सांखला – वंशोत्पत्तिः
सांखला, पंवार (परमार) राजपूतों की ही एक शाखा है। पंवारा से सांखला शाखा की उत्पत्ति का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है – सांखला शाखा के पंवार राजपूतों के आदिपुरुष वैरसी के परपितामह (पड़दादा) धरणीवराह पंवार जूने किराडू (बाड़मेर) का शासक था। धरणीवराह का पुत्र बहाड़ हुआ जिससे पंवारों का यह राज्य गया। बाहड़ पंवार के दो पुत्र हुए– सोढ़ो तथा वाघ पंवार। सोढ़ा (सोढो) तो अमरकोट की चरफ चला गया, जहां सूमरों ने उसे अमरकोट से 14 कोस दूर ‘रातो कोट’ देकर बसाया।
बाहड़ोत वाघ पंवार के वंशज ही सांखला कहलाये। ‘सांखला शाखा के नामकरण का सम्बन्ध देवी सचियाय माता द्वारा प्रदत्त शंख को लाने से है। वाघ पंवार बाहड़ोत कुछ समय तक चौहटण गांव में रहा, फिर चौहटण छोड़कर एक नया गांव बसाया जो उन्हीं के नाम पर वाघोरिया कहलाया। इसी क्षेत्र के गांव मूधियाड़ में गैचंद पड़िहार के घर बाघ पंवार की भूवा (बाहड़ की पुत्री) थी। वाघ का सम्पर्क अपनी भूवा तथा फूफा गैचंद पड़िहार से होता रहता था। गैचंद पड़िहार महत्त्वकांक्षी और शकी जागीरदार था। वाघ पंवार की कर्मठता से वह उस पर सन्देह करने लगा तथा अन्य राजपूतों ने भी उसे बहकाया कि वाघ पंवार से आप को खतरा है। परिणाम स्वरूप शकी गैचंद पड़िहार ने अपनी ही पली के भतीज वाघ पंवार को मरवा दिया। वाघ पंवार की पली गर्भवती थी, जिसे सुरक्षित रखने हेतु वाघ का स्वामी भक्त सेवक मुंहता सुगणा अजमेर ले गया। कुछ ही दिनों बाद वाघ की पली के प्रसव हुआ, उसने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वैरसी रखा गया। यही वैरसी प्रथम सांखला राजपूत के रूप में प्रसिद्ध हुआ। (प्रारम्भ में तो यह वैरसी पंवार ही कहलाता था, ‘सांखला’ नाम आगे चल कर देवी सचियाय माता के आदेश से धारण हुआ)। वैरसी पंवार अपने बाल्यकाल से ही सचियाय माता की आराधना में लग गया। अपनी आराध्या देवी के प्रति अटूट आस्था रखते हुए वैरसी, माता सचियाय के अनन्य उपासक के रूप में प्रतिषिठत हुआ। उसने गैचंद पड़िहार को मारकर अपने पिता की हत्या का बदला लेने की कामना से कँवल पूजा करके सचियाय माता को अपना सिर चढाने का संकल्प किया। सपने में सचियाय माता ने आशीर्वाद दिया और गैचंद पड़िहार के वध हेतु दिशा-निर्देश प्रदान किया, तदनुसार वाघोत वैरसी पंवार ने अपने पिता के हत्यारे अपने फूफा (भूहड़ा) गैचंद पड़िहार को मार गिराया।’
तत्पश्चात् सचियाय माता को अपना सिर चढ़ाने हेतु ओसियां आया। इसी प्रसंग में मुंहता नैणसी लिखते हैं – । “पछै ओसियां जात आयौ। आप एकंत देहुरो जड़ने कॅवलपूजा करणी मांडी। तरै देवीजी हाथ झालियो कह्यो – ‘म्हें थांरी-सेवा-पूजासों राजी हुवा; तोनै माथो बगसियो, तू सोना रो माथो कर चाढ।’ आप रै हाथ रौ संख वैरसी नू दियो, कह्यो – ‘ओ संख बजायनै सांखलो कहाय।”
अर्थात् [देवी सचियाय माता ने अपने हाथ में धारण किया हुआ शंख वाघोत वैरसी पंवार (परमार) को दिया तथा कहा कि यह शंख बजा कर (शंखनाद कर के) ‘सांखला’ कहलाओ]।। इस प्रकार वाघोत वैरसी पंवार सर्वप्रथम अपनी आराध्य देवी सचियाय माता के आदेश से उनके द्वारा प्रदत्त शंख बजाने के कारण सांखला कहलाया। निष्कर्ष यह हुआ कि वैरसी पंवार सचियाय माताजी के आशीर्वाद और आज्ञा से ही वैरसी सांखला कहलाया। इस प्रकार पंवार राजपूतों से ही सांखला शाखा (गोत्र) का उद्भव हुआ, अर्थात् सांखला वंश की उत्पत्ति हुई, जिसका आदि पुरुष वैरसी सांखला हुआ। कुल-परम्परा (केड़ परापरी) :
वैरसी सांखला ने गैचंद पड़िहार की जागीरी के गांव-मूधियाड़ का कोट (गढ़) ढहा कर, उसी सामग्री से गांव रूणवायं (रूण) में रूंणकोट का निर्माण करवाया।
वैरसी सांखला के पुत्र राणा राजपाल के तीन पुत्र हुए छोहिल, महिपाल और तेजपाळ। छोहिल के वंशज रूंण पर काबिज रहे अतः वे रूणेचा कहलाये। वैरसी सांखला के पोत्र रायसी महिपाळोत (महिपाल के पुत्र रायसी) सांखला ने रूण छोड़ कर जांगळ पर आधिपत्य किया, उसके वंशज जांगळवा सांखला कहलाये। इस प्रकार सांखला वंश से कई केड़ (कुल) चले जैसे रूणेचा और जांगळवा ये सांखलाओं के ही केड़ है। सांखलों की ऐसी कई उपशाखाएं (केड़) होगी। प्रतिपाद्यानुसार हमारा सम्बन्ध सांखलों के जांगळवा केड़ (कुल) से है। इसी कुल परम्परा (केड़) में हरभू (हड़बू) सांखला हुआ। . वैरसी सांखला की चौथी पीढ़ी में उसका परपोत्र (पड़पोता) रायसी महिपालोत सांखला ने रूंण (रूणवाय) छोड़ कर जांगळू पर आधिपत्य के उद्देश्य से जांगळू के तत्कालीन शासक दहियों के कैसा उपाध्याय (कैसा उपधिया) नामक एक ब्राह्मण को अपने विश्वास में लेकर उसकी सलाह और सहायता से नियोजित ढंग से 50-60 सेजवाळों (महिलाओं की वाहक बैलगाड़ियां) में बैठकर सांखले सिरदारों ने केसा उपाधिया द्वारा जांगळू गढ़ के द्वारपाल को जगा कर, उसे भ्रम में रखते हुए मुख्य द्वार(प्रोळ) खुलवाकर कोट में प्रवेश किया और अपने अस्त्र शस्त्र धारण किए हुए सांखलों ने ‘सेजवाळों से कूद कर सभी दहियों को मार गिराया। राणा रायसी सांखले की जांगळू में ‘आंण-दुहाई’ फिर गई। इस प्रकार रायसी सांखला ने जांगळू पर आधिपत्य किया।
मुंहता नैणसी के शब्दों में – “दहियांरा जिकै कोट मांहै हुता सु सोह कूट मारिया।। सांखला राणा रायसीरी जांगळू में आंण फिरी। रायसी इण भांत जांगळू लीवी।’
राणा रायसी सांखला के केड़ (कुल) में चौथी पीढ़ी में राणा कंवरसी (कुंवरसी) सांखला हुआ, जो राजस्थान के इतिहास में प्रसिद्ध है। इसकी पत्नी का नाम भारमल था। कुंवरसी सांखलो और भारमल राजस्थानी साहित्य में भी प्रसिद्ध पात्र हैं।
– इसी कुल (केड़) की छठी पीढ़ी में करमसी सांखला हुए, जो अनन्य हरि-भक्त तथा विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न कवि के रूप में राजस्थानी साहित्य के इतिहास में सुप्रसिद्ध है। सांखला करमसी रूणेचा रचित ‘क्रिसनजी री वेलि” राजस्थानी साहित्य भण्डार की अनुपम मणि है। वि.स. 1600 के आसपास अथवा इससे भी पूर्व रचित यह गौरव ग्रन्थ ‘क्रिसन-रूकमणी-री वेलि’ की रचना करते समय उनके लिए निश्चय ही अनुकरणीय और प्रेरणा स्रोत रही है। करमसी सांखला कृत इस वेली के कुल 22 छन्द ही उपलब्ध हैं। सम्पूर्ण रचना का यह अंतिम अंश प्रतीत होता है। इसकी प्रति बीकानेर के राव बीकाजी के भाई बीदा क पौत्र सांगा के पुत्र सांवलदास जी ने वि.सं.1634 को बनवाई। वेलि के अंतिम अंश क रूप में उपलब्ध इन 22 छन्दों से ही, उनकी विलक्षण काव्य प्रतिभा का परिचय हो जाता है।
ये सांखला करमसी, राणां कुंवरसी सांखला के पौत्र तथा राणां राजसी के पुत्र थे, फिर भी इनका नाम सांखला करमसी रूणेचा के रूप में प्रसिद्ध हुआ न कि सांखला करमसी जांगळवा। इसका कारण संभवतया यही रहा होगा कि पाटवी पुत्र नहीं होने के कारण इन्हें जांगळू में रहना अनिवार्य नहीं था अतः ये रूंण में आकर बस गये होंगे, जिसके कारण लोगों ने रूणेचा समझ लिया होगा।
राणा आंबा इनका भाई था, (आंबा, राणा राजसी का पाटवी पुत्र होने के कारण ही उनका उत्तराधिकारी हुआ) जिसे दूसरे इर्षालु भाई हूंजा राजसीयोत ने मार कर जांगळू पर आधिपत्य किया (राजगादी प्राप्त की) इसी मूजा के बेटे (संभवतया पाटवी पुत्र) गोपाळदे की पत्नी मांगळियांणी गर्भवती थी, जिसे उनके स्वामीभक्त सेवक धरमा वीठू (चारण) ने उसके पीहर – खींवसर में उसके पिता कीलूजी मांगळिया के पास सुरक्षित पहुंचा दी। वहीं उसके प्रसव हुआ जिसमें पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम महराज (मेहराज) रखा गया। यह महराज सांखला कीलू मांगळिया का दोहित्र था।
इसी गोपाळदेउत (गोपाळजी के पुत्र) महराज सांखला ने 15 वर्ष की अल्प आयु में ही अपने बंधु-बांधवों को साथ लेकर जांगळू पर आक्रमण किया तथा पूंजा और उसके पुत्र अदा, (बाप-बेटा) दोनों को मार कर उनकी लाशें ढ़ाकसी के कुएँ में डाली। इसी अवसर पर महराज सांखला और उसके साथियों ने पूंजा और ऊदा के बहुत से साथियों को मारा। उज्ज्वल चरित्र के स्वामी महराज सांखला ने रक्त रंजित जांगळू को नहीं स्वीकारा। यह माणकराव सांखला के बेटों को जांगळू सौंप कर जोगी के तालाब के दो कोस पूर्व में पीहलाप गांव में आकर बसा। मेहराज सांखला ने गांव पीहलाप के आस-पास तीन तालाब खुदवाये। कुछ समय बाद महराज सांखला पीहलाप छोड़ कर नागोर के राव चूडा वीरमोत (वीरमदे का पुत्र चूडा) से मिला तथा उनकी स्वीकृति से गांव भंडेल में जा बसा, राव चूडाजी की सेना भी भंडेल में ही रहती थी। | मेहराज सांखला प्रसिद्ध शंकुन विचारक था। शकुनों के आधार पर वह भविष्य जान लेता था। अंत में जैसलमेर के राव रांणगदे भाटी के साथ युद्ध करते हुए महराज सांखला वीर गति को प्राप्त हुए।
इसी महापराक्रमी, पुण्यात्मा और परोपकारी पुरुष गोपाळदेओत महाराज (मेहराज) सांखला के छह पुत्रों में ज्येष्ठ (पाटवी पुत्र) हड़बूजी सांखला है जो राजस्थान के प्रसिद्ध हिन्दू पीरों में उल्लेखनीय है।
जीवनवृत्त : हड़बू-सांखला
सांखला वंश के आदि पुरुष मां सचियाय देवी के अनन्य उपासक वैरसी सांखला की आठवीं पीढ़ी में शकुन-विशेषज्ञ, वचन सिद्ध योग-साधक तथा चमत्कारिक व्यक्ति के स्वामी हड़बूजी सांखला हुए – | अपने पिता जांगळवा मे मेहराज सांखला की वीरगति के पश्चात् हड़बूजी सांखला उनकी जागीरी का गांव भंडेल छोड़कर फलोधी (वर्तमान नाम फलोदी) की ओर आ गये तथा फलोधी परगने के गांव सिरड़ से कुछ दूर जंगल में एक स्थान पर अपना डेरा स्थापित किया (अस्थायी निवास किया)। इस प्रसंग में मुंहता नैणसी की ख्यात में लिखित विवरण निम्न प्रकार है – ।
“तठा पछै मैहराज रो बेटो हरभम भूडल सू छाडनै फलौधी रै गांव चाखू, तिण सू कोस 3, गांव सिरड़थां कोस 5 हरभामजाळ छै, तठे आंण गाडे छोड़िया तठे रामदे पीर नै हरभम रै परसंग हुवो। जोगी बाळनाथ रामदे पीर रै माथै हाथ दिया था। तिण ही हरभम सांखलै माथै हाथ दिया। हरभम हथियार छोड़ने इण राह में हुवो।” |
इस प्रसंग में मेरे विनम्र मतानुसार ‘हरभमजाळ’ किसी गांव का नाम नहीं है। अपितु ‘जाळ’ के एक वृक्ष का नाम है। ‘जाळ’ का एक वृक्ष देख कर उसके समीप हड़बूजी ने ‘डेरा’ दिया होगा अथवा अपने ‘डेरे’ (अस्थायी निवास या शिविर) के निकट स्वयं हड़बूजी (हरभम) सांखला ने जाळ का वृक्ष लगाया होगा। दोनों ही स्थितियों (संभावनाओं) में यह जाळ का वृक्ष हड़बूजी (हरभमजी) के नाम पर हरभमजाळ कहलाया।
इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि हड़बू-सांखला के लिए मुंहता नैणसी री ख्यात’ में हरभू तथा हरभम नामों का प्रयोग मिलता है। अतः हरभम सांखला द्वारा लगाई जाने अथवा सींची जाने के कारण जाळ का वह वृक्ष हरभम जाळ’ कहलाया।
बाबा रामदेवजी और हड़बू सांखला परस्पर मौसी के बेटे भाई कहे जाते हैं। इस विषय में प्रामाणिक तथ्य अद्यावधि अपेक्षित है। जो भी हो हड़बूजी और बाबा रामदेवजी के प्रगाढ़ मैत्री सम्बन्ध तो लोक प्रसिद्ध है। यद्यपि हड़बूजी आयु में रामदेवजी से बहुत बड़े थे। (ये समव्यस्क नहीं थे) मुंहता नैणसी की उपर्युक्त पंक्तियों के अनुसार ये गुरु भाई भी थे। यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि हड़बूजी सांखला ने बाबा रामदेवजी के सम्पर्क आने पर अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग कर दिया था। वे एक योग-साधक तथा चमत्कारिक संत और सिद्ध पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए। तभी तो उनकी गणना रामसापीर (बाबा रामापीर अथवा बाबा रामदेवजी) के साथ राजस्थान के प्रसिद्ध पांच पीरों में हुई।
हड़बूजी सांखला निश्चित रूप से रावजोधाजी के समकालीन थे। जब राव, जोधाजी विपत्ति ग्रस्त हुए, वे मंडोर को मेवाड़ के आधिपत्य से मुक्त करवाने के लिए चिन्तित थे। उन्हीं दिनों राव जोधाजी, हड़बूजी के आशीर्वाद हेतु उनके पास गये। हड़बूजी ने राव जोधाजी को विजयश्री प्राप्त करने के आशीर्वाद के साथ ही एक कटार भी प्रदान की। वह कटार जोधपुर राजघराने की पूजनीय वस्तुओं में से एक थी, जो कालान्तर में बीकानेर राजघराने में वेरीसाल नगाड़े आदि पूज्य वस्तुओं के साथ आज भी वहीं सुरक्षित है।
राव जोधा को जब विजयश्री प्राप्त हुई, मंडोर पर उनका आधिपत्य हुआ तो उन्होंने अपने राज्य के फलोदी परगने का गांव बैंगटी हड़बूजी सांखला को जागीर के रूप में समर्पित करके उनके प्रति कृतज्ञता व सम्मान अभिव्यक्त किया।
इस तथ्य की पुष्टि मुंहता नैणसी की ख्यात से भी होती है – “तठा पछै कितरेहेक दिने राव जोधाजी विखा मांहे. आया। सांखलै हरभम जीमाया नै आ दवा दी – ‘इण मूगा पेट माहै थकां जितरी भू घोड़ो फेरीस तितरी धरती थारा बेटा पोतरा भोगवसी। पछै राव जोधै रे धरती हाथ आई। पछै राव जोधै हरभम नू बैंहगटी सांसण कर दीनी। तिण बैंहगटी में हमैं ही हरभम रा पोतरा रहे छै।’
हड़बू सांखला शकुन-विचार के विशेषज्ञ के रूप में विख्यात हुए। इस विषय में दो ऐतिहासिक प्रसंग महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है। एक तो बाबा रामदेवजी द्वारा जीवित समाधि लेने के कई दिनों बाद उनसे इनका मिलन। अर्थात् रामदेवजी ने जीवित समाधि के पश्चात् ‘पहला पर्चा (प्रथम चमत्कार) के रूप में इन्हें साक्षात् दर्शन दिये। यह प्रसंग इसी अध्याय में आगे के पृष्ठों में यथा स्थान विस्तार पूर्वक प्रस्तुत किया गया है।
दूसरा प्रसंग इनकी दोहित्री लक्ष्मी का मारवाड़ की महारानी एवं यथा समय राजमाता बनने के सम्बन्ध में है। इस ऐतिहासिक प्रसंग में एक विशेषज्ञ शकुन विचारक के रूप में हड़बूजी सांखला ने ज्योतिष विद्या की तुलना में शुकन को श्रेष्ठ सिद्ध किया है। ज्योतिष ज्ञान (जिसे विद्वानों द्वारा विज्ञान मान लिया गया है) पर यह शकुन विचार की विजय पताका फहरा कर हड़बूजी सांखला ने यह सिद्ध कर दिया कि शकुन विचार केवल एक लोक विश्वास ही नहीं अपितु लोक विज्ञान है।
शकुन सम्बन्धी इस ऐतिहासिक प्रसंग का सार यह है कि शकुनों के आधार पर हड़बूजी सांखला द्वारा की गई भविष्यवाणी के आधार पर ही इनकी कुरूप दोहित्री लिछमी (लक्ष्मी) का विवाह जोधपुर के राव जोधाजी के पुत्र सूजाजी के साथ हुआ, जो पाटवी (ज्येष्ठ पुत्र) न होते हुए भी (बड़े भाई सातल की निसन्तान मृत्युपरान्त)सिहांसनारूढ़ हए, इस प्रकार लक्ष्मी नौकोटि मारवाड़ की महारानी हुई, जबकि ज्योतिषियों ने उसे खोटे नक्षत्रों में उत्पन्न और भाग्यहीन बता कर जंगल में फिंकवा दिया था।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि हड़बूजी की बेटी का विवाह जैसलमेर के केहरजी भाटी के पुत्र कलीकरण भाटी के साथ हुआ था।
मारवाड़ की परम्परानुसार बेटी का प्रथम प्रसव पीहर में होता है अत: गर्भावस्था में वह अपने माता-पिता के घर बैंगटी में रह रही थी। हड़बूजी अपने कुछ सेवक साथियों सहित फलोधी आए हुए थे। उसी दिन उनकी बेटी ने एक पुत्री को जन्म दिया। नानीजी (हड़बूजी की ठकुरानी) ने ज्योतिषयों को तत्काल बुला कर नक्षत्र पुछवाये तो ज्ञात हुआ कि बच्ची खोटे नक्षत्रों में उत्पन्न होने के कारण अशुभ है। अमंगल की आशंका से नवजात बच्ची को चीथड़ों में लपेट कर दासियों द्वारा जंगल में फिंकवा दिया गया। सूर्यास्त के समय फलोधी से बैंगटी आते हुए हड़बूजी ने जंगल में किसी तीतर (पक्षी विशेष) की आवाज सुनी तो अपने सेवकों को रूकने का संकेत किया तथा स्वयं भी रुक गये।
कुछ ही देर में वही तीतर पुन: बोलने लगा साथ ही दूसरी ओर से मार्ग से कुछ दूरस्थ झाड़ियों में से बाळसाद (नवजात शिशु का रोना) सुनाई दिया। बोलते हुए तीतर की दिशा, कोण, दूरी तथा वार समय आदि का विचार करके हड़बूजी ने अपने एक सेवक को झाड़ियों से रोते हुए शिशु को ले आने की आज्ञा दी। सेवक खाली हाथ लौटा, कारण पूछने पर बतया की एक ‘गीगली’ (कन्या) फटे-पुराने कपड़ों (चीथड़ों) में लेपट कर कोई फेंक गया है, न जाने किसका पाप है? उसे लाना मैंने ठीक नहीं समझा। हड़बूजी ने उसे डॉट कर वापिस भेजकर नवजात कन्या को मंगवा लिया। सांयकाल तक अपने घर (गांव बैंगटी या बैंगहटी) पहुंचे और सेवक के साथ बच्ची को घर में भिजवा दी। सेवक ने किसी दास के हाथ वह बच्ची ठकुरानी (हड़बूजी की धर्मपत्नी) के पास पहुंचाई तो ठकुरानी ने पहचान ली तथा किसी विशवसनीय दासी के साथ बाहर कोटड़ी (बैठक) में मित्रों तथा अतिथियों से घिरे – बैठे हड़बूजी को संकेत करवा कर घर में बुलवाया। एकान्त में ठकुरानी ने उनसे कहा कि ज्योतिषयों की राय में मूलनक्षत्रों (बुरे नक्षत्रों) में उत्पन्न होने के कारण यह कन्या अशुभकारी है, इसीलिए मैनें इसे जंगल में फिंकवाया था। यदि इसका जन्म अपने पिता के घर होता तो वे तो मारकर फिंकवाते। हड़बूजी ने समझाते हुए कहा कि – ज्योतिष विद्या झूठ हो सकती है किन्तु मेरे शकुन कभी झूठे नहीं हो सकते। मुझे जो शकुन हुए हैं, उनके अनुसार यह कन्या दोनों कुल (पीहर तथा ससुराल) तो उज्ज्वल करेगी ही, इसमें कोई संदेह नहीं, साथ ही तीसरे कुल (ननिहाल) का भी मान बढ़ायेगी। धन्यभाग हमारा कि हमें परमभाग्यशाली दोहित्री प्राप्त हुई है। आप निश्चिंत होकर इसका लाललन पालन करो। उन्होंने अपनी बेटी को भी इस कन्या के जन्म की बधाई दी और उपर्युक्त आधार पर उसे भी पूर्ण आश्वस्त किया। बच्ची का नाम लिखमांदे (लिछमी) अर्थात् लक्ष्मी रखा गया। मुंहता नैणसी की ख्यात में भी लिखमांदे तथा लिछमी ये दोनों नाम रूप प्रयुक्त हैं।
लिछमी अपनी कुरूपता के कारण, बाल्यकाल में ही उसके दो दान्त असाधारण रूप से बड़े थे, इसलिए वह ‘दांतलड़ी’ के ‘नांवटिये’ (उपनाम) से चर्चित हो गयी। ठकुरानी का आग्रह था कि उसके जल्दी हाथ पीले किये जाय (विवाह किया जाय) अन्यथा कुल को संकट देखना पड़ सकता है। वयस्क होने से पूर्व ही लिछमी के विवाह हेतु बारम्बार किए जा रहे ठकुरानी के आग्रह के वशीभूत होकर हड़बूजी सांखला ने पुरोहित के हाथ पोकरण के जागीरदार राव खींवेजी (राव खींवजी) को भेजा गया किन्तु रांव खींवेजी ने यह कह कर नारियल वापिस कर दिया (सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया) कि यह सगाई (सम्बन्ध) मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि – सुनने में आया कि वह दांतड़ली (बड़े दांतों वाली) है। पुरोहित (ब्राह्मण) निराश होकर बैंगटी लौट आया। हकीकत सुन कर लिछमी की मां तथा नानीजी बहुत दु:खी हुए। हड़बूजी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि – पोकरण का राव खींवजी तो हत्भागा है, वह भाग्यहीन हमारी बाई लिछमी को कैसे प्राप्त कर सकता है? इसे यह तो किसी परम भाग्यशाली पुरुष के साथ बिहायी जायेगी। इस प्रकार तीन चार ठिकानों द्वारा छिमी के सम्बन्ध हेतु मना कर दिया गया (नारियल वापिस लौटा दिये गये)। ठकुरानी और उसकी बेटी बेचैन रहने लगी किन्तु हड़बूजी निश्चिन्त थे, उन्हें अपने शकुनों के प्रति दृढ़ आस्था और अटूट विश्वास था। वे अब भी यही कहते कि समय की धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करो। लिछमी भागयवान कन्या है, यह किसी परम भाग्यशाली के ही कुल की शोभा बनेगी और उसके वैभव में अभिवृद्धि करेगी।
अन्ततोगत्वा विधाता द्वारा निश्चित समय आया, सुसंयोग बना और जोधपुर के राव जोधाजी का राजकुमार सूजा आखेट करते हुए अपने चंद साथियों के साथा गांव बैंगटी के पास से निकला तो उसने अपने सेवक के माध्यम से लिछमी के साथ अपनी सगाई का प्रस्ताव भेजा। बातचीत हुई तथा राजकुमार सूजाजी जोधावत के साथ हड़बू सांखला की दोहिती तथा जैसलमेर निवासी भाटी कलीकरण केहरोत के पुत्री की सगाई हो गई। ‘झट मगनी फट शादी’ की कहावतानुसार जल्दी ही विवाह भी हो गया। नव कोटि मारवाड़ के राव जोधाजी के पुत्र राजकुमार सूजाजी ने हड़बू जी के यहां तोरण वांदा (तोरण वन्दना की तो) हड़बूजी के घर-परिवार के साथ-साथ सम्पूर्ण बैगटी गांव के समस्त लोग गौरवानुभूति से गद्गद् थे; फिर कलीकरण । परिवार में तो इस आश्चर्यजनक सम्बन्धोत्पन्न हर्ष का आरोपार नहीं रहा।
ठकुरानी ने हड़बूजी के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति करते हुए, उनके शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान की प्रशंसा करते हुए लिछमी के विषय में उनकी भविष्यवा बधाई दी तो हड़बूजी ने कहा – बधाई के सही अवसर हेतु अभी प्रतीक्षा करो।
यद्यपि राजकुार सूजा पाटवी नहीं था, अत: जोधपुर का राजा बनने की बात असंभव थी, किन्तु विधि का विधान नहीं टलता, राव जोधाजी का पाटवी पुत्र राव सातल की मृत्यु हो गई। राव सातल के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए जोधपुर के राजसिंहासन पर सूजाजी का राज्याभिषेक हुआ। राव सूजाजी नवकोटि मारवाड़ के नरेश तथा लिछमी (लिखमांदे) नव कोटि मारवाड़ की महारानी हुई।
राव सूजाजी के दो राजकुमार – नरा तथा वाघा, वयस्क होने पर फलोधी तथा बगड़ी परगनों के शासनाधिकारी बनाये गये। राजमाता लिखमांदे (लिछमी देवी) बड़े-बेटे नरा के साथा फलोधी में थी कि एक दिन पोकरण के नामोल्लेख से उसने ठंडी श्वास (नि:श्वास) छोड़ी, संयोगवश नरा ने देख लिया, पूछने पर ज्ञात हुआ कि जब वह अविवाहित थी तो पोकरण के राव खींवजी ने उसे दांतड़ली कह कर उसकी निन्दा की थी। नरा ने उसी क्षण पोकरण पर आधिपत्य का निश्चय किया। दूरदृष्टा और कुशाग्र बुद्धि नरा ने अपने एक दरबारी पुरोहित (ब्राह्मण) के साथ मिल कर योजना बनाई। पुरोहित का ससुराल पोकरण में था। वह वहीं रहकर राव खींवजी की गतिविधियों पर टोह रखने लगा। यह प्रचारित कर दिया कि वह नरे सूजावत से लड़कर आ गया है। अब वहां नहीं जायेगा। उसका परिवार भी पोकरण में ले आया गया था।
शीतकाल में राव खीवोंजी अपनेसभी साथियों सहित पोकरण परगने के गांव उगरास की सीमा में शिकार के लिए आया, यहीं मद्यपान तथा मांस भक्षण में लगा रहा। नरैजी का पुरोहित, पोकरण के द्वारपाल का कटोरा लेकर उसके लिए मांस लाने के बहाने फळोदी आया, अग्रिम सन्देश भी भेज दिया था। सैन्य दल लेकर नरा सूजावत ने पोकरण पर आधिपत्य हेतु प्रस्थान किया।
प्रस्थान के समय उनके ‘क्रोड़ी ध्वज’ घोड़े ने जोर से ‘फुर्राटा’ किया, जो तत्कालीन परगना पोकरण के ग्राम उगरास की शरहद में राव खींवा ने सुना। आक्रमण आशंका से चिन्तित होकर कुछ घुड़सवारों को फलोदी से पोकरण की ओर आने मार्ग की तरफ खोज-खबर के लिए भेजा। उन्हें नरा सूजावत द्वारा भ्रमित कर अतः उन्होंने वापिस जाकर कहा कि नरा बीकावत (बीकाजी के पुत्र नरा) अमर कोट जा रहा है। घोड़ा नरा-सुजावत से मांग कर लिया है। राव खावा निश्चित हो गया।
उधर नरा सूजावत ने जाकर पोकरण के गढ़ को घेर लिया। पुरोहित ने मुख्य द्वार (पोल) पर जाकर द्वारपाल को आवाज दी, उसने खिड़की खोली तो पुरोहित के पास में ही खड़े नरे सूजावत नेबरछी के प्रहार से द्वारपाल को मार गिराया। गढ़ पर . आधिपत्य करके पोकरण नगर में नरे सूजावत की ‘आंण-दुहाई’ फिरवादी गई (विजय की घोषणा करवा दी गई।) । गांव उगरास की सीमा में अपने सैनिकों तथा साथियों सहित ‘दारूड़ा-मारूड़ा’ में मस्त (मद्यपान तथा गीतों में लीन) राव खींवाजी (खिंवजी) को राव नरै सूजावत ने उसी के सेवकों द्वारा सूचित करवाया कि ‘दांतड़ली रै जायोडै नरै पोकरण लीवी ‘ अर्थात् बड़े दांतों वाली (लिछमी) के बेटे नरे ने पोकरण पर आधिपत्य कर लिया है।
पोकरण पर आधिपत्य करके नरै सूजावत ने गढ़ के अन्त:पुर की सभी महिलाओं को उनके आभूषण तथा नकदी सहित ससम्मान गढ़ से विदा कर गांव उगरास की सीमा तक अपने सैनिकों के पहरे में पहुंचाया।
उस दिन पोकरण पर नरे सूजावत का अधिकार हुआ, जो तीन पीढ़ियों तक रहा।
इस प्रकार शकुन पर आधारित हड़बूजी सांखला की भविष्यवाणी अक्षरसः सत्य सिद्ध हुई। इनको शकुन विशेषज्ञ और चमत्कारिक मानते हुए इतिहासकार ओझाजी ने लिखा है कि – “यह सांखला (परमार) जाति का राजपूत था और बैंगटी का रहने वाला था। यह बड़ा शकुन जानने वाला और करामाती माना जाता था तथा राव जोधा के समय में विद्यमान था।
एक परोपकारी महात्मा तथा समाज-सेवी के रूप में प्रसिद्ध हड़बूजी सांखला अपनी बैलगाड़ी में अनाज भर कर गांव-गांव घूम कर अकाल-ग्रस्त तथा अभाग्रस्त लोगों को बांटा करते थे। इसके अतिरिक्त गो भक्त हड़बूजी अकाल के दिनों में अपनी इसी गाड़ी में गायों के लिए चारा भर कर गांव-गांव जाकर बांटा करते थे। इनकी वह गाड़ी चारा एवं अनाज के अक्षय भण्डार के रूप में लोक प्रसिद्ध हुई। वह गाड़ी आज भी राजस्थानी लोक संस्कृति के पूज्य तत्त्व के रूप में विख्यात है, जो ग्राम बैंगटी में हड़बूजी के मंदिर में विद्यमान है।
सुप्रसिद्ध शकुन विचारक, भविष्य द्रष्टा, चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी तथा संत प्रवृत्ति के महापुरुष हड़बूजी सांखला एक सिद्ध योग साधक भी थे। बाबा रामदेवजी की भांति ही हड़बूजी ने भी अपनी कर्म एवं साधना स्थली ग्राम बैंगटी में जीवित समाधि ली।