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शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ७-संदेश--भाग एक-- -डा श्याम गुप्त...

Written By shyam gupta on गुरुवार, 14 अप्रैल 2011 | 1:49 pm




   शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
         --पिछली पोस्ट -- इस सर्ग ६-शूर्पणखा में..वर्णित किया गया कि कैसे शूर्पणखा अपने प्रणय निवेदन के अस्वीकार  होने पर अपने वास्तविक स्वरूप में आकर सीताजी पर हमला बोलने को उद्यत हो जाती है--- प्रस्तुत सप्तम सर्ग -संदेश में शूर्पणखा के नासिका हरण द्वारा रावण को युद्ध का संदेश भेज जाता है.....कुल छंद..४५....जो तीन भागों मे प्रस्तुत किया जायेगा.....प्रस्तुत है भाग-एक...छंद १ से १६ तक..... 
१-
सीता पर करने वार चली,
कामातुर राक्षसी नारी  |
पा भ्राता की स्वीकृति, इंगित ,
लक्ष्मण ने केश पकड़ उसको;
नाक-कान से हीन कर दिया,
रावण को सन्देश दे दिया१  ||
२-
बहने लगी रुधिर की धारा,
 लगी तड़पने चीत्कार कर |
सुनकर कोलाहल,राक्षस स्वर,
ऋषि गण, वन बासी, वनचारी;
आकर  के,   एकत्र  होगये,
शोर मच गया पंचवटी में ||
३-
भय मिश्रित विस्मय,प्रसन्नता,
से,  सब लगे देखने उसको  |
क्रोध और पीड़ा में भरकर ,
चीख चीख कर देती धमकी |
 नहीं बचेगा वन में कोई ,
नर-नारी, मुनि या वन बासी ||
४-
रुधिर बहाती, पैर पटकती,
दौड़ चली वह जन स्थान को|
भ्राता -खर एवं दूषण- को ,
बदला लेने को उकसाने |
नाक कान से शोणित धारा,
आँखों  से आंसू बहते थे  ||
५-
भय न करें आश्वस्त रहें सब,
शांत किया रघुवर-लक्ष्मण ने,
समझा कर के सभी जनों को |
सावधान पर रहना होगा,
निशिचर सेना आसकती है ;
करें  सभी,   पूरी   तैयारी ||
६-
लक्ष्मण ने पूछा रघुवर से-
कैसे हुआ आचरण एसा,
ज्ञानी रावण की भगिनी का |
नारी तो अवध्य होती है,
और सदा सम्माननीय भी;
तो क्या प्रभु यह दंड उचित था४  ||
७-
लक्ष्मण !अति भौतिकता के वश,
भाव विचार कर्म व संस्कृति ;
बन जाते सुख प्राप्ति भाव ही
नारी का स्वच्छंद आचरण ,
परनारी या परपुरुष गमन;
लगता है स्वाभाविक सा ही ||
८-
मन की सुन्दरता से अन्यथा,
शरीर ही प्रधान होजाता |
शूर्पणखा का यह आचरण ,
राक्षस कुल अनुरूप ही तो था |
यह ही तो राक्षस संस्कृति है ,
पली बढ़ी जिसमें वह नारी ||
९-
किन्तु देव मानव संस्कृति तो ,
है परमार्थ भाव पर विकसित;
सात्विक भाव विचार अपनाती |
पुरुष स्वयं रहते मर्यादित ,
पर दुःख कातर, परोपकारी -
कर्म भाव ही सब अपनाते ||
१०-
नारी, मन की सुन्दरता को,
शाश्वत मान, कुलवती होतीं |
त्याग प्रेमभावना की मूरत,
पति की अनुगमिनि होती हैं |
प्रश्रय नहीं दिया जाता है,
वाह्य रूप-सौन्दर्य चलन को ||
११-
अति भौतिक उन्नति की लक्ष्मण,
परिणति है, अति सुख-अभिलाषा |
जन्मदात्री है,   समाज   में,
द्वंद्व भाव,प्रतियोगी संस्कृति५ ;
और सभी जन श्रेष्ठ भाव तज-
सर्वश्रेष्ठ 'मैं'- में रम जाते ||
१२-
'येन केन प्रकारेण' स्वयं को,
सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की ;
परिपाटी स्थित होजाती |
फिर समाज में द्वंद्व भावना,
असमानता,अकर्म व अधर्म;
की स्थिति बनने लगती है ||
१३-
सभी कार्य व्यवहार जगत के,
धन आधारित होजाते हैं |
अति औद्योगिक प्रगति सदा ही,
अर्थतंत्र को विकास देती |
अत्याचार अनीति अकर्म व,
अपराधों को प्रश्रय मिलता ||
१४-
उचित सुपाच्य और बल-वर्धक,
सौम्य खाद्य के अभाव कारण;
तन  बलहीन क्लांत होजाता |
विविध व्याधियों से घिर करके,
चिंतन के अभाव में मन भी;
विकार-मय, अस्थिर होजाता ||
१५-
उसी प्रकार उत्तम चरित्र व ,
उचित लक्ष्य के चिंतन से युत ;
उत्तम साहित्य व विचार की ,
पठन-पाठन योग्य सामग्री;
के समाज में अभाव कारण -
अधम विचार प्रश्रय पा जाते ||
१६-
स्त्री-पुरुष सभी वर्गों के,
अति सुखानुपेक्षी१० हो जाते |
स्वच्छंद आचरण चलन से,
मर्यादा विहीन  बनते हैं |
सुख के लिए करेंगे कुछ भी,
यह धारणा प्रमुख होजाती ||    -----क्रमश: भाग दो......


कुंजिका --  १= पंचवटी पर रहकर पूरी तैयारी के बाद रावण को युद्ध सन्देश देना ही शायद राम-वनागमन का मूल उद्देश्य था और उसका मिला हुआ मौक़ा राम ने गंवाया नहीं | ... २= प्रथम वार किसी ने शासक व किसी शक्तिशाली राक्षस को असहाय अवस्था में पहुंचाने का प्रयास किया था |....३= राक्षसों द्वारा क्रोध में  और अधिक अत्याचार का भय, घटना पर आश्चर्य  व इच्छानुसार कृत्य होने की प्रसन्नता ,,,४=  सेना के अनुशासन की भांति लक्ष्मण ने पहले आज्ञा का पालन किया तत्पश्चात  शंका निवारण की इच्छा जताई ...५ , ६, व ७ = अनावश्यक प्रतियोगी भाव ही स्वयम को श्रेष्ठ सिद्ध करने के अहम् के पालन में  भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण का मूल होता है |...८ व ९ = वास्तव में मनोरंजन , स्वास्थ्य व एनी जन सामाजिक कार्यों को धन आधारित नहीं होना चाहिए , अर्थतंत्र --अर्थ -व्यवस्था के नियमन के लिए हो न की प्रत्येक कार्य अर्थ-आधारित हो....१०= अत्यंत सुख की इच्छा ही सारे भ्रष्टाचार व अनैतिकता का कारण होती है ....
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2 टिप्पणियाँ:

नीलांश ने कहा…

सुंदर लगी...

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

येन केन प्रकारेण' स्वयं को,
सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की७ ;
परिपाटी स्थित होजाती |

yhi to ho rahaa hai
sunder rachna

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