शीत बतास औे पाला सहे नित
ठूंठ बने हिय ताना सुने जग
कूंच गई फल फूल मिले
तेरे साहस पे नतमस्तक सब
पल्लव कोंपल है गोद हरी
रस भर महुआ निर्झर झर झर
सब खीझत रीझत दुलराते
सम्मोहित कुछ वश खो जाते
मधु रस आकर्षित भ्रमर कभी
री होली फाग सुनावत हैं
छलकाए देत रस की गागर
ज्यों अमृत पान करावत है
ऋतुराज वसंत भी देख चकित
गोरी चंदा तू कर्पूर धवल
रचिता बनिता दुहिता गुण चित
चहुं लोक बखान बखानत बस
शुध चित्त मर्मज्ञ हरित वसनी
पावन करती निर्झर जननी
बल खाती सरिता कंटक पथ
उफनत हहरत सागर दिल पर
कुछ दबती सहती शोर करे
गर्जन बन मोर नचावत तो
कुछ नाथ लेे नाथ रिझावत है
मंथन कर जग कुछ सूत्र दिए
मदिरा मदहोश हैं राहु केतु
कुछ देव मनुज संसार हेतु
री अमृत घट करुणा रस की
मै हार गया वर्णन सिय पी
------------------------
सुरेंद्र कुमार शुक्ल
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत
1 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
अन्तर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस की बधाई हो।
एक टिप्पणी भेजें
Thanks for your valuable comment.