बगावत की उम्मीद नहीं थी। वे इतने दमदार भी नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि शपथ ग्रहण के दौरान वे अपने साथ विधायकों की ताकत नहीं दिखा सके। इसके बावजूद अगर हाईकमान ने उन पर हाथ रखा है तो इसका मतलब ये है कि वह कभी अपने बलबूत खड़े होने वाले नेताओं का पसंद नहीं करती। उसे वे ही नेता पसंद आते हैं जो उसके आदेशों को सिर माथे रखते हैं। यानि आतंरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है। इस मामले में भी वही नीति अपना रही है। हालांकि यह सच है कि कांग्रेस के जितने भी दिग्गज पार्टी से बाहर गए, वे कहीं के नहीं रहे, इसी कारण कांग्रेस को समंदर भी कहा जाता है, मगर सच्चाई ये भी है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक अनेक राज्यों में उसका जनाधार कम होता गया और अनेक क्षेत्रीय पार्टियां बनने की वजह भी वही रही। कहावत है न कि केवल मूंछ ऊंची रखने के चक्कर में अनेक राजा निपट गए, मगर अकड़ नहीं गई, कांग्रेस पर यह खरी उतर रही है।
-तेजवानी गिरधर
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कांग्रेस के लिए गले की फांस बन गया उत्तराखंड
Written By तेजवानी गिरधर on गुरुवार, 15 मार्च 2012 | 9:12 am
कांग्रेस ने पहाड़ी राज्य उत्तराखंड पर कब्जा तो कर लिया, मगर आंतरिक कलह की वजह से यहां की सत्ता उसके लिए गले की फांस बन गई है। कांगे्रस हाईकमान ने किसी जमाने में कांग्रेस से बगावत करने वाले दिग्गज नेता हेमवती नंदर बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री घोषित कर शपथ भी दिलवा दी, दूसरी ओर राज्य के खांटी नेता हरीश रावत बगावत पर उतर आए हैं। बताते तो यहां तक हैं कि उन्होंने अपने अपमान को प्रतिष्ठ का सवाल बना दिया है और भाजपा से मेल मुलाकात बढ़ा रहे हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए सत्ता का ताज कांटों भरा नजर आने लगा है, जिसका संकेत इसी से मिलता है कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस के केवल 10 विधायक ही उपस्थित थे, जबकि रावत के दिल्ली स्थित निवास पर 18 विधायक जुटे थे। इस मसले पर जहां तक कांग्रेस हाईकमान के रुख का सवाल है, उसे पहले से पता था कि रावत बगावती तेवर अपना सकते हैं, इसके बावजूद वह सख्त नजर आ रहा है। उधर रावत ने मंत्रीपरिषद से इस्तीफा दे कर दबाव बनाने की कोशिश की है। अब सबकी नजर इस पर है कि ये बगावत कांगे्रस सरकार को ले डूबेगी या रावत निपट जाएंगे।
इस मसले का सबसे रोचक पहलु ये है कि उत्तराखंड हालांकि है छोटा सा राज्य, लेकिन उस पर चर्चा ऐसे हो रही है, मानो कोई राष्ट्रीय मसला हो। इसकी वजह ये कि रावत मीडिया मैनेजमेंट में माहिल हैं और अनेक पत्रकार रावत की उपेक्षा को कांग्रेस के लिए आत्मघाती बता रहे हैं, जबकि दूसरी ओर कांग्रेस हाईकमान के नजदीकी पत्रकार पूरे चुनाव के दौरान रावत की ओर से की जा रही बदमाशी को उजागर कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
बताया जा रहा है कि उत्तराखंड में प्रत्याशियों के चयन के दौरान ही रावत ने खुद मुख्यमंत्री बनने की बिसात बिछाना शुरू कर दी थी। इसके लिए अंदर की अंदर बसपा से तार जोड़ रखे थे। इसका खुलासा तब हुआ जब उन्होंने बसपा के समर्थन से सरकार बनाने ऐलान कर दिया, जबकि कांग्रेस के बागी बन कर जीते निर्दलीय विधायकों से सहयोग से भी यह संभव था। इस पर कांग्रेस हाईकमान की त्यौरियां चढ़ गईं और उसने तय कर लिया कि इस प्रकार के क्षत्रप को निपटाना ही बेहतर रहेगा, वरना बाद में दिक्कत पेश आएगी। ज्ञातव्य है कि कांग्रेस की शुरू से यह शैली रही है कि वह कभी उभरते राज्य स्तरीय क्षत्रपों को बर्दाश्त नहीं करती, हालंकि इससे उसे नुकसान भी होता रहा है। इसके एकाधिक उदाहरण सबके सामने हैं।
राजनीति में रुचि रखने वाले जानते हैं कि पूर्व में इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के जमीनी नेता कमलापति त्रिपाठी के चूंचपड़ करने पर उन्हें निपटा दिया, हालांकि इससे उसे परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे ब्राह्मणों से हाथ धोना पड़ा। हेमवती नंदन बहुगुणा को भी इसी प्रकार निपटाया गया था, जिसके नुकसान की भरपाई करने की सुध वर्षों बाद आई और अब विजय बहुगुणा को गले लगा रही है। कुछ ऐसा ही जगजीवन राम के साथ करने पर जब दलित वोट छिटक गए तो लंबे अरसे बाद उनकी पुत्री मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बना कर वापस खींचने की कोशिश की। एक जमाने में राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिय़ा को इसी कारण राज्यपाल बना कर राजस्थान से बाहर भेज दिया क्योंकि वे भारी पड़ रहे थे।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि ताजा मामले में यद्यपि कांग्रेस के लिए एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई थी, मगर मौके की नजाकत यही थी कि वे फिलहाल रावत को ही तरजीह देते क्यों कि विजय बहुगुणा से रावत जैसी बगावत की उम्मीद नहीं थी। वे इतने दमदार भी नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि शपथ ग्रहण के दौरान वे अपने साथ विधायकों की ताकत नहीं दिखा सके। इसके बावजूद अगर हाईकमान ने उन पर हाथ रखा है तो इसका मतलब ये है कि वह कभी अपने बलबूत खड़े होने वाले नेताओं का पसंद नहीं करती। उसे वे ही नेता पसंद आते हैं जो उसके आदेशों को सिर माथे रखते हैं। यानि आतंरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है। इस मामले में भी वही नीति अपना रही है। हालांकि यह सच है कि कांग्रेस के जितने भी दिग्गज पार्टी से बाहर गए, वे कहीं के नहीं रहे, इसी कारण कांग्रेस को समंदर भी कहा जाता है, मगर सच्चाई ये भी है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक अनेक राज्यों में उसका जनाधार कम होता गया और अनेक क्षेत्रीय पार्टियां बनने की वजह भी वही रही। कहावत है न कि केवल मूंछ ऊंची रखने के चक्कर में अनेक राजा निपट गए, मगर अकड़ नहीं गई, कांग्रेस पर यह खरी उतर रही है।
-तेजवानी गिरधर
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9:45 pm
अंदाज ए मेरा: एक अनोखी चिडिया
Written By Atul Shrivastava on बुधवार, 14 मार्च 2012 | 9:45 pm
अंदाज ए मेरा: एक अनोखी चिडिया: ''एक ऐसी चिडिया जो स्कूल जाती है। प्रार्थना में शामिल होती है। पढाई करती है। मध्यान्ह भोजन करती है। बच्चों के साथ खेलती है।'' इस चिडिया ...
2:15 pm
हॉकी -हमारा राष्ट्रीय खेल -आप भी जुड़े
Written By Shikha Kaushik on मंगलवार, 13 मार्च 2012 | 2:15 pm
हॉकी -हमारा राष्ट्रीय खेल
''हॉकी '' को समर्पित पहला हिंदी ब्लॉग
ये ब्लॉग समर्पित है हमारे राष्ट्रीय खेल ''हॉकी ''को .आप जिस भी विधा में प्रस्तुत करना चाहे इसके प्रति अपना जूनून.....प्रस्तुत करें .
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शिखा कौशिक
9:05 am
11-3-2012 के हिन्दुस्तान अखबार में भी यह ख़बर प्रमुखता के साथ प्रकाशित की गयी है.
मुबारक हो महफूज़ भाई Star Blogger
महफूज़ भाई स्टार हिन्दी ब्लॉगर हैं . उन्होंने बताया है कि उनकी कविता जर्मनी के स्कूल पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाएगी. यह ख़ुशी की बात है , उन्हें मुबारकबाद देते हुए बहुत से वरिष्ठ हिन्दी ब्लॉगर यहाँ देखे जा सकते हैं .
http://redrose-vandana.blogspot.in/2012/03/blog-post_12.html11-3-2012 के हिन्दुस्तान अखबार में भी यह ख़बर प्रमुखता के साथ प्रकाशित की गयी है.
इस घटना से यह भी पता चल जाता है कि जिन लोगों को यहाँ विदेशी कहकर उनकी संस्कृति को तुच्छ समझा जाता है, वे ज्ञान की क़द्र करते हैं और इसीलिए वे आगे बढ़ते हैं . महफूज़ भाई जैसे लाखों लोग हैं जिनकी काबिलियत का फायदा उठाकर भारत पूरी दुनिया का लीडर बन सकता है.
आगे बढ़ना है तो अहंकार और पक्षपात छोड़ना होगा.
सारे हिन्दी ब्लॉगर की तरफ से हम यही कहेंगे :
मुबारक हो महफूज़ भाई
9:23 pm
कुछ ख़ास .......: रामकृष्ण परमहंस
Written By mark rai on शनिवार, 10 मार्च 2012 | 9:23 pm
8:10 pm
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
Written By devendra gautam on गुरुवार, 8 मार्च 2012 | 8:10 pm
सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
2:55 pm
जीवन के रंग .....: ऐ मनुष्य
Written By mark rai on बुधवार, 7 मार्च 2012 | 2:55 pm
11:50 am
व्यवहार (होली पर एक क्षणिका)
होली पर
हमें
उनका व्यवहार
बहुत भाता है
क्योंकि
हमारा खर्चा बच जाता है
और
रंग डालने के पहले ही
उनका चेहरा
गुस्से से
लाल हो जाता है।
(आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामानाएं)
3:50 pm
'विश्व पुस्तक मेला''-एक छोटी सी झांकी
Written By Shikha Kaushik on सोमवार, 5 मार्च 2012 | 3:50 pm
8:49 pm
राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने एक बार फिर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ललकारते हुए दहाड़ लगाई। इस बार तो राजसमंद विधायक व भाजपा राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी ने भी उनके सुर में सुर मिलाया। विधानसभा की कार्यवाही को बाधित करने में मुद्दे पर दोनों ने आरोप लगाया है कि जब भी मौजूदा सरकार में हो रहे भ्रष्टाचार की बात उठाई जाती है तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उसका कोई जवाब देने की बजाय उलटे पलट कर पूर्ववर्ती भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप का रिकार्डर चला देते हैं। उन्होंने इसके साथ यह भी जोड़ा कि वे दरअसल ऐसा इस कारण करते हैं ताकि उनके भ्रष्टाचार पर पर्दा पड़ जाए और जनता का ध्यान हट जाए।
विधानसभा सत्र के पिछले कड़वे अनुभव को ख्याल में रखते हुए अपनी सदाशयता का जिक्र करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि भाजपा सदन को ठीक से चलने देने की इच्छुक है। यदि ऐसा मानस न होता काहे को विधायक भवानी सिंह राजावत के निलंबन को समाप्त करने का आग्रह करने स्वयं मुख्यमंत्री गहलोत के घर जाती। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार सदाशयता चाहती ही नहीं।
वसुंधरा का तर्क है कि नरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार की जानकारी सरकार को भी है, कार्यवाही भी चल रही है, ऐसे में मुख्यमंत्री को भाजपा के वरिष्ठ नेता गुलाब चंद कटारिया के उन सच्चे आरोपों पर उबलने की जरूरत क्या थी? वसुंधरा ने ठोक कर कहा कि गहलोत पिछले तीन साल में उन पर एक भी आरोप साबित नहीं पाए हैं, फिर भी एक ही रट लगाए हुए हैं। एक ही तरह के आरोप सुन कर लगभग उकता चुकीं वसुंधरा ने चिढ़ते हुए तल्ख स्वर में चेताया कि या तो आरोप साबित करो और जो जी में आए सजा दो, वरना जनता से माफी मांगो। इस सिलसिले में उन्होंने माथुर आयोग का भी जिक्र किया, जिसे हाईकोर्ट व फिर सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया। इतना ही नहीं उन्होंने चाहे जितने आयोग बनाने तक की चुनौती भी दे दी।
वसुंधरा ने एक बार फिर गहलोत को घेरते हुए कहा कि खुद उन पर ही जल महल प्रकरण, कल्पतरू कंपनी को फायदा देना, वेयर हाउस कॉर्पोरेशन को शुभम कंपनी को सौंपने और होटल मेरेडीयन को फायदा पहुंचाने संबंधी कई आरोप लगे हुए हैं, जो कि खुद उनकी ही पार्टी के नेताओं ने लगाए हैं और मीडिया ने भी उजागर किए हैं।
वसुंधरा के इन तीखे तेवरों से उत्तेजित हुईं किरण माहेश्वरी ने भी मुख्यमंत्री गहलोत की हरकत पर ऐतराज किया। वसुंधरा की पैरवी करते हुए उन्होंने कहा कि गहलोत एक भी आरोप साबित नहीं कर पाए हैं, बावजूद इसके उन्हीं आरोपों को लगा कर जानबूझ कर सदन से पलायन करने की नीति पर चल रहे हैं।
बहरहाल, भाजपा की इन दो नेत्रियों के तेवरों से साफ है कि भाजपा इस बार पूरे फॉर्म में है। उनके साफ-साफ आरोप सौ टंच सही प्रतीत होते हैं, ऐसे में जनता में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि ऐसी क्या वजह है कि गांधीवादी गहलोत आखिर किन मजबूरियों के चलते वसुंधरा की थप्पड़ के बाद फिर दूसरा थप्पड़ खाने को गाल आगे कर देते हैं। सीधी सीधी बात है वे किन कारणों से वसुंधरा पर लगाए गए आरोपों को साबित नहीं कर पा रहे हैं। चलो माथुर आयोग तो कानूनी पेचों में उलझ गया, मगर यदि भाजपा के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार को साबित करने के और रास्ते भी निकाले जा सकते थे।
यहां उल्लेखनीय है कि वसुंधरा के तेवरों के आगे गहलोत की ढ़ीले-ढ़ाले व्यक्तित्व को लेकर कांग्रेसियों को भी बड़ी भारी तकलीफ है। पिछले दिनों पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के राजस्थान दौरे के दौरान वसुंधरा को घेरने के लिए गहलोत के इशारे पर कांग्रेस ने भ्रष्टाचार से जुड़े दस सवाल दागे थे, जो पूर्व में भी कई बार दागे जा चुके हैं। अर्थात कांग्रेस ने वे ही बम फिर छोडऩे की कोशिश की, जो कि पहले ही फुस्स साबित हो चुके हैं। वे सवाल खुद ही ये सवाल पैदा कर रहे थे कि उनमें से एक में भी कार्यवाही क्यों नहीं हो पाई है, जबकि अब तो सरकार कांग्रेस की है। प्रतिक्रिया में न केवल भाजपा ने पलटवार किया और मौजूदा कांग्रेस सरकार के तीन साल के कामकाज पर सवाल उठा दिए, अपितु पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी दहाड़ीं थीं।
सरकार की यह हालत देख कर खुद कांग्रेसी नेताओं को बड़ा अफसोस है कि गहलोत इस मोर्चे पर पूरी तरह से नकारा साबित हो गए हैं। उन्हें बड़ी पीड़ा है कि वे वसुंधरा को घेरने की बजाय खुद ही घिरते जा रहे हैं।
हालांकि यह भी सही है कि वसुंधरा जिस तरह से अपने आप को निर्दोष बताते हुए दहाड़ रही हैं, जनता उन्हें उतना पाक साफ नहीं मानती। भाजपा राज में हुए भ्रष्टाचार को लेकर आम जनता में चर्चा तो खूब है, भले ही गहलोत उसे साबित करने में असफल रहे हों। साथ ही यह भर कड़वा सच है कि जनता की नजर में भले ही वसुंधरा की छवि बहुत साफ-सुथरी नहीं हो, मगर कम से कम गहलोत तो उनके दामन पर दाग नहीं लगा पाए हैं। देखते हैं इस बार वसुंधरा की थप्पड़ खा कर गहलोत का खून खौलता है या नहीं। या फिर नींद में से उठ कर पानी पी के सो जाएंगे।
-tejwanig@gmail.com
एक बार फिर दहाड़ीं वसुंधरा, किरण ने भी मिलाया सुर
Written By तेजवानी गिरधर on गुरुवार, 1 मार्च 2012 | 8:49 pm
राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने एक बार फिर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ललकारते हुए दहाड़ लगाई। इस बार तो राजसमंद विधायक व भाजपा राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी ने भी उनके सुर में सुर मिलाया। विधानसभा की कार्यवाही को बाधित करने में मुद्दे पर दोनों ने आरोप लगाया है कि जब भी मौजूदा सरकार में हो रहे भ्रष्टाचार की बात उठाई जाती है तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उसका कोई जवाब देने की बजाय उलटे पलट कर पूर्ववर्ती भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप का रिकार्डर चला देते हैं। उन्होंने इसके साथ यह भी जोड़ा कि वे दरअसल ऐसा इस कारण करते हैं ताकि उनके भ्रष्टाचार पर पर्दा पड़ जाए और जनता का ध्यान हट जाए।
विधानसभा सत्र के पिछले कड़वे अनुभव को ख्याल में रखते हुए अपनी सदाशयता का जिक्र करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि भाजपा सदन को ठीक से चलने देने की इच्छुक है। यदि ऐसा मानस न होता काहे को विधायक भवानी सिंह राजावत के निलंबन को समाप्त करने का आग्रह करने स्वयं मुख्यमंत्री गहलोत के घर जाती। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार सदाशयता चाहती ही नहीं।
वसुंधरा का तर्क है कि नरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार की जानकारी सरकार को भी है, कार्यवाही भी चल रही है, ऐसे में मुख्यमंत्री को भाजपा के वरिष्ठ नेता गुलाब चंद कटारिया के उन सच्चे आरोपों पर उबलने की जरूरत क्या थी? वसुंधरा ने ठोक कर कहा कि गहलोत पिछले तीन साल में उन पर एक भी आरोप साबित नहीं पाए हैं, फिर भी एक ही रट लगाए हुए हैं। एक ही तरह के आरोप सुन कर लगभग उकता चुकीं वसुंधरा ने चिढ़ते हुए तल्ख स्वर में चेताया कि या तो आरोप साबित करो और जो जी में आए सजा दो, वरना जनता से माफी मांगो। इस सिलसिले में उन्होंने माथुर आयोग का भी जिक्र किया, जिसे हाईकोर्ट व फिर सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया। इतना ही नहीं उन्होंने चाहे जितने आयोग बनाने तक की चुनौती भी दे दी।
वसुंधरा ने एक बार फिर गहलोत को घेरते हुए कहा कि खुद उन पर ही जल महल प्रकरण, कल्पतरू कंपनी को फायदा देना, वेयर हाउस कॉर्पोरेशन को शुभम कंपनी को सौंपने और होटल मेरेडीयन को फायदा पहुंचाने संबंधी कई आरोप लगे हुए हैं, जो कि खुद उनकी ही पार्टी के नेताओं ने लगाए हैं और मीडिया ने भी उजागर किए हैं।
वसुंधरा के इन तीखे तेवरों से उत्तेजित हुईं किरण माहेश्वरी ने भी मुख्यमंत्री गहलोत की हरकत पर ऐतराज किया। वसुंधरा की पैरवी करते हुए उन्होंने कहा कि गहलोत एक भी आरोप साबित नहीं कर पाए हैं, बावजूद इसके उन्हीं आरोपों को लगा कर जानबूझ कर सदन से पलायन करने की नीति पर चल रहे हैं।
बहरहाल, भाजपा की इन दो नेत्रियों के तेवरों से साफ है कि भाजपा इस बार पूरे फॉर्म में है। उनके साफ-साफ आरोप सौ टंच सही प्रतीत होते हैं, ऐसे में जनता में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि ऐसी क्या वजह है कि गांधीवादी गहलोत आखिर किन मजबूरियों के चलते वसुंधरा की थप्पड़ के बाद फिर दूसरा थप्पड़ खाने को गाल आगे कर देते हैं। सीधी सीधी बात है वे किन कारणों से वसुंधरा पर लगाए गए आरोपों को साबित नहीं कर पा रहे हैं। चलो माथुर आयोग तो कानूनी पेचों में उलझ गया, मगर यदि भाजपा के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार को साबित करने के और रास्ते भी निकाले जा सकते थे।
यहां उल्लेखनीय है कि वसुंधरा के तेवरों के आगे गहलोत की ढ़ीले-ढ़ाले व्यक्तित्व को लेकर कांग्रेसियों को भी बड़ी भारी तकलीफ है। पिछले दिनों पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के राजस्थान दौरे के दौरान वसुंधरा को घेरने के लिए गहलोत के इशारे पर कांग्रेस ने भ्रष्टाचार से जुड़े दस सवाल दागे थे, जो पूर्व में भी कई बार दागे जा चुके हैं। अर्थात कांग्रेस ने वे ही बम फिर छोडऩे की कोशिश की, जो कि पहले ही फुस्स साबित हो चुके हैं। वे सवाल खुद ही ये सवाल पैदा कर रहे थे कि उनमें से एक में भी कार्यवाही क्यों नहीं हो पाई है, जबकि अब तो सरकार कांग्रेस की है। प्रतिक्रिया में न केवल भाजपा ने पलटवार किया और मौजूदा कांग्रेस सरकार के तीन साल के कामकाज पर सवाल उठा दिए, अपितु पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी दहाड़ीं थीं।
सरकार की यह हालत देख कर खुद कांग्रेसी नेताओं को बड़ा अफसोस है कि गहलोत इस मोर्चे पर पूरी तरह से नकारा साबित हो गए हैं। उन्हें बड़ी पीड़ा है कि वे वसुंधरा को घेरने की बजाय खुद ही घिरते जा रहे हैं।
हालांकि यह भी सही है कि वसुंधरा जिस तरह से अपने आप को निर्दोष बताते हुए दहाड़ रही हैं, जनता उन्हें उतना पाक साफ नहीं मानती। भाजपा राज में हुए भ्रष्टाचार को लेकर आम जनता में चर्चा तो खूब है, भले ही गहलोत उसे साबित करने में असफल रहे हों। साथ ही यह भर कड़वा सच है कि जनता की नजर में भले ही वसुंधरा की छवि बहुत साफ-सुथरी नहीं हो, मगर कम से कम गहलोत तो उनके दामन पर दाग नहीं लगा पाए हैं। देखते हैं इस बार वसुंधरा की थप्पड़ खा कर गहलोत का खून खौलता है या नहीं। या फिर नींद में से उठ कर पानी पी के सो जाएंगे।
-tejwanig@gmail.com
8:58 am
होली आई रे
होली आई रे
फागुनी बयार चलने लगी है
फागुन ऋतू आई है
मोसम सुहाना होने लगा है
डेसू के फूलों की लालिमा छाई है
आगे पढ़ने के लिए नीचे के लिंक पर जाइये /और अपने सन्देश जरुर दीजिये /आभार /
http://prernaargal.blogspot.in/2012/02/happy-holi.html
आगे पढ़ने के लिए नीचे के लिंक पर जाइये /और अपने सन्देश जरुर दीजिये /आभार /
http://prernaargal.blogspot.in/2012/02/happy-holi.html
8:27 am
राजस्थान हाई कोर्ट के बाहर न्याय के इन्तिज़ार में वर्षों से भटक रहे एक व्यक्ति ने नेराश्य में आकर जहर खाकर अपनी इह लीला समाप्त करने की कोशिश की वेसे तो उसे बचा कर न्याय के मन्दिर के बाहर खुद के साथ यह अन्याय करने के लियें दंड भुगतना पढ़ेगा लेकिन न्याय में देरी के मामले को लेकर ..शीर्ष अदालत के बाहर इस व्यक्ति की इस निराशा ने देश के न्यायालयों में देरी से मिल रहे फ़सलों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है ........हमारे संविधान में न्याय पालिका ..कार्यपालिका ..संसद तीन स्तम्भ है सभी लोगों पर कहीं न कहीं भ्रष्टाचार और लेट लतीफी के मामले उजागर होते रहे है .............न्याय के मन्दिर भी इससे अछूते नहीं रहे है जजों के खिलाफ महा अभियोग तक लगाये गये है जबकि खुद सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने भ्रष्ट और दागी जजों को नोकरी से निकल कर अपना दामन साफ करने की कोशिश की है ...लेकिन न्याय में देरी और विरोधाभासी न्याय दोनों ऐसे तथ्य है जिन पर न्यायालयों और देश की संसद को विचार करना होगा ..कहते है न्यायालय सुप्रीम है फिर कहते है संसद सुप्रीम है फिर कहते है कार्यपालिका सुप्रीम है व्यवहार में सब जानते है के यह सुप्रिमेसी की जंग ने हमारेदेश में अराजकता फेला दी है ..हमारे देश में एक छोटा सा मुकदमा जिसका फेसला कानून में दिन प्रतिदिन सुनवाई के बाद तुरंत किये जाने का प्रावधान है महीनों नहीं सालों और कई सालों तक चलाया जाता है ..देश की कई अदालतों में तो जज नहीं है हमारे राजस्थान के कोटा में तेरह मजिस्ट्रेटों में से नो मजिस्ट्रेट नहीं है जबकि दो जज ..एक मोटर यान दुर्घटना क्लेम जज ...अनुसूचित मामलात जज और खुद जिला जज कोटा में नहीं है ..बात हंसने की नहीं है यह सच है यहाँ एक तरफ तो कोटा के वकीलों ने पक्षकारों का हित बताकर कोटा में राजस्थान हाईकोर्ट बेंच की मांग को लेकर ऐतिहासिक गिनीज़ रिकोर्ड में दर्ज होने वाली हडताल की है और आज न्याय के मन्दिर में जज नहीं होने से कोटा का वकील शर्मिंदा है ...राजस्थान में वकील कोटे से ऐ डी जे की नियुक्ति कहीं ना कहीं उलझती रही है ...देश में एक तरफ तो सेठी आयोग की रिपोर्ट लागू करने का दबाव रहा है जिसमे प्रत्येक तहसील स्तर पर जजों की नियुक्ति और समय बद्ध न्याय का प्रावधान रख कर सिफारिश की गयी है और दूसरी तरफ सरकार ने न्यायालयों की स्थिति यह कर रखी है के यहाँ जजों के बेठने और बाबुओं के फ़ाइल रखने तक के भवन के लाले पढ़े है कहने को तो विधिक न्यायिक प्राधिकरण ..मेडितियेष्ण सेंटर खोले गये है लेकिन इसका फायदा जनता को खान मिल रहा है कुछ देखने को नहीं मिलता ..देश के और खासकर राजस्थान के वकील ..जज रिटायर्ड जज जरा अपने सिने पर हाथ रख कर देखें क्या वोह यहाँ की जनता को समय बद्ध न्याय देने के लियें वचन बद्ध और कर्तव्यबद्ध है सभी लोग आंकड़ों की भूल भुलय्या में फंस गये है हाईकोर्ट चाहता है के निचली अदालते काम करें निचले अदालतों में जज नहीं है एक अदालत के पास चार चार अदालतों के कम है और फिर आंकड़ों का भ्रमजाल कोटा कितने मामले दायर हुए कितने निस्तारित किया बताओं ..खुद हाईकोर्ट नहीं देखता के वहां कितने मामले कितने वर्षों से लम्बित है और अवकाश के मामले में हाई कोर्ट के अवकाश तो कम नहीं होते लेकिन निचली अदालतों में अलबत्ता दबाव होता है सरकार है के हाईकोर्ट में जजों के खाली पढ़े पद भर्ती ही नहीं .देश में अदालतों में चाहे वोह निचली हों या उपरी सभी में एक अभियान के तहत जजों की नियुक्ति कर न्याय का अभियान चलाना होगा वरना हम वकील के नाते रोज़ देखते है के मजिस्ट्रेट और जज कितने तनाव में कितने काम के बोझ में काम करते है ..एक अदालत में एक तरफ तो कानून का दबाव है मर्यादा है के न्यायी अधिकारी एक वक्त में केवल एक ही काम करेंगे गवाह लेंगे तो गवाह होगी ..बहस होगी तो बहस होगी लेकिन हम देखते है के एक अदालत में एक तरफ बहस होती है और दो तरफ ब्यान होते है कानून और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार यह गलत है लेकिन होता है हम कानून के रक्षक यह सब होता हुआ देखते ही नहीं मजबूरी समझ कर मदद करते है लेकिन जरा जमीर को झकझोरें क्या यह सही बात है अगर नहीं तो क्यूँ हम ऐसा होने देते है ............हाई कोर्ट में कोई जनहित याचिका लगाये तो लम्बे कानून हैं लेकिन अगर खुद अदालत प्रसंज्ञान ले और जनहित याचिका मान ले तो कोई कानून कोई मर्यादा नहीं .....तो दोस्तों राजस्थान हाईकोर्ट के बहर न्याय की तलाश में काफी समय से इन्तिज़ार के बाद नेराश्य में आकर एक व्यक्ति की आत्महत्या के प्रयास की घटना चाहे सामान्य हो लेकिन यह दिल और देश की न्यायिक व्यवस्था में देरी को झकझोरने वाली है यहाँ हमे निचली अदालतों के जजों पर निर्णयों में गुणवत्ता का भी दबाव बनाना होगा यह भी पाबंदी लगाना होगी के अगर उनके फेसले उपर की न्यायालयों गलत मान कर पलते तो उन्हें दंडित भी क्या जाएगा तभी वोह निष्पक्ष और सही फेसले दे सकेंगे वरना सब जानते है के निचे की अदालत सज़ा देती है तो उपर से बरी होते है ..निचे से बरी होते है तो उपर से सज़ा होते है ऐसे में अगर विरोधाभास है तो गलती करने वाले को सजा नहीं मिले तो यह न इंसाफी है एक व्यक्ति महीनों जेल में एक गलत फेसले के कारण रहता है ..या जेल से बचता है तो इसमें तो सावधानी और कठोरता होना ही चाहिए ..देश की सरकार देश की संसद देश के महामहिम राष्ट्रपति जी को इस गंभीर मुद्दे पर चिन्तन मनन कर देश को एक नई दिशा देने के लिए देश में न्यायिक सुधार के लियें कदम उठाने होंगे ..न्यायालयों में जो संसाधनों .स्टाफ और जजों की कमी है उन्हें एक विशेष बजट पारित कर उसे पूरा करना होगा वरना यूँ ही रस्म निभाने और एक दुसरे को निचा दिखने की परम्परा से देश और देशवासियों का भला नहीं होगा .........अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
राजस्थान हाई कोर्ट के बाहर न्याय में देरी को लेकर एक व्यक्ति के जहर खाने की घटना को गम्भीरता से नहीं लिया तो अराजकता के हालात से नहीं बच सकेंगे हम लोग
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