तमाम गवाहों और सुबूतों को मद्दे नजर रखते हुए अदालत किस नतीजे पर पहुंची कल पता चलेगा। बहरहाल रामदेव का धरना तीन दिनों में तीन मानसों पर केंद्रित रहा। पहला कांग्रेस की चापलूसी करके अनशन तुड़वाने बुलाकर अन्ना को नीचा दिखाना, अन्ना की सियासी पार्टी पर गैर सियासी एजेंडे वाली बात कहके बढ़त बनाना और तीसरा जब कुछ नहीं तो व्यायामशालाएं खोलकर सेना तैयार करना। रविवार को देखेंगे आखिर रामदेव चाहते क्या हैं?
भोपाल में एक बार आरक्षण, राजनीति फिल्म की शूटिंग हो रही थी। मैं गया था, तो सारे अखबारों में हर रोज कुछ न कुछ छापा जा रहा था। कहीं कुछ सनसनीखेज, तो कहीं अजय देवगण, अमिताभ से बात। शहर के होटलों में फिल्म यूनिट के लोग अटे पड़े थे। कम से कम किसी भी पेपर के एक पुल आउट में कुछ न कुछ होता था। मगर यह सब भीड़ के बाद भी कुछ यह कोई नहीं कहता था, कि अब सूरत बदल जाएगी, देश बदल जाएगा या भोपाल बदल जाएगा। चूंकि सब जानते थे, यह एक फिल्म है। इसमें लिखी गई स्क्रिप्ट के अनुरूप ही सब काम करेंगे। शूटिंग प्लान, फ्लोर प्लान पहले से तय है। तो कुल मिलाकर बड़ी भारी भीड़ और लोक चर्चा के बावजूद यह कोई राष्ट्रीय रोमांच का विषय नहीं था। लोगों में यह तो क्वाइरी थी कि आज शूटिंग कहां हुई होगी। कैसे शूटिंग होती है। मगर यह कोई नहीं जानना चाहता था, कि आज क्या होगा। यानी कोई रहस्य नहीं था।
ऐसा ही हुआ बाबा रामदेव का आंदोलन। तीन दिनों में किसी को कोई भी ऐसा नहीं लगा जबकि बाबा कुछ नया बोलेंगे। इसपर कांग्रेस एक बारगी किसी पेंशनर्स समाज के धरने तक को पूछ ले मगर बाबा की बात नहीं सुनने पर आमादा सी दिखी। लंबी रिहर्सल, वाद और विवाद पैदा करने की पूरी कोशिश। मगर मीडिया का सिक्स्थ सेंस लगातार कहता रहा, यह कोई नहीं महज एक फिल्म शूटिंग सा माहौल है। बाबा वैसे भी अन्ना की तरह प्रभावी नहीं है। वे अपनी ह्युमन चेन के जरिए जाते रहे हैं। जरा देखें बाबा के कुछ दांव पेंच जो उन्होंने यहां पर खेले।
अन्ना गलत मैं सही: यह बाबा की सबसे पहली इच्छा और नीति थी। उन्होंने शुरू के पहले दिन तो ऐसा बोला जैसे अन्ना के खिलाफ बैठे हैं। लोकपाल चाहिए, अपनी मत चलाओ, सुनो लोकपाल बनने दो। और बार-बार सियासी दल नहीं बनाऊंगा। सियासत नहीं करूंगा। मेरा कोई सियासी ड्रामा नहीं है। यह सब बातें यह थीं कि जैसे कांग्रेस की ओर से बाबा बैठे हों।
क्यों कोसा अन्ना को: बाबा रामदेव ने अन्ना टीम को कोसा। वजह रही जैसे कांग्रेस ने अन्ना टीम के साथ व्यवहार किया था, एक अनबोला सा बना रखा था। वह न रहे। फिर बाबा के पास आएं सिब्बल, चिदंबरम, सुशील आदि। और बाबा का कद बढ़े। वे बताएं देखो इसे आंदोलन कहते हैं। हमने झुका दिया सरकार को। अन्ना रणछोर निकले। तो बाबा लगातार कांग्रेस की अप्रत्यक्ष रूप से तारीफ करते रहे।
दिखाया डर भी: बाबा अपनी चापलूसी से इतने घिरे हुए हैं, कि उन्हें लगता है पूरा देश उनकी चापलूसी नहीं सम्मान कर रहा है। बनियो के राजनैतिक झगड़ों को सुलझाने में माहिर बाबा ने इतनी औकात तो बना ही ली है, कि उन्हें उद्योगपतियों का चापलूसी मिश्रित सम्मान मिलता रहे। जब कांग्रेस की चापलूसी से बाबा का काम नहीं बना तो उन्होंने क्रांति का डर दिखाया। किसके बूते? उनके बूते, जो पहले से ही अपनी किसी बीमारी को दूर करने के लिए बाबा के अनुलोम विलोम में शामिल थे। बाबा एक डॉक्टर हैं, इलाज करें।
अब क्या करें बाबा: अब पूरा घटनाक्रम क्लोज होने को है। बाबा करेंगे तो क्या? चूंकि अब सारी बातें हो गईं। चीजें खत्म हो रही हैं। कैसे इसे कन्क्लूड करें। तो वे अब रविवार को 11 बजे ऐलान करेंगे।
तो क्या अन्ना के खिलाफ हैं रामदेव: हां। सत्य है। रामदेव के अबतक के चाल चलन से तो ऐसा ही लग रहा है। वे सिर्फ और सिर्फ अन्ना के आंदोलन को ही नेस्तनाबूत करना चाहते हैं।
जरा इतिहास देखो: रामदेव दो सालों से काला धन और काला धन कर रहे थे। अन्ना चुपचाप प्रकट हुए और लोकपाल के लिए अप्रैल में 5 दिवसीय अनशन पर बैठे। लोगों ने समर्थन दिया। यानी एक बार जब आप बैठ चुके तो रामदेव ने इसपर अपना रंग पोतने के लिए जून में अनशन किया। क्या दुर्दशा हुई सभी जानते हैं। बालकृष्ण जैसे स्त्रियण व्यक्ति को आगे किया। अब फिर अगस्त में अन्ना बैठे और फिर महाभीड़ जुट गई। लोकपाल नहीं बना। दबाव बन गया। अन्ना ने मुहलत दी। फिर बैठ गए। लोकपाल फिर नहीं बना। दबाव बना रहा। इस बीच रामदेव के पास पूरी सियासी विरासत खतरे में नजर आने लगी। फिर इस बार अगस्त में बाबा के बैठने की बात से पहले ही टीम अन्ना बैठ गई। फिर वही हुआ। मैदान बनाते रामदेव, खेल खेलते अन्ना। यानी लड़ाई रह गई, सिर्फ अन्ना और रामदेव के बीच। लड़ाई ऐसी जो दिखती नहीं है। इसलिए रामदेव अन्ना को अब पहले खत्म करना चाहते हैं।
- सखाजी
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1 टिप्पणियाँ:
ek ek bat baba kee asliyat kholti lag rahi hai sarthak prastuti.प्रोन्नति में आरक्षण :सरकार झुकना छोड़े
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