आखिरकार मोदी भाजपा के पर्याय तो बन ही गए हैं, फिर चाहे पार्टी लोकसभा हारे या जीते। मोदी कम से कम पार्टी की दर्द हरने वाली बूटी न बन पाएं तो न सही, दर्द कम करने वाली और विरोधी को दर्द देने वाली मजबूत और परखी हुई जड़ी तो बन ही गए हैं।
Courtesy: Majul's creative caricature. |
अब आडवाणी
भाजपा में एक पीपल का पेड़ हैं। इस पीपल के पेड़ के आसपास घनी बस्ती है।
यह पेड़ खतरनाक है। जरजर भी हो रहा है और आंधी तूफान में गिरकर बड़ा
नुकसान भी पहुंचा सकता है। संघ एक तरह का प्रशासक है, जिसकी जिम्मेदारी है
कि इस पेड़ के आसपास से वह या तो घनी बस्ती कहीं शिफ्ट करे या इस पेड़ का
कद छोटा करे। घनी बस्ती को शिफ्ट करना नामुमकिन है। पीपल के पेड़ को छोटा
करना कठिन। यानी दोनों ही चीजें हैं मुश्किल ही, किंतु फिर भी नामुमकिन से
अच्छा है कठिन को चुना जाए। मोदी गोवा, मोदी दिल्ली दोनों ही आंधियां थी।
गिर रहीं हैं डालियां
आडवाणी
नाम के पीपल की कुछ डालें गिरीं या गिर रही हैं। बस्ती में अभी तक कोई
हताहत नहीं हुआ, पर लोग आशंकित हैं। हां एक शत्रुघ्न सिन्हा नाम की झोपड़ी
ने जरूर शिकायत की थी, कि पीपल की डगाल यहां गिर रही है। लेकिन बड़ा कोई
नुकसान नहीं हुआ।
डालियां काटना है, ताकि बंदर न बैठें
अगले
दो महीनों में आडवाणी के कद को कतरना संघ की और भाजपा की दोनों की मजबूरी
है। ये जितने बड़े रहेंगे, उतने बंदर (समर्थक) इनकी डालियों पर बैठे
रहेंगे। इनकी डालियां काटना होंगी। चूंकि पीपल जन्मजात भारी भरकम और बड़ा
होता है, लेकिन इमारती लकड़ी नहीं दे पाता। पूज्यनीय होता है, छायादार
होता है, खूबसूरत नागरीय वनों की शोभा होता है, जन्म जन्मांतर तक हाईली
ऑक्सीजेनरेटर रहता है, लेकिन घरों के पास फिर भी शाों में यह वर्जित है।
क्या करेंगे, कैसे करेंगे
अगले
विधानसभा चुनावों में आडवाणी को पार्टी कम से कम प्रचार सभाएं देगी। कम
रैलियां देगी। भाजपा की अंदरूनी एकाधिक मीटिंग में मार्जनाइज करेगी। चूंकि
पार्टी को एक सुपर हिट रीजन भी मिल गया, कि आडवाणी स्वयं नहीं आए कहेंगे
तो मीडिया मान भी जाएगा। अब जब विधानसभा की आंधी चलेगी, जिसमें एक के बाद
एक सभाएं मोदी करेंगे। सतत बोलेंगे, यहां, वहां, ये वो। लोग मोदी की
खुमारी में डूब जाएंगे। जब विधानसभा की धुंधलापन, कुहांसा छटेगा, तब तक
आडवाणी जी का कद इतनाभर रह जाएगा कि वे अगर गिरे तो 100 मीटर भी प्रभावित
नहीं कर पाएंगे।
मोदी तो नेता बन ही गए, अब हारो या जीतो
मोदी
का भाजपा की ओर से पीएम प्रत्याशी बनना तय है। अब इसका औपचारिक एलान आज हो
या आज से महीनों बाद। फर्क नहीं पड़ता। मोदी के सामने खुद को साबित करने
से लेकर सबको लेकर चलने, विरोधियों का मुंह बंद करने, दंगों के दाग को
छुड़ाने जैसी कई सारी विकराल चुनौतियां बराबर ही रहेंगी। हां अगर उन्हें
ठेका दे दिया जाता है, तो शायद कुछ कम हो सकती हैं। आखिरकार मोदी भाजपा के
पर्याय तो बन ही गए हैं, फिर चाहे पार्टी लोकसभा हारे या जीते। मोदी कम से
कम पार्टी की दर्द हरने वाली बूटी न बन पाएं तो न सही, दर्द कम करने वाली
और विरोधी को दर्द देने वाली मजबूत और परखी हुई जड़ी तो बन ही गए हैं।
वे कहते हैं कि वे समर्थक हैं, पर कैसे मानें?
बहरहाल
आडवाणी बड़ा रोड़ा हैं। पिछले दिनों आडवाणी के एक करीबी मित्र और सिंधी
समाज के बड़े नेता के बारे में जानने का मौका मिला, उनके मुताबिक आडवाणी
भी चाहते हैं कि मोदी ही पीएम के लिए एप्रोप्रिएट हैं। लेकिन वक्त थोड़ा
अभी वैसा नहीं है, कि उन्हें घोषित किया जाए। यह उनका एक तरह से न्यूट्रल
टाइप का बयान था। मसलन वे आडवाणी को छोडऩा नहीं चाहते थे और मोदी भाजपा के
भविष्य हैं तो उनसे पंगा लेना नहीं चाहते थे। तभी शायद उन्होंने आडवाणी के
एक स्पोक्समैन की तरह यह बोला। किंतु सवाल है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी
पार्टी के शीर्ष नेता और दुनिया के सबसे बड़े वैचारिक संगठन के शीर्षतम
व्यक्ति आडवाणीजी इतना भी कम्युनिकेट नहीं कर पा रहे हैं कि मैं पीएम की
रेस में नहीं हूं, बल्कि सिर्फ इतना कह रहा हूं, कि मोदी की घोषणा इतने
जल्दी मत करो और इसलिए मत करो। अगर इतना साफ वे कम्युनिकेट नहीं कर पा रहे
हैं, तो यह बात सही हो ही नहीं सकती कि वे चाहते हैं पीएम मोदी बनें। खैर।
-सखाजी
-सखाजी
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