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भ्रष्टाचार की गंगोत्री

Written By Sadhana Vaid on मंगलवार, 31 मई 2011 | 5:58 pm


अपने बचपन की याद है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर जब देश भर में जश्न मनाया जाता था और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का भाषण रेडियो पर प्रसारित होता था या पिक्चर हॉल में न्यूज़ रील में दिखाया जाता था तो मन गर्व से भर उठता था ! हृदय में अगाध श्रृद्धा की तरंगें उठने लगती थीं और इस बात का अहसास मन को हमेशा चेताता रहता था कि कितनी मंहगी कीमत चुका कर यह आज़ादी हमें मिली है ! आज जिस आज़ाद हवा में हम साँस ले रहे हैं उसके लिये कितने वीरों ने अपनी जान की बाज़ी लगाई है और कितने उदारमना नेताओं और महापुरुषों ने अपने सभी सुखों को देश हित के लिये न्यौछावर कर वर्षों जेल की सलाखों के पीछे यातना भरे दिन बिताये हैं ! दिल में यह भावना रहती थी कि गाँधी, नेहरू, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, सुभाषचंद्र बोस, मदनमोहन मालवीय, वल्लभ भाई पटेल, वीर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, दादा भाई नोरोजी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अनेकों अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के प्रशस्त किये मार्ग पर अग्रसर होते हुए देश को विकास और सफलता के शिखर पर पहुँचाना है और सम्पूर्ण विश्व में इसके गौरव को स्थापित करना है !

लेकिन आज़ाद भारत की यह मनमोहक तस्वीर बहुत दिनों तक अपने आकर्षण को बनाये नहीं रख सकी ! अंदर ही अंदर भ्रष्टाचार की दीमक इसको चाट कर खोखला करने की तैयारी में जुट चुकी थी ! कहते हैं कि सत्ता यदि पूर्ण बहुमत के साथ मिले तो अधिकार के साथ भ्रष्टाचार को पनपने के लिये भी भरपूर खाद पानी मिल जाता है ! लोकतंत्र के लिये यह अच्छा शगुन नहीं है ! स्वतन्त्रता के बाद दिसंबर 1947 में महात्मा गाँधी ने भी यह भाँप लिया था कि राजनेता पैसा कमाने के लिये अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त हो रहे हैं ! उन्होंने आंध्र प्रदेश के अपने एक वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी मित्र श्री वैन्कटपैया के एक उल्लेखनीय पत्र के बाद, जिसमें उन्होंने गाँधीजी को लिखा था कि कॉंग्रेस पार्टी का नैतिक पतन हो रहा है ! उसके नेता अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पैसा कमाने में लगे हैं और लोगों में यह धारणा पनपने लगी है कि इससे तो ब्रिटिश रूल ही अच्छा था, गांधीजी ने यह सुझाव दिया था कि कॉंग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिये पर उनकी यह बात मानी नहीं गयी ! भ्रष्टाचार की आमद की यह पहली दस्तक थी !

भारतीय राजनीति के हिमालय से भ्रष्टाचार की गंगोत्री का उदगम वी के कृष्णामेनन के जीप काण्ड से माना जा सकता है ( 1948 ) ! इसके बाद इस गंगोत्री का आकार कुछ बढ़ा और हरिदास मूंदडा काण्ड प्रकाश में आया जिसकी पोल श्री फिरोज गाँधी ने 1958 में संसद में खोली थी ! के. डी. मालवीय एवं सिराजुद्दीन का ऑइल स्कैम तथा धरम तेजा काण्ड भी नेहरू जी के कार्यकाल में ही हुए थे ! उन दिनों देश भावनात्मक रूप से इन नेताओं पर इतना निर्भर था कि ऐसी कोई भी बात आसानी से उसके विश्वास को डिगा नहीं सकती थी और आज की तरह उस समय मीडिया भी इतना सक्रिय नहीं था ! इसलिए इन घोटालों की चर्चा बहुत अधिक नहीं हुई और बातें वहीं दब गयीं !

समय के साथ भ्रष्टाचार की इस गंगोत्री में कई धाराएं और उपधाराएं मिलती चली गयीं और इसके रूप रंग आकार को और अधिक विस्तार और गहराई प्रदान करती गयीं ! 1971 के नागरवाला काण्ड और मारुती उद्योग की धाँधलियों को बांग्लादेश की विजय के सामने अनदेखा कर दिया गया ! 1981 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ए. आर. अंतुले के सीमेंट स्कैम जैसे अनेक घोटाले सामने आने लगे परन्तु 1987 में राजीव गाँधी के कार्यकाल में जब बोफोर्स तोप घोटाला प्रकाश में आया तो जनता का मोहभंग होना शुरू हुआ ! इसके बाद तो घोटालों का लंबा सिलसिला आरम्भ हो गया ! गंगोत्री अब पहाड़ों से उतर कर मैदानों में आ गयी थी और वृहद स्वरुप धारण कर चुकी थी ! यूरिया काण्ड (1990), हर्षद मेहता केतन पारेख काण्ड (1992), हवाला काण्ड (1993), सुखराम का टेलीकॉम घोटाला (1996), बिहार का चारा घोटाला (1996), जे. एम.एम. का रिश्वत काण्ड (1996) सबने राजनीति में भ्रष्टाचार की गहराई और विस्तार को इस तरह से उजागर किया कि आम जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करने लगी ! तमाम बड़े बड़े नेताओं और उच्च पादासीन अधिकारियों के घरों से, यहाँ तक कि उनके बिस्तर के गद्दों तक से काला धन बरामद होने लगा ! जनता को समझ आने लगी कि उसका मेहनत से कमाया हुआ धन ये चंद भ्रष्ट और पतित नेता हड़प किये जा रहे हैं और जनता को नित नये करों के बोझ से लादते जा रहे हैं ! मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है ! संसद तथा टीवी चैनलों के टॉक शोज़ में निरंतर चलने वाली अंतहीन, अर्थहीन, और निरुद्देश्य बहसें जनता को कोई दिलासा या दिशा नहीं दे रही हैं !

मीडिया फिर भी सक्रियता के साथ अपनी भूमिका निभाता रहा है ! आरम्भ में नेताओं की ये खबरें प्राय: दबा दी जाती थीं ! अशिक्षा के कारण अखबारों की पहुँच बहुत कम लोगों तक सीमित थी लेकिन टी.वी. के आगमन तथा गाँव देहात तक फ़ैल जाने का एक फ़ायदा यह हुआ कि भष्टाचार की सारी खबरें घर घर पहुँचने लगीं ! नेताओं का कद घटने लगा ! उनके प्रति जनता के मन में मान सम्मान कम होने लगा और आक्रोश की आँच सुलगने लगी !

सत्ता में गहराई तक ऊँची पहुँच, धीमी न्याय प्रक्रिया और प्रशासन की मिलीभगत ने भ्रष्टाचार की जड़े और गहरी कीं और स्वार्थी नेताओं की ढिठाई और हौसले बुलंद होते चले गये ! अधिकार का दुरुपयोग कर कई नेताओं ने अनुचित तरीकों से अपने स्वार्थ साधने की कोशिश की और कतिपय बड़े लोगों को लाभ दिला कर अपना बैक बलैंस खूब मज़बूत किया ! प्रमोद महाजन का टेलीकॉम घोटाला (2002) इसी श्रेणी में आता है ! भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री अब आकार प्रकार में सागर का रूप ग्रहण करने लगी ! पहले किये जाने वाले कुछ लाखों करोड़ों के घोटाले अब हज़ारों करोड़ों तक के आँकड़े को छूने लगे ! (2006) का अब्दुल करीम तेलगी का स्टैम्प घोटाला, (2009) का मधु कोड़ा काण्ड, (2010) का ए. राजा का टू जी स्पेक्ट्रम काण्ड, (2010) का कलमाड़ी का राष्ट्र मण्डल खेल घोटाला, (2010) का ही सत्यम घोटाला अब महासागर का रूप ले चुके हैं !

दिमाग में सवाल उठता है क्या इस समस्या का कोई निदान है ? आशा करते हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे जुझारू कर्मठ एवं देशभक्त व्यक्तियों का प्रयास अवश्य रंग लायेगा और आज़ादी के बाद से लगातार चलने वाला यह सिलसिला अब ज़रूर टूटेगा ! हम सभी भारतीय उनके साथ हैं और उनके इस अभियान को अशेष शुभकामनायें देते हैं !

साधना वैद

मै आवारा ना प्यारा बदनाम हुआ -


मै आवारा ना प्यारा बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !
सींचे बिन कोई शीश उठा मिटटी -ना-
-छाया पायी कोई -आँखें रोई !
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(फोटो साभार गूगल / नेट से )
रूखे दूजे चढ़ हरे हुए- अचरज से देखे
काट लिया उसको भी कोई !
गलियारों में कुत्ते भूंके- बच्चे तो छूने ना देते
-ना-आँख मिलायी !
रहा अकेला- मन में खेला -कुंठा ने दीवार बनायीं
लोग कहें हैं पाप कमाई !!
भूखे को दे –टाला खाना -मन कैसा ?
छीना झपटी- क्यों मारा ?? मै आवारा !!
————————————————-
बद अच्छा बदनाम बुरा -खुद कांटे बोकर -
घाव किया न सूखेगा !
नैनों में ना नीर बचा दिल पत्थर क्या तीर चुभे-
फूल कहाँ से फूटेगा !
बढ़ा दिए मन दूर किये जन -फूलों को अब लगता काँटा
अंग कहाँ बन पायेगा !
लगी आग घर -दूर खड़े हम -प्यास लगे ना पानी देता
ख़ाक हाथ रह जायेगा !
खोद कुआँ मै पानी पीता -रोज किसी को दिया सहारा -
मै आवारा ??? ना प्यारा बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !
————————————————-
नासूर बनाये छेड़ छाड़ तो अंग तेरा कट जाएगा
उपचार जरा दे !!
टेढ़ी -मेढ़ी चालें चलता पग लड़ता गिर जायेगा
-तू चाल बदल दे !
भृकुटी ताने आँखें काढ़े -बोझ लिए मन रोयेगा
मुस्कान जरा दे !
अपनों को ही सांप कहे- पागल- तुझको डंस जायेगा
तू ख्याल बदल दे !
आग लगी मन -जल जाता तन-भटका फिरता -
छाँव कहाँ मिल पायेगा -मै आवारा ??
ना प्यारा बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !
!
————————————————–
आग लगे सब दूर रहें -परिचय चाहूं ना -
जल तप्त हुए -मै ना झुलसाता !
कीचड जाने दूर रहें -अभिनय -साधू ना-
दलदल में वह ना धंस जाता !
बलिदान चढ़ाता- ऋण भूले ना -
सजा काट कर न्याय बचाता -
पाप किये ना पाँव धुलाता
सीमा रेखा में अपनी -सिद्धांत बनाता -
दो टुकड़ों के खातिर कुछ भी -
साजिश कर -ना -देश लुटाता !
माँ बहनों को “प्यार” किये – “बदनाम” भी होता -
आग नहीं तो राख कहीं लग जाएगी -ये आवारा !
मै आवारा ?? ना प्यारा -बदनाम हुआ -
बचपन में कोई नहीं दुलारा !!!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
३१.०५.२०११ जल पी. बी .१०.४१ मध्याह्न

ग़ज़लगंगा.dg: जरा सी जिद ने इस आंगन का.......

क्या पत्रकारिता ऐसी ही होती है ....

क्या पत्रकारिता ऐसी ही होती है ....

क्या पत्रकारिता ऐसी ही होती है ....जी हाँ आज की पत्रकारिता को देख कर तो यही सब सवाल मेरे और शायद आपके भी मन में खड़े हो जाते हैं ..........कल ३० मई पत्रकारिता दिवस था सोचा के देश के समाचार पत्रों और मीडिया ,,इलेक्ट्रोनिक मिडिया में पत्रकारिता आर बहुत कुछ सिखने और पढने को मिलेगा लेकिन इलेक्ट्रोनिक मीडिया को तो फुर्सत ही नहीं थी .मेने सोचा अपन ही पत्रकारिता के हाल चाल देखें यकीन मानिये मेने मेरी वक्त की पत्रकारिता और आज की चाटुकार पत्रकारिता के हालात जब देखे तो मेरा सर शर्म से झुक गया ..हर अख़बार हर चेनल दुनिया का सबसे तेज़ अख़बार तेज़ चेनल है जो खबरें अख़बार और टी वी को देना चाहिए उसके अलावा चापलूसी भडवागिरी की खबरें आम नज़र आ रही थी ..सरकार करोड़ों करोड़ रूपये के बेकार से विज्ञापन जो अनावश्यक थे इसलियें दे रही है के उसे चेनल और अख़बार में अपनी भ्रस्ताचार सम्बन्धित खबरों को रोकना है ...पार्टियां क्या कर रही हैं ..जनता के साथ केसे विश्वासघात है इससे अख़बारों और मिडिया को क्या लेना देना ..जो पत्रकार कुछ लिखना चाहते हैं कुछ दिखाना चाहते हैं मालिक वर्ग विज्ञापन के आगे ऐसी खबरों को खत्म कर रहे हैं ..हर व्यापारी कहता है के भाई अच्छे व्यापार और सुरक्षित व्यापार का एक तरीका है के एक रुपया कमाओ तो पच्चीस पेसे अख़बार और मीडिया को दो खुद भी सुरक्षित और मीडिया पेरों में कुत्ते की तरह से लोटता नज़र आयेगा जनता लुट की खबर अगर छपवाना भी चाहे तो नहीं छपेगी एक पान वाले की खबर होगी तो बढ़ा चढा कर होगी और एक बढ़े संस्थान की खबर होगी तो उसका नाम गायब होगा केवल एक संस्थान पर आयकर विभाग का छपा पढ़ा खबर प्रकाशित की जायेगी ..बहतरीन सम्पादक और पत्रकार अख़बारों के मेले और ठेले में नमक और दुसरे सामन बेचते नज़र आते हैं पत्रकारिता की संस्थाएं इस पत्रकारिता दिवस पर कोई कार्यक्रम रख कर पत्रकारिता के जमीर को जगाना नहीं चाहती अब भाई ऐसी लूटपाट और चाटुकारिता पत्रकारिता में अगर यह  सब है तो में पत्रकारिता छोड़ कर अगर दलाली शुरू कर दूँ तो क्या बुराई है इसलिए विश्व पत्रकारिता दिवस कल आया और चला गया किसी को क्या लेना देना ....देश में सुचना प्रसारण मंत्रालय है ..राज्यों में जनसम्पर्क मंत्री हैं पत्रकारिता के जिला.राज्य और केंद्र स्तर पर निदेशालय हैं अरबों रूपये का बजट है लेकिन सरकार और प्रेस कोंसिल भी इस तरफ ध्यान नहीं देती है तो हम और आप इस बारे में सोच कर क्यूँ किसी के बुरे बने यार ........अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान 

सफ़र....काव्य दूत से ....

Written By shyam gupta on सोमवार, 30 मई 2011 | 4:36 pm



       सफ़र....

                                                                              ..
तुम जो भूलपाते ज़माने को अगर,
तो क्या ये प्यार , सच नहीं होता |
फिर तो  क्या रंज था,  जमाने में,
दर्दे -दिल,  यूं  बयाँ नहीं   होता ||

अब न आती हैं बहारें,न खुशी,
बेकरारी में  दिल  नहीं होता  |
तुम जो होते सफ़र में साथ मेरे,
दिल ये  बेज़ार यूं  नहीं होता ||

जी रहा  हूँ  यूं ही  जीने के लिए,
इश्क  हर बार  तो  नहीं  होता |
तुम जो भूलजाते ज़माने की नज़र ,
तो क्या ये  प्यार सच नहीं होता ||

निशा


कभी आपको फैमिली कोर्ट जाने का अवसर मिला है। मुझे यह अवसर अनेकों बार मिला है। कई बार लिखने के सिलसिले में जाना पड़ा। कई बार अन्य कारणों से भी जाना पड़ा। पर फैमिली कोर्ट जाना वहां बात करना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। बस मज़बूरियों के तहत जाना पड़ता था। उसी परिसर में मेरी दुखों से जान-पहचान हुई। कई बार घर लौट कर ठीक से सो भी नहीं पाती थी क्योंकि उदास-परेशान, मानसिक रूप से टूटे हए चेहरे पीछा करते हुए घर तक आ जाते थे।

निशा से पहली मुलाकात फैमिली कोर्ट में ही हुई थी। मैं बहुत लोगों से मिलती हूं। लेकिन उस जैसी लड़की से दोबारा फिर कभी मुलाकात नहीं हुई। वह जीवन से लबालब भरी हुई थी। आँखों में अज़ीब सी मासूमियत थी। वह एक बहाव में बह रही थी, बिना इस बात को महसूस किए की उसके साथ क्या हो रहा है। उसके परिणाम क्या होंगे। हर चीज़ से बेखबर थी। ऐसा मुझे लगता था। पहली बार फैमिली कोर्ट में जस्टिस कपूर ने अपने चेम्बर में मेरा उससे मेरा परिचय कराते हुए कहा था-श्रुति, यह निशा है। एकदम पागल है। मैं इसे तुम्हारे सुपुर्द करता हूं। इसे समझाओं और इसकी मदद करो। और निशा तुम इससे मिलती रहा करो। पत्रकार है। तुम्हारी सहायता करेगी। निशा के चेहरे में एक बड़ी सी मुस्कान फैल गई थी। उसकी मुस्कान देखकर ऐसा लगा, गोया मैं पत्रकार न होकर मानों कोई जिन्न हूं, जो पलक झपकते ही उसकी समस्याओं का समाधान कर देगा।

निशा एक वेगवान जल-प्रपात सी थी। जो अपने बहाव में सबको बहा ले जाती थी। कमरे से बाहर निकलकर उसने मुझसे से कहा-दीदी, आइए, उधर बैठते हैं। उधर लोग भी नहीं हैं और धूप भी अच्छी आ रही है। आज सर्दी कुछ ज्यादा है न। वह लगातार बोल रही थी और मैं सोच रही थी कि यह लड़की यहां कर क्या रही है? हम एक पेड़ के नीचे बैठ गए।

तुम अकेल आई हो .....

हां, क्योंकि घर में मम्मी के अलावा कोई नही है।

पापा.....

उनका जॉब दूसरे शहर में हैं। दो –तीन महीने में छुट्टी लेकर आते हैं, लेकिन हरदम तो यहां रह नहीं सकते! आखिर नौकरी भी तो करनी है।

हां वो तो है।

तो तुम अकेले आती हो?

हां, यहां सब मुझे जानते हैं। कोई परेशानी नहीं होती।

मैं पूछना चाहती कि निशा तुम्हारे हुआ साथ हुआ क्या है?

लेकिन वह अपनी ही धुन में मस्त बातें कर रही थी। कोई सूत्र मुझे थमा ही नहीं रही थी जिसे लेकर मैं आगे बढ़ती।

अचानक उसने कहा-दीदी मुझे बचपन से ही शादी का बहुत शौक था। जब छोटी थी, तो गुड्डे-गुड़ियों की शादी रचाती। पूरे धूमधाम से। एक बार तो मैं ज़िद पकड़कर बैठ गई कि मेरी गुड़िया को भी हनीमून के लिए भेजो।

तुम जानती थी हनीमून क्या होता है?-मैंने पूछा।

वो हँस पड़ी। अरे कहां। मुझे कहां मालूम था कि हनीमून क्या होता है? मामा की शादी हुई थी, वहीं मैंने सुना था। वहां से लौटकर जब मैंने अपनी गुड़िया की शादी रचाई तो मैं भी जिद पकड़कर बैठ गई।

फिर......

फिर क्या, पहले मम्मी ने समझाया फिर गुस्सा होने लगी। तो मैंने उनसे कहा-देखिए गुस्सा मत होइए. अगर आप कहीं नहीं जाना चाहती तो मत जाइए। हम लोग पापा के पास चलते हैं। गुड़िया का हनीमून हो जाएगा और हम पापा से मिल लेंगे। मेरी बात सुनकर मम्मी हंसने लगी। वह बोलती जा रही थी। दीदी शुरू से ही न मैं बहुत चालाक थी। लोगों को बातों में फंसाकर अपना काम निकालना मुझे खूब अच्छी तरह आता था।

उसकी बात सुनकर मैं हंस पड़ी। वो इतनी मासूमियत से बात कर रही थी कि मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। हर बार शब्द जुबां तक आते-आते रुक जाते। मैंने कहा-आज तो काफी देर हो गई है। ऐसा करते हैं कि फिर मिलते हैं तभी बात करेंगे। उसने चट से अपने बैग से कागज और कलम निकाल लिया। आप मुझे अपना नम्बर दे दीजिए। हम फोन पर बात करेंगे।

मैंने कहा- ऐसी बाते फोन पर नहीं होती। हम आमने-सामने बैठ तक बात करेंगे, तभी तो मैं समझ पाऊंगी कि तुम्हारी समस्या क्या है?

तो मैं चंदन को भी फोन करके यहां आने को कहूं। हम तीनों लोग बैठ कर बात करेंगे।

ये चंदन कौन है?

मेरा पति!

नहीं निशा, पहले हम लोग बैठकर आपस में तय करेंगे कि हमें चंदन से क्या बात करनी है। फिर उससे मिलेंगे। चंदन कहते समय उसके चेहरे पर जो चमक आई थी, वह बिना कहे ही बता गई गई थी कि चंदन कौन है?
सर्दियों में शाम जल्दी हो जाती है। लम्बे होते सायों को देखकर मैं उठ खड़ी हुई। अब चलना चाहिए, मैंने कहा।

ठीक है, मैं आपको फोन करूंगी। वह मेरे साथ-साथ गेट तक आई। मैंने बाहर निकल कर स्टेशन जाने के लिए आटो ले लिया और वह भी अपने घर की तरफ मुढ़ गई।

दूसरी मुलाकात और भी अज़ीब परिस्थितियों मं हुई। सुबह के छह-साढ़े छह बजे होंगे। मैंने अभी तक अपनी रजाई तक नहीं छोड़ी थी कि फोन कि पापा ने जगाते हुए कहा-किसी निशा का फोन है। तुमसे बात करना चाहती है।

निशा! इतनी सुबह! हां यही नाम बता रही हो। उठो उससे बात कर लो। रजाई से एक हाथ बाहर निकल कर मैंने फोन का रिसीवर उठा लिया-

दीदी मैं निशा बोल रही हूं।

कहां से बोल रही हो

स्टेशन से

पर इतनी सुबह तुम स्टेशन में क्या कर रही हूं।

मैं तो कल रात में ही यहां आ गई थी

मां को बता कर आई हो

नहीं

क्यों

वो मुझे आने नहीं देती

तो मुझे फोन क्यों नहीं किया। रात भर एक अंजान स्टेशन में भटकती रही। अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो?

नहीं मुझे कुछ नहीं होगा। दीदी, आज वो आज चंदन का जन्मदिन है। तो मैंने सोचा सबसे पहले मैं ही उसे विश करूं। वो खुश हो जाएगा।

तुम पागल हो....ऐसा भी कहीं किया जाता है....खैर छोड़ों आटो पकड़ सीधा घर आ जाओं। मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। मैं उसे घर का पता नोट करवाने लगी। अब रजाई से निकलना जरूरी हो गया था। सबसे पहले मैंने निशा की मां को फोन किया। बेहद घबड़ाई हुई सी लग रही थी। मैंने कहा-चिंता मत करिए, निशा सुरक्षित है। ये लड़की न एक दिन मेरी जान लेकर छोड़ेगी। न कुछ कहना न सुनना बस बैग उठाया और निकल गई। जानती है कि बुरी तरह जर्जर हो चुका है यह रिश्ता। फिर भी जोड़ने की जिद पकड़ कर बैठी है। प्लीज़ उसे समझाइए। मेरी तो सुनती ही नहीं है। आप परेशान मत होइए। मैं बात करती हूं-मैंने उन्हें सान्त्वना दी। उन्होंने बेहद आहिस्ता से कहा ठीक है. और फोन कट कर दिया।

ये तो पागलपन है-मैं सोच रही थी। एक घंटे से ऊपर हो गया था अभी तक वह नहीं आई थी। अब मुझे चिंता होने लगी थी। कहीं ऐसा तो नहीं यहां की तरफ रुख करते करते वह चंदन को विश करने चली गई हो और किसी मुसीबत में फंस गई हो। थोड़ी देर बाद घर के बाहर आटो रुकने की आवाज सुनाई दी। मेंने राहत की सांस ली
चलो मैडम आईं तो.....

मैं गेट खोलकर बाहर निकल आई। वह आटो वाले को पैसे दे रही थी, मुझे देखकर मुस्करा दी। मैंने कोई जवाब नहीं दिया, मैं उसकी इस हरकत से नाराज थी। वह बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ गई।

आप नाराज है मुझसे?

कोई खुश करने जैसा भी तो कोई काम नहीं किया।

आप लोग समझते क्यों नहीं वो मेरा पति है।

और तुम उसको विश करके आ रही हो।

आपको कैसे पता चला।

स्टेशन से यहां तक आने में इतना समय नहीं लगता जितना तुमने लगाया।

वह चुप हो गई।

निशा मुझे समझाओं तुम ऐसी हरकतें क्यों करती हो कि सब लोग परेशान हो जाए।

मैं उसे बहुत प्यार करती हूं। उसके बिना नहीं रह सकती।

तो तलाक क्यों दे रही है

उसने नज़रे झुका ली। मुझे भी लगा कि मैं कुछ ज्यादा ही कठोर हो गई हूं, इसलिए बात को पलटते हुए कहा-थक गई होगी चाय पी लो।

नहीं, अभी-अभी पी है

कहां, स्टेशन में ......

नहीं, चंदन के लैटर बॉक्स में बर्थ डे कार्ड डालने गई थी, पर मौका नहीं मिल रहा था। नुक्कड़ की चाय की दुकान वाले ने कहा-बहू जी तब तक आप चाय पी लो। तबतक साहब आ ही जाएंगे।

मतलब वो नुक्कड़ वाला भी तुम्हें जानता है।

हां, वहां आस-पास के सभी लोग मुझे जानते है कि मैं चंदन की बीवी हूं।

तो यह भी जानते होंगे कि अब तुम उसके साथ नहीं रहती।

हां।

और तुम वहां खड़ी होकर चाय पी रही थी।

हां....

अगर उसके घर वाले तुम्हें देख लेते तो.....

जान से मार डालते, निशा ने जवाब दिया।

माफ करना, पर मैं तुम्हें समझ नहीं पा रही हूं.......तुम उसे प्यार करती हो....तुम उसके साथ रहना चाहती हो....इतनी सर्द रात में इस तरह विश करने उसके घर तक जाती हो। फिर तलाक क्यों देना चाहती हो।

मैं नहीं वो मुझे तलाक देना चाहता है.....

लेकिन अर्जी तो तुमने लगाई है....

नहीं लगाती तो क्या करती मज़बूरी थी

कैसी मज़बूरी.....वो खामोश हो गई। मैं भी चुप हो गई। मैं भी चाहती थी कि वह अपना समय ले पर बातें स्पष्ट करे। जब से मिली है मुझे घुमा रही है कभी कुछ साफ-साफ कहती ही नहीं नही कि आखिर समस्या क्या है। ससुराल वाले मारते थे, सताते थे, आखिर उनका कौन सा व्यवहार इसे इतना नगवार गुजरा कि इस लड़की को बात कोर्ट तक घसीटनी पड़ी और उस दिन जज साहब भी कह रहे थे। देख लो, बात कर लो। लेकन इसके केस में दम नहीं है। तलाक तो इसे मिल ही जाएगा। बात बस पैसे पर अटकी हुई है। मैं चाहता हूं कि इसे इतना पैसा तो मिल ही जाए कि यह बाकी ज़िदगी आराम से काट सके।

चलिए अंदर चले-निशा ने कहा।

हां चलो, अंदर चलते हैं। खा-पीकर थोड़ा आराम कर लो। बाद में बात करेंगे।

नहीं दीदी, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। बात तो हम अभी ही करेंगे। अभी नहीं कर पाए, तो कभी नहीं कर पाएंगे। यूं ही घुटते रहेंगे अंदर ही अंदर। और एक दिन मर जाएंगे। वह सहसा गंभीर हो गई थी। हम कमरे में आ गए। निशा मेरे सामने चेअर पर बैठ गई। उसने कहना शुरू किया। चंदन के घर वाले बहुत पैसे वाले है और चंदन उनकी अकेली औलाद। घर में पापा की नहीं चलती। सभी निर्णय मम्मी और नानी मिल कर लेते है। सुना है पापा ने मना भी किया था पर मम्मी ने कहा- ये सब फालतू की बातें हैं। घर में बीवी आ जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा।

हमारे पापा ने घर देखा। देखा लड़का अकेला है। पैसे की भी कोई कमी नहीं। उन्होंने पूछताछ भी की, पर ऐसी बातें बताता कौन है। शुभ घड़ी देखकर मेरा विवाह चंदन से हो गया। वो पंड़ित कैसा था जिसने हमारी कुंडली विचार कर कहा था-लड़की की कुंडली में तो राजयोग है। अगर इसी को राज योग कहते हैं तो भगवान किसी भी लड़की की कुंडली में राजयोग मत बनाना। वह अपनी ही रौ में बही जा रही थी। मेरी उपस्थिति भी उसके लिए नगण्य थी।

शादी के बाद कमरा तो एक मिला, पर सोने की व्यवस्थाएं अलग-अलग थी। मैं चंदन का इंतजार ही करती रही और वे देर रात आए और अपने बिस्तर पर सो गए। एक बार भी पलट कर नहीं देखा कि वहां कोई और मौज़ूद भी है की नहीं। पूरी रात बैठ कर इंतजार करती रही शायद पलट कर एक बार देख लें, पर ऐसा नहीं हुआ। ये व्यवस्था मम्मी की थी। कई दिन गुज़र गए। नानी को जब इसका पता चला तो वो मम्मी पर बहुत नाराज हुई। कमरे को एक बार फिर नई रंगत दी गई। उस घर में मां और नानी के अलावा किसी और को घर के मामलों में दखंलदाज़ी का अधिकार नहीं था। मैं भी दर्शक की तरह चीज़ों का होना देखती रहती थी।

उस रात पहली बार चंदन मेरे साथ मेरी बगल में लेटे हुए थे। उनका पास होना ही मेरे हजारों सपनों को जन्म दे रहा था। मैं मन ही मन चंदन को उकसा रही थी कि कुछ तो बोलो अच्छा, भला-बुरा। ये मैं भी जानती थी कि वह जाग रहा था और ये वह भी जानता था कि मैं जाग रही हूं, लेकिन खामोशी की चादर हमारे बीच पसरी पड़ी थी। आखिरकार मैंने ही चुप्पी तोड़ी।

क्या आप इस शादी से खुश नहीं है?

नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है।

फिर आप मुझसे बात क्यों नहीं करते?

बात .......नहीं बस बात करने की आदत नहीं है.....वक्त लगेगा। हम फिर चुप हो गए। आप मुझे प्यार क्यों नहीं करते....

प्यार! वो ऐसा चिहुंका जैसे किसी ने सुई चुभो दी हो। तुमको प्यार चाहिए। मैंने मन ही मन कहा, ये भी कोई पूछने की बात है। दुनिया में भला ऐसी कौन सी बीवी होगी जो नहीं चाहती होगी कि उसका पति उसे प्यार करे। अचानक वह रज़ाई हटाकर उठ बैठा। मैं जबतक कुछ समझूं-समझूं एक भूखे भेड़िए की तरह उसने मेरे शरीर को झिझोड़ कर रख दिया।

खुश! यही चाहिए था न तुम्हें? वह अभी तक हाँफ रहा था। सपने टूटना किसे कहते हैं उस रात पहली बार जाना। जाड़ों की राते तो वैसे भी लंबी होती है, पर दीदी वो रात बहुत लंबी थी ।

दूसरे दिन जब मैं नानी के पैर छूने गई, उन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा- डरना नहीं। वो ऐसा ही है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यह दूसरा झटका था कि इन्हें कैसे पता कि मेरे साथ कल रात क्या हुआ? क्या ये लोग रात भर मेरे कमरे में कान लगाए बैठे रहते हैं।

धीरे-धीरे मैंने खुद को उस परिवेश में ढालना शुरू कर दिया था। चंदन के काम ही कितने होते थे ज्यादा से ज्यादा कपड़े निकालकर दे देना। बाकी कामों के लिए तो नौकर-चाकर मौज़ूद थे। इतने कायजे-कानूनों में बंधा घर मैंने पहले कभी नहीं देखा था। हमारे यहां तो हम बिस्तर पर बैठ कर चाय क्या खाना तक खा लेते थे। कभी किसी ने नहीं टोका। पर यहां ऐसा नहीं था। घर के नियम कायदे बड़ी कठोरता से लागू होते थे। यहां तक कि घर के कुत्ते को भी मालूम था कि कितनी बार भौंकना है और कब चुप हो जाना है।

हमारा बेडरूम घर के पिछले हिस्से में था। खिड़की पर खड़े होकर गर्दन थोड़ी सी टेढ़ी करने पर सर्वेंट क्वाटर नज़र आने लगते थे। एक दिन मैं खिड़की पर खड़ी यूं ही इधर-उधर देख रही थी कि अचानक मेरी नज़र चंदन पर पड़ी जो आधा घंटे पहले घर से ऑफिस के लिए निकल चुका था। वह इस वक्त यहां क्या कर रहा है? थोड़ी और गरदन टेढ़ी की तो देखा- वह घर के उस सुनसान कोने में अपने माली के साथ................ उस रात टूटे सपनों की किरचों से आज पूरा शरीर लहूलुहान हो गया।

तो ये है चंदन का सच। जिसे मुझसे छुपाने के लिए की गई है इतनी किलेबंदी। चंदन का मेरे साथ हर व्यवहार फिल्म की तरह मेरी आँखों के सामने घूम गया। उस दिन वो मुझे बहुत निरीह प्राणी लगा जो अपनी मर्जी से अपनी ज़िदगी तक नहीं जी सकता। उसके लिए मेरे मन में जितना आक्रोश था धीरे-धीरे पिघलने लगा। वो खूंखार भेड़िया जो अपनी मां के आदेश पर हफ्ते-पंद्रह दिन में एक-दो बार मेरा शिकार किया करता था, निरीह कुत्ते जैसा लग रहा था जो हड्डी के लालच में अपने मालिक के पीछे दुम हिलाता घूमता है।

जब मां को पता चला कि मुझे चंदन के बारे में सबकुछ पता चल गया है। तो उनका व्यवहार मेरे प्रति बहुत कठोर हो गया। वो तो नानी थी जिनके कारण मैं इतने दिन वहां रह सकी। जबतक मैंने तलाक के पेपर दाखिल नहीं किए। मम्मी ने मुझे चैन से नहीं बैठने दिया। उन्हें लगता था कि अगर मैं वहां रही तो चंदन की सच्चाई सबको बता दूंगी। और यह उन्हें मंज़ूर नहीं था। साथ ही वे अपना दामन भी पाक रखना चाहती थी इसलिए उन्होंने मुझे तलाक की अर्जी देने को मज़बूर किया

इतना कहने के बाद निशा का शरीर बेजान सा कुर्सी पर पड़ा था। निशा के इतना सब कहने के बाद भी एक प्रश्न मेरे दिमाग को कुरेद रहा था कि इतना सब होने के बावजूद वह चंदन को अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ विश करने क्यों आई है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा मुझे पता है आप क्या सोच रही हैं। यही न कि इतना सब होने जानने के बावजूद मैं यहां क्यों आई हूं। जिस हालत में मैंने चंदन को उसके माली के साथ देखा था, मुझे तो उससे घृणा करनी चाहिए थी , पर कर नहीं सकी क्योंकि वो तो खुद ही अपनी परिस्थितियों का दास था। उसको वह रिश्ता जीने को कहा जा रहा था जिसके लिए बना ही नहीं था। जब मेरे पास एक रिश्ता निभाने के लिए उसे भेजा जाता होगा तो कितना गिल्ट फील करता होगा। हमने कभी उसके एंगल से सोचा नहीं है। इसीलिए मैं उसे बहुत प्यार करती हूं। समाज मेरी बात कभी नहीं समझेगा। उसको तो लगता है पैसे से दुनिया की हर चीज़ खरीदी जा सकती है। लेकिन कोई मुझे बताए कि क्या चंदन का परिवार अपने इकलौते बेटे की खुशिया खरीद सकता है। क्या मेरे माथे पर लगने वाले तलाकशुदा के दाग को मिटा सकता है।

इसीलिए जस्टिस कपूर के कमरे में मेरी बाकी की ज़िदगी को सुखद बनाने को लेकर पैसे की बारगेनिंग होती है तो मुझे अच्छा नहीं लगता। आप लोग कहते हैं कि मैं व्यवहारिक नहीं हूं। ठीक है, अगर मैं व्यवहारिक बन भी जाऊं, तो बताइए आप मेरी किस भवना की कितनी बड़ी बोली लगाएगी। दीदी वो लोग उतना ही देंगे, जितना उन्होंने पहले से तय करके रखा होगा। जस्टिस कपूर चाहे जितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन उन्होंने जो पहले निर्धारित किया होगा उससे ज्यादा वो कुछ और नहीं देंगे। आप जज साहब से बात क्यों नहीं करती। उनसे कहिए कि भावनाएं, संवेदनाए महसूस करने की चीज़े हैं। ये बनिया की दुकान में खरीदी और बेंची नहीं जातीं। नहीं दीदी, मैं अपनी भावनाओं की बोली किसी को भी नहीं लगाने दूंगी। अगर एक बार मैंने ऐसा कर दिया। तो मैं कंगाल हो जाउंगी। मन से, आत्मा से, भावनाओं से, संवेदनाओं से और रिश्तों से भी। इसी लिए मैं उसे तलाक नहीं देना चाहती। वो जैसी ज़िदगी जीना चाहता है जिए। मैं कभी बाधक नहीं बनूंगी उसके जीवन में। मुझे विश्वास है कि एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा।

निशा की बात ने मुझे भी सोच में डाल दिया। इस एंगल से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था। आज पहली बार महसूस हुआ कि निशा मानसिक रूप से कितनी परिपक्व है। उसका जीवन को देखने अपना अलग नजरिया हैं जो शायद हमारी कारोबारी भावनाओं से मेल नहीं खाता। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि वह गलत है। मैं सोफे से उटकर उसके पैरों के नज़दीक बैठ गई। निशा तुम जो कुछ कह रही हो वह सब सही है पर ज़िदगी सिर्फ भावनाओं से नहीं चलती। इसे चलाने के लिए और भी बहुत कुछ करना पड़ता है। कई बार जानबूझ कर कम्प्रोमाइज़ करने पड़ते है। जो यह कर लेते है। समाज उन्हें सफल इंसान मानता है और जो नहीं कर पाते, वो हरदम अपने में ही उलझे रहते हैं और कभी-कभी जिसके लिए उलझते उन्हें भी कभी इस बात का अहसास नहीं होता किसी ने उनके लिए अपनी ज़िदगी तबाह कर दी। तो बताओ ऐसे समाज में तुम कैसे सर्वाइव करोगी। इसी समाज में इन्हीं लोगों के बीच तुम्हें रहना है तो इनकी बात भी सुननी ही पड़ेगी। इनसे छिटककर हम दूर नहीं जा सकते। इसलिए उलझों मत। जो चीज़ें जैसी हो रही है उन्हें वैसा ही होने दो। और याद रखो, ये जीवन का अंत नहीं है। मात्र एक पड़ाव है। संभव है भगवान ने तुम्हारे लिए कोई और काम सोच रखा हो। वो तुम्हारे हाथों कोई बहुत श्रेष्ठ काम करवाना चाहते हों। इसलिए रुको मत। आगे बढ़ो। और उसके काम में बाधक मत बनो। यहां सब तुम्हारे बारे में अच्छा सोचते हैं। हिमशिला की भांति ठण्डे निशा के दोनों हाथ मेरे हाथों में थे। और आँखो से आँसू टपक रहे थे। मैंने उसे गले लगा लिया। ये निशा की कहानी का अंत नहीं बल्कि नई शुरुआत थी।

आज निशा ने मुझे प्यार की नई परिभाषा से परिचित करवाया था।

-प्रतिभा वाजपेयी.

शायरी

Written By Kunal Verma on रविवार, 29 मई 2011 | 8:44 pm

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दुःख ही दुःख का कारण है



दुःख ही दुःख का कारण है
दिल पर एक बोझ है
मन मष्तिष्क पर छाया कोहराम है
आँखों में धुंध है
पाँवो की बेड़ियाँ हैं
हाथों में हथकड़ी है
धीमा जहर है
विषधर एक -ज्वाला है !!
राख है – कहीं कब्रिस्तान है
तो कहीं चिता में जलती
जलाती- जिंदगियों को
काली सी छाया है !!
फिर भी दुनिया में
दुःख के पीछे भागे
न जाने क्यों ये
जग बौराया है !!
यहीं एक फूल है
खिला हुआ कमल सा – दिल
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हँसता -हंसाता है
मन मुक्त- आसमां उड़ता है
पंछी सा – कुहुक कुहुक
कोयल –सा- मोर सा नाचता है
दिन रात भागता है -जागता है
अमृत सा -जा के बरसता है
हरियाली लाता है
बगिया में तरुवर को
ओज तेज दे रहा
फल के रसों से परिपूर्ण
हो लुभाता है !!
गंगा की धारा सा शीतल
हुआ वो मन !
जिधर भी कदम रखे
पाप हर जाता है !!

देखा है गुप्त यहीं
ऐसा भी नजारा है
ठंडी हवाएं है
झरने की धारा है
jharna














(फोटो साभार गूगल से)
जहाँ नदिया है
7551247-summer-landscape-with-river


(फोटो साभार गूगल से)



भंवर है


पर एक किनारा है





-जहाँ शून्य है
आकाश गंगा है
धूम केतु है
पर चाँद
एक मन भावन
प्यारा सा तारा है !!
शुक्ल भ्रमर ५
29.05.2011 जल पी बी

आंधी के एक बवंडर ने ..नफरत के बवंडर को प्यार में बदल दिया ........

आंधी के एक बवंडर ने ..नफरत के बवंडर को प्यार में बदल दिया ........

आंधी के एक बवंडर ने ..नफरत के बवंडर को प्यार में बदल दिया ........जी हाँ दोस्तों यह कोई फ़िल्मी दास्ताँ नहीं हमारे बिल्लू बार्बर की सच्ची कहानी है ....२२ मई की रात मेरे दफ्तर में मेरे बिल्लू बार्बर जिनके आगे में अक्सर सर झुका कर कटिंग करवाता हूँ और इधर उधर के खट्टे मीठे अनुभव सुनता हूँ उनकी पत्नी के साथ खतरनाक अंदाज़ में आये ..और दोनों पति पत्नी की तू तू में में के बाद उनके प्यार का मोह भंग हो गया था वोह चाहते थे के अब इस बुडापे में वोह कानूनी रूप से अलग अलग हो जाये .....
मेने उनकी तकरार को खत्म करने और उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की ,बहुत समझाया लेकिन बिल्लू बार्बर तो मान गए उनकी पत्नी मानने को तय्यार नहीं थी जिद पर अड़ी थीं ..हमे तो कानूनी रूप से अलग होना है ..मेने कहा के सुबह में इन्दोर जा रहा हूँ तुम अगर कोई लिखा पड़ी करवाना चाहो तो मेरे साथी वकील साहब को में कह देता हूँ वोह करवा देंगे ...लेकिन बिल्लू बार्बर थे के जिद पर अड़ गए कहने लगे के भाईजान जब आप आओगे तब ही हम लिखा पड़ी आपसे करवाएंगे मेने कहा में तो २८ को आउंगा ..दोनों तब तक इन्तिज़ार के लियें तय्यार हो गये ..बिना किसी बात पर तू तू में में के बाद बात इतनी खतरनाक अलगाव पर पहुंचेगी यही सोच कर में अफ़सोस में था खेर में आज सुबह सवेरे जब इन्दोर से आया तो मेरा मन करा के ..पहले कटिंग करवाऊं और फिर देखते हैं बिल्लू बार्बर और उनकी पत्नी का क्या होता है ....
खेर में जेसे ही उनके घर पहुंचा घर इसलियें के घर के निचे ही उनकी दूकान है ..वहां नजारा ही कुछ अलग था मकान का छप्पर टूटा था और छत पर आर सी सी का काम चल रहा था बिल्लू बार्बर और उनकी पत्नी दोड़ दोड़ कर कम कर रहे थे मजदूर छत डालने का काम कर रहे थे मिक्सर में गिट्टी सीमेंट रेत की मिलावट हो रही थी ..खेर बिल्लू बार्बर और उनकी पत्नी ने कुर्सी लगाई पानी पिलाया चाय बनाई में चुप था लेकिन बिल्लू बार्बर ने हंसते हुए कहा के तुम्हारी भाभी का बवंडर तो आंधी के बवंडर में नफरत से प्यार में बदल गया और में और तुम्हारी भाभी आज नई जिंदगी लेकर तुम्हारे सामने खड़े हैं ....
बिल्लू बार्बर ने बताया के जिस दिन आप इन्दोर गए उसी दिन रात को हम इस कमरे में अलग अलग सोये थे कमरे पर पक्की छत नहीं थी . छत के स्थान पर सीमेंट की चद्दर लोहे के एंगल गाड कर ढकान  कर रखा था ..लेकिन उस रात ऐसा आंधी का बवंडर आया के बस छत उढ़ गयी और लोहे के गर्डर टूट कर निचे गिरने लगे मोत के खोफ से दोनों पति पत्नी ने एक दुसरे को बाहों में भरकर एक कोने में समेट लिया और करीब दस मिनट तक  ऐसे ही खोफ्नाक माहोल में टूट कर बिखरती लोहे की एंग्लों और टूटती इंटों से बचते रहे खेर आंधी का यह खतरनाक बवंडर तो थम गया लेकिन इस बवंडर ने पति पत्नी के बीच जो नफरत का बवंडर बना था उसे प्यार में बदल दिया था और दोनों के अलग होने के इरादों पर इस प्यार ने पानी फेर दिया था .....बिल्लुय बार्बर की पत्नी जब नाश्ता लायी तो मेने कहा के भाभी में आ गया हूँ लाओ अब क्या लिखा पढ़ी करना तो भाभी एक सोलाह साल की अल्हड जवान लडकी की तरह शरमाई इठलाई और बात गयी रात गयी मुस्कुराती हुई चली गयी ...में सोचता रहा के एक बवंडर जो तबाही का कारण भी बना है लेकिन कुदरत के खेल निराले हैं कुदरत ने इस एक बवंडर से दो नफरत करने लगे दिलों को फिर से जोड़ कर लेला मजनू के प्यार में बदल दिया ..शायद खुदा..इश्वर..अल्लाह  इसी का नाम है जो असम्ब्भव को संभव बना देता है ................अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

अंदाज ए मेरा: आत्‍मसमर्पित नक्‍सली की कहानी........ उसी की जुबान...

अंदाज ए मेरा: आत्‍मसमर्पित नक्‍सली की कहानी........ उसी की जुबान...: "उसकी उमर कोई 21 साल है। वैसे तो 21 साल की उमर कोई बडी उमर नहीं होती लेकिन इस कम उम्र में उसने काफी कुछ झेला है। उसका नाम संध्‍या है। आज..."

कितना बदल गया रे गाँव

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on शनिवार, 28 मई 2011 | 12:39 pm


कितना बदल गया रे गाँव
अब वो मेरा गाँव नहीं है
ना तुलसी ना मंदिर अंगना
खुशियों की बौछार नहीं है
पीपल की वो छाँव नहीं है
गिद्ध बाज रहते थे जिस पर
तरुवर की पहचान नहीं है
कटे वृक्ष कुछ खेती कारण
बँटी है खेती नहीं निवारण
जल के बिन सूखा है सारा
कुआं व् सर वो प्यारा न्यारा
मोट – रहट की याद नहीं है
अब मोटर तो बिजली ना है
गाय बैल अब ना नंदी से
कार व् ट्रैक्टर द्वार खड़े हैं
एक अकेली चाची -ताई
बुढ़िया बूढ़े भार लिए हैं
नौजवान है भागे भागे
लुधिआना -पंजाब बसे हैं
नाते रिश्ते नहीं दीखते
मेले सा परिवार नहीं है
कुछ बच्चे हैं तेज यहाँ जो
ले ठेका -ठेके में जुटते
पञ्च -प्रधान से मिल के भाई
गली बनाते-पम्प लगाते -जेब भरे हैं
नेता संग कुछ तो घूमें
लहर चले जब वोटों की तो
एक “फसल” बस लोग काटते
“पेट” पकड़ मास इगारह घूम रहे
मेड काट -चकरोड काटते
वंजर कब्ज़ा रोज किये हैं
जिसकी लाठी भैंस है उसकी
कुछ वकील-साकार किये हैं
माँ की सुध -जब दर्द सताया
बेटा बड़ा -लौट घर आया
सौ साल की पड़ी निशानी
36695708
(फोटो साभार गूगल से )
कच्चे घर को ठोकर मारी
धूल में अरमा पुरखों के
पक्का घर फिर वहीँ बनाया
16nblalipurduar
चार दिनों परदेश गया
बच्चे उसके गाँव गाँव कर
पापा को जब मना लिए
कौवों की वे कांव कांव सुनने
लिए सपन कुछ गाँव में लौटे
क्या होता है भाई भाभी
चाचा ने फिर लाठी लेकर
पक्के घर से भगा दिया
होली के वे रंग नहीं थे
घर में पीड़ित लोग खड़े थे
शादी मुंडन भोज नहीं थे
पंगत में ना संग संग बैठे
कोंहड़ा पूड़ी दही को तरसे
ना ब्राह्मन के पूजा पाठ
तम्बू हलवाई भरमार
हॉट डाग चाउमिन देखो
बैल के जैसे मारे धक्के
मन चाहे जो ठूंस के भर लो
भर लो पेट मिला है मौका
उनतीस दिन का व्रत फिर रक्खा
गाँव की चौहद्दी डांका जो
डेव -हारिन माई को फिर
हमने किया प्रणाम
जूते चप्पल नहीं उतारे
बैठे गाड़ी- हाथ जोड़कर
बच्चों के संग संग –भाई- मेरे
रोती – दादी- उनकी -छोड़े
टाटा -बाय -बाय कह
चले शहर फिर दर्शन करने
जहाँ पे घी- रोटी है रक्खी
और आ गया “काल”
ये आँखों की देखी अपनी
हैं अपनी कडवी पहचान !!
कितना बदल गया रे गाँव
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२८.५.२०११
जल पी बी

अगज़ल ----- दिलबाग विर्क

Written By डॉ. दिलबागसिंह विर्क on गुरुवार, 26 मई 2011 | 8:29 pm

बलात्कार – रो रो माँ का हाल बुरा था छाती पीट-पीट चिल्लाये


जब जब मै स्कूल चली
तोते सा फिर माँ ने मुझको
रोज सिखाया – रोज पढाया
क्षुद्र जीव हैं इस समाज में
भोली सूरति उनकी
प्यार से कोई पुचकारेंगे
कोई लालच देंगे तुझको
कोई चन्दन कही लगाये
तिलक लगाये भी होंगे
बूढ़ा या फिर जवां कही !
आँखें देख सजग हो जाना
भाषा दृग की समझ अभी !!
मतलब से बस मतलब रखना
अगर जरुरी कुछ – बस कहना !
मौन भला- गूंगी ही रहना !!
बेटी – देखा- ही ना होता !
मन में- काला तम -भी होता !!
“नाग” सा जो “कुंडली” लपेटे
“डंस” जाने को आतुर होता !!
ये सब गढ़ी पुरानी बातें
इस युग में मुझको थी लगती
टूट चुकी हूँ उस दिन से मै
माँ के अपने चरण में गिरती !!
अंकल-दोस्त – बनाती सब को
मेरी सहेली एक विचरती
सदा फूल सी खिलती घूमी
सब से उसने प्यार किया
शाम सवेरे बिन डर भय के
आँखों को दो चार किया !!
प्रेम – प्रेम -में अंतर कितना
घृणा कहाँ से आती !
माँ की अपनी बातें उसको
मै रहती समझाती !!
खिल्ली मेरी उड़ाती रहती
जरा नहीं चिंतन करती
उस दिन गयी प्रशिक्षण को जब
शाम थी फिर गहराई
माँ बाबा मछली सा तडपे
नैन से सारा आंसू सूखा
बात समझ न आई !!
कुछ अपनों को गृह में ला के
रोते घूमे सारी रात !
ना रिश्ते में ना नाते में
खोज खोज वे गए थे हार !!
काला मुह अपना ना होए
कुछ भी समझ न आये !
कभी होश में बकते जाते
बेहोशी भी छाये !!
दिन निकला फिर बात खुल गयी
पुलिस- लोग -सब -आये
ढूंढ ढूंढ फिर “नग्न” खेत में
क्षत – विक्षत -बेटी को पाए
6155439-illustration-art-of-red-blood-splats-on-a-white-background
खून बहा था गला कसा था
crying_girl-2072
(फोटो साभार गूगल से )
आँखें शर्मसार हो जाएँ !
“कुत्तों” ने था छोड़ा उसको
“कुत्ते” पास में कुछ थे आये !!
रो रो माँ का हाल बुरा था
छाती पीट पीट चिल्लाये
देख देख ये हाल जहाँ का
छाती सब की फट फट जाये
cute-emo-girl-weeping
Cute-Baby-Girl-Weeping
(फोटो साभार गूगल/नेट से )
पल में चूर सपन थे सारे !
पढना लिखना उड़ना जग में
चिड़ियों सा वो मुक्त घूमना
लिए कटोरी दूध बताशा
माँ दौड़ी दौड़ी थक जाये !!
बचपन दृश्य घूम जाता सब
लक्ष्मी –दुर्गा- चंडी -झूंठे
आँखे फटी फटी पत्थर सी
पत्थर की मूरति झूंठलाये !!
कितने पापी लोग धरा पर
जाने क्यों जग जनम लिए
मर जाते वे पैदा होते
माँ उनकी तब ही रो लेती
रोती आज भी होगी वो तो
क्या उनसे सुख पाए ???
उसका भी काला मुँह होगा
जो बेटा वो अधम नीच सा
बलात्कार में पकड़ा जाए !
दोनों माँ ही रोती घूमें
रीति समझ ना आये !!
पकड़ो इनको बाँधो इनको
कोर्ट कचहरी मत भेजो
मुह इनका काला करके सब
मारो पत्थर- गधे चढ़ाये -
जूता चप्पल हार पिन्हाये
मूड मुड़ाये – नोच नोच
कुछ “उस” बच्ची सा लहू निकालो !
लौट के फिर भाई मेरे सब
इनकी नाक वहीँ रगडा दो !!
आधा इनको गाड़ वहीँ पर
उन कुत्तो को वहीँ बुला लो
वे थोडा फिर रक्त चाट लें
इस का रक्त भी इसे पिला दो !!
क्या क्या सपने देख गया मै
दिवा स्वप्न सब सारे
पागल बौराया जालिम मै
ऐसी बातें मत सोचो तुम
जिन्दा जो रहना है तुम को !
दफ़न करो ना कब्र उघारो !!
वही कहानी लिखा पढ़ी फिर
पञ्च बुलाये कफ़न डाल दो
गंगा जमुना ले चल कर फिर
उनको अपनी रीति दिखा दो !!
हिम्मत हो तो कोर्ट कचहरी
अपना मुह काला करवाओ
दौड़ दौड़ जब थक जाओ तो
क्षमा मांग फिर हाथ मिलाओ !!
नहीं तंत्र सब घेरे तुझको
खाना भी ना खाने देगा !
जीना तो है दूर रे भाई
मरने भी ना तुझको देगा !!
कर बलात जो जाये कुछ भी
बलात्कार कहलाये ???
वे मूरख है या पागल हैं
नाली के कीड़े हैं क्या वे ?
मैला ही बस उनको भाए !
नीच अधम या कुत्ते ही हैं
बोटी नोच नोच खुश होयें !!
इनके प्रति भी मानवता
का जो सन्देश पढाये
रहें लचीले ढीले ढाले
कुर्सी पकडे -धर्म गुरु या
अपने कोई -उनको -अब बुलवाओ
वे भी देखें इनका चेहरा
उडती चिड़िया कटा हुआ पर
syedtajuddin__Death of a injured bird
(सभी फोटो गूगल नेट से )
रक्त बहा वो -चीख यहाँ की
तब गूंगे हो जाएँ !!!
शुक्ल भ्रमर ५
२३.०५.२०११ जल पी बी

मेरी बिटिया जब आई तो

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on मंगलवार, 24 मई 2011 | 6:57 pm



मेरी बिटिया जब आई तो
kh baby-24.5.11-2
भोर हुआ इक नया सवेरा
मलयानिल जैसे पुरवाई !
मन महका शीतलता छाई !!
उमड़ घुमड़ घन छाये गरजे !
रिमझिम रिमझिम बादल बरसे !!
चहुँ दिशि में फैला उजियारा
मन मयूर अंगनाई नाचा !
बाप बना कोई-बना था चाचा !!
पास पडोसी जुट आये सब
थाल बजाये – गाये गाना
सोहर अवधपुरी का गाया !
मुंह मीठे मधु -रस घुल आया !!
दादा दादी फूल के कुप्पा !
लक्ष्मी शारद देते उपमा !!
दौड़ -दौड़ कर स्वागत करते
लक्ष्मी आज अंगनवा आई !
हहर हहर खुश उसकी माई !!
बहुरि गये दिन इस फुलवारी
P190511_06.43
फूल खिला अब इस अंगनाई
P190511_06.41
व्यथा रोग सब हर ले भाई





देवी का प्रतिरूप है बेटी
वरद हस्त ले कर गृह आई !!
भर देगी आंगन घर तेरा
शुभ-शुभ जगमग तेरा डेरा
मान करे तू गले लगाये !
जितना प्यार इसे कर पाए !!
अरे लुटा दे खुले हाथ तू
दुगुना तू जीवन में पाए !!
यही कल्पना यही किरण है
प्रतिभा ममता सब कुछ ये
ये गंगा है सीता है ये
यही शीतला यही भवानी
दुर्गा भी ये चंडी मान !
धरती है सुख धन की खान !!
चरण पकड़ चल दे संग इसके
जीवन तू पाए सम्मान !!
सब से बड़ा दान कन्या का
कर पाए जो बने महान !!
दिया जला- फैला – उजियारा
अँधियारा अब कोसों दूर
बेटा -बेटी कभी न करना
मन में कभी न ऐसी भूल !!
जगमग ज्योति जलाये चलना
चरण चढ़ा ले पग की धूल !!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२४.५.२०११ जल पी बी

सनातनी ब्लॉग अग्रिग्रेटर

Written By आशुतोष की कलम on सोमवार, 23 मई 2011 | 10:35 pm

सनातनी ब्लॉग अग्रिग्रेटर अब और भी बेहतर लोगों के साथ आज ही अपने ब्लॉग पर यह लोगों लगाये. !!अपना ब्लॉग सनातन अग्रीगेटर में रजिस्टर कराएँ..देश भक्त भारतियों के चिट्ठों का मंच



ईस लोगों को अपने ब्लॉग मै लगाने के लिए निचे दिए गए कोड को अपने ब्लॉग में लगाये



खुद में सिमटा झील सा मैं...

खबरगंगा: राग-द्वेष से संचालित झारखंड का गृह विभाग

कितना मूर्ख अरे तू मानव (साँस हमारी जहर बनेगी)

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on रविवार, 22 मई 2011 | 3:07 pm


मुझे खोदकर छोड़ दिए हो
सूखा हूँ मै संकरा इतना
शीतल मन ना- मै संकीर्ण
जरा नहीं -आँखों में पानी
जब खोदे हो उदर भरो तुम


मुझे खिलाओ मिटटी- पत्थर
मुंह मेरा जो खुला रहेगा
पेट हमारा होगा भूखा
सांस हमारी जहर बनेगी
विष ही व्याप्त रहेगा इसमें
काल बनूँगा कुछ खाऊँगा
कोई जानवर सांप कहीं तो
बच्चे भी मै खा जाऊँगा !!
तू भी जो गर मिला मुझे तो
उदर पूर्ति तुझसे कर जाऊं
राक्षस हूँ मै -भूखा दानव
कितना मूर्ख अरे तू मानव ??
चाहे कितने हों संशाधन
पास तुम्हारे तेरी सेना
गाँव गली के सारे जन
देख चुका कितनों को खाया
भूखा फिर भी ना भर पाया !!
कल सोनू स्कूल से लौटा
पांच का सिक्का उदर में मेरे
डाला जो -तो -भूख बढ़ी
लालच मेरी और बढ़ी
सोनू को मै बुला -लिटाया
देर हुआ जब बहना देखी
वो भी मेरे पेट में उतरी
उसका पति भी पीछे उसके
प्रेम बंधे-सब पेट में मेरे !
इतने पर भी पेट भरा ना
मै राक्षस हूँ -काल तुम्हारा
सोनू का भाई बड़ा दुलारा !
दौड़ा आ फिर पेट में उतरा !!
सब बेहोश किये – मै खेला
अट्टहास कर गरजा बोला
खा जाऊँगा जो आएगा
पेट अगर जो नहीं भरेगा
खोद कुआँ यूं ही मत छोड़े
बहरे कान फटे फिर जागे !!
पुलिस लिए सब दौड़े आये
चार -चार को धरा निकाला !
अस्पताल ले जा फिर रोये
सभी मरे सब को मै खाया !!
या पिंजौर देश काल कुछ
कौशल्या तट की हो बस्ती
मै बस देखूं अपना पेट
या मेरा तू पेट भरे – जा
या प्रिय का वलिदान दिए जा !
सूखा देख अगर जो छोड़े
मूरख -पानी -आँखों ले -ले !!
यह रचना एक सत्य घटना पर आधारित है पांच का सिक्का एक अंधे सूखे कुएं में गिर जाने के कारण बालक कुएं में जहरीली गैस का शिकार हुआ तो पीछे पीछे सारा परिवार प्राण की आहुति दे गया -कितने मूर्ख हैं हम इतने बार देख चुके- फिर भी न तो “बोर” को बंद करते हैं न “कुएं” को जब कोई बलि चढ़ जाता है तो बस बैठ के रोते हैं – आइये सब मिल इससे बचें और सब मिल कम से कम इसे घेर कर बच्चों और जानवरों का प्राण बचाएं
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५

मतदाता के बदलते मूड का संकेत हैं ये चुनाव परिणाम

Written By तेजवानी गिरधर on शनिवार, 21 मई 2011 | 7:58 am

माकपा विचारधारा की राष्ट्रीय प्रासंगिकता पर लटकी तलवार
कांग्रेस को भुगतनी पड़ी अपनी खुद की गलतियां
भाजपा के अकेले दिल्ली पहुंचना सपना मात्र
पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने यह एक बार फिर साबित कर दिया है कि आम मतदाता का मूड अब बदलने लगा है। वह जाति, धर्म अथवा संप्रदाय दीवारों को लांघ कर वह विकास और स्वस्थ प्रशासन को प्राथमिकता देने लगा है। राजनीति में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार से वह बेहद खफा हो गया है। अब उसे न तो धन बल ज्यादा प्रभावित करता है और न ही वह क्षणिक भावावेश के लिए उठाए गए मुद्दों पर ध्यान देता है। चंद लफ्जों में कहा जाए तो हमारा मजबूत लोकतंत्र अब परिपक्व भी होने लगा है। अब उसे वास्तविक मुद्दे समझ में आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही संकेत उसने कुछ अरसे पहले बिहार में भी दिया था, जहां कि जंगलराज से उकता कर उसने नितीश कुमार की विकास की गाडी में चढऩा पसंद किया। कुछ इसी प्रकार सांप्रदायिकता के आरोपों से घिरे नरेन्द्र मोदी भी सिर्फ इसी वजह से दुबारा सत्तारूढ़ हो गए क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी ताकत विकास के लिए झोंक दी।
सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा पश्चिम बंगाल में आया परिवर्तन। यह कम बात नहीं है कि एक विचारधारा विशेष के दम पर 34 साल से सत्ता पर काबिज वामपंथी दलों का आकर्षण ममता की आंधी के आगे टिक नहीं पाया। असल में इस राज्य में वामपंथ का कब्जा था ही इस कारण कि मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। जैसे ही मां, माटी और मानुस की भाषा मतदाता के समझ में आई, उसने ममता का हाथ थाम लिया और वहां का लाल किला ढ़ह गया। असल में ममता का परिवर्तन का नारा जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप था। कदाचित ममता की जीत व्यक्तिवाद की ओर बढ़ती राजनीति का संकेत नजर आता हो, मगर क्या यह कम पराकाष्ठा है कि लोकतंत्र यदि अपनी पर आ जाए तो जनकल्याणकारी सरकार के लिए वह एक व्यक्ति के परिवर्तन के नारे को भी ठप्पा लगा सकता है।
इस किले के ढ़हने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि कैडर बेस मानी जाने वाली माकपा के हिंसक हथकंडों ने आम मतदाता को आक्रोषित कर दिया था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद ममता की तृणमूल कांग्रेस ने साबित कर दिया कि वही वामपंथियों से टक्कर लेने की क्षमता रखती है। एक चिन्हित और स्थापित विचारधारा वाली सरकार का अपेक्षाओं का केन्द्र बिंदु बनी ममता के आगे परास्त हो जाना, इस बात का इशारा करती है कि आम आदमी की प्राथमिकता रोटी, कपड़ा, मकान और शांतिपूर्ण जीवन है, न कि कोरी विचारधारा।
तमिलनाडु चुनाव ने तो एक नया तथ्य ही गढ दिया है। इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि आम मतदाता अपनी सुविधा की खातिर किसी दल को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट देने को तैयार नहीं है। मतदाता उसको सीधा लालच मिलने से प्रभावित तो होता है, लेकिन भ्रष्ट तंत्र से वह कहीं ज्यादा प्रभावित है। चाहे उसे टीवी और केबल कनैक्शन जैसे अनेक लुभावने हथकंडों के जरिए आकर्षित किया जाए, मगर उसकी पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार से मुक्ति और विकास है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरे वयोवृद्ध द्रमुक नेता एम. करुणानिधि ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे लोक-लुभावन हथकंडों के बाद भी अकेले भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से इस तरह बुरी कदर हार जाएंगे। कदाचित इसकी वजह देशभर में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से भी हुआ हो।
जहां तक पांडिचेरी का सवाल है, वह अमूमन तमिलनाडु की राजनीति से प्रभावित रहता है। यही वजह है कि वहां करुणानिधि के परिवारवाद और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उनकी पार्टी से मतदाता में उठे आक्रोश ने अपना असर दिखा दिया। कांग्रेस को करुणानिधि से दोस्ती की कीमत चुकानी पड़ी। इसके अतिरिक्त रंगासामी के कांग्रेस से छिटक कर जयललिता की पार्टी के साथ गठबंधन करने ने भी समीकरण बदल दिए।
वैसे हर चुनाव में परिवर्तन का आदी केरल अपनी आदत से बाज नहीं आया, मगर अच्युतानंदन की निजी छवि ने भी नतीजों को प्रभावित किया। यद्यपि राहुल गांधी की भूमिका के कारण कांग्रेस की लाज बच गई और यही वजह रही कि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा।
रहा असम का सवाल तो वह संकेत दे रहा है कि अब छोटे राज्यों में हर चुनाव में सरकार बदल देने की प्रवत्ति समाप्त होने लगी है। मतदाता अब विकास को ज्यादा तरजीह देने लगा है। हालांकि जहां तक असम का सवाल है, वहां लागू की गईं योजनाएं तात्कालिक फायदे की ज्यादा हैं, मगर आम मतदाता तो यही समझता है कि उसे कौन सा दल ज्यादा फायदा पहुंचा रहा है। उसे तात्कालिक या स्थाई फायदे से कोई मतलब नहीं है। असम में सशक्त विपक्ष का अभाव भी तुरुण गोगोई की वापसी का कारण बना। एक और मुद्दा भी है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा असरकारक रहा। तरुण गोगोई की ओर से उग्रवादियों पर अंकुश के लिए की गई कोशिशों को मतदाता ने पसंद किया है। असल में अलगाववादियों की वह से त्रस्त असम वासी हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहते हैं।
कुल मिला कर इन परिणामों को राष्ट्रीय परिदृश्य की दृष्टि से देखें तो त्रिपुरा को छोड़ कर अपने असर वाले अन्य दोनों राज्यों में सत्ता से च्युत होना माकपा के लिए काफी चिंताजनक है। इसकी एक वजह ये भी है कि वह वैचारिक रूप से भले ही एक राष्ट्रीय पार्टी का आभास देती है, केन्द्र में उसका दखल भी रहता है, मगर वह कुछ राज्यों विशेष में ही असर रखती है और राष्ट्रीय स्तर पर वह प्रासंगिकता स्थापित नहीं कर पा रही। ताजा चुनाव कांग्रेस के लिए सुखद इसलिए नहीं रहे कि उसने खुद ने ही कुछ मजबूरियों के चलते गलत पाला नहीं छोड़ा। करुणानिधि की बदनामी के बावजूद उसने मौके की नजाकत को नहीं समझा और अन्नाद्रमुक के साथ हाथ मिलाने का मौका खो दिया। भाजपा की दिशा हालांकि ये चुनाव तय नहीं करने वाले थे, लेकिन फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया है। पार्टी ने असम में जोर लगाया, मगर उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। कुल मिला कर उसके सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा का खड़ा ही है कि वह आज भी देश के एक बड़े भू भाग में जमीन नहीं तलाश पाई है, ऐसे में भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त मतदाता को लुभाने के बावजूद राजनीतिक लाभ उठा कर देश पर शासन का सपना देखने का अधिकार नहीं रखती।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

कितने रूप धरे तू नारी

Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on शुक्रवार, 20 मई 2011 | 9:33 pm


बड़े चैन से सोया था मै
मंदिर सीढ़ी पड़ा कहीं
क्या क्या सपने -खोया था मै
ले भागी स्टेशन जब !!
सीटी एक जोर की सुन के
चीख उठा मै कान फटा
एक भिखारन की गोदी में
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(फोटो साभार गूगल /नेट से लिया गया)
सुन्दर-सजा हुआ लिपटा
देख रहा अद्भुत एक नारी !!
—————————-
बड़ी भीड़ में घूर रही कुछ
तेज निगाहें देख रहा
अरे चोरनी किसका बच्चा
ले आई यों खिला रही
शर्म नहीं ये धंधा करते
खीसें खड़ी निपोर रही
देख रहा शरमाती नारी !!
————————–
फटी हुयी साडी लिपटा के
मुझे लिए डरती भागी वो
खेत बाग़ डेरे में पल के
खच्चर -मै -चढ़ घूम रहा
सूखा रुखा मुर्गा चूहा
पाया जो आनंद लिया !
कान छिदाये माला पहने
नाग लिए मै घूम रहा !
खेल दिखाता करतब कितने
“बहना” भी एक छोटी पायी
भरे कटोरा ले आते हम
ख़ुशी बड़ी अपनी ये माई !
देख रहा क्या लोलुप नारी !!
—————————
उस माई का पता नहीं था
कहीं अभागन जीती जो
या लज्जा से मरी कहीं वो
साँसे गिनती होगी जो
सोच रहा वो कैसी नारी !!!
————————–
अपनी माँ को माँ कहने का
सपना मन में कौंध रहा
उस मंदिर में बना भिखारी
रोज पहुँच मै खड़ा हुआ
जिस सीढ़ी से मुझे उठा के
इस माई ने प्यार दिया
सोच रहा था ये भी नारी !!!
————————–
माई माई मै घिघियाता
कुछ माई ने देखा मुझको
सिक्का एक कटोरे डाले
नजरों जाने क्या भ्रम पाले
कोई प्यार से कोई घृणा से
मुह बिचका जाती कुछ नारी
कितने रूप धरे तू नारी !!!
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नट-नटिनी के उस कुनबे में
मुझे घूरती सभी निगाहें
कृष्ण पाख का चंदा जैसे
उस माई का “लाल ये” दमके
कोई हरामी या अनाथ ये
बोल -बोल छलनी दिल करते
देख रहा अपमानित चेहरा -तेरा -नारी !!
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बच्चों की कुछ देख किताबें
हाथ में बस्ता टिफिन टांगते
कितना खुश मै हँस भी पड़ता -
मन में !! -दूर मगर मै रहता
छूत न लग जाये बच्चों को
प्यारे कितने फूल सरीखे !
गंदे ना हो जाएँ छू के !
हँस पड़ता मै -रो भी पड़ता
हाथ की अपनी देख लकीरें
देख रहा किस्मत की रेखा !!!!
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तभी एक “माई” ने आ के
पूड़ी और अचार दिया
गाल हमारा छू करके कुछ
“चुप” के से कुछ प्यार दिया
गोदी मुझे लगा कर के वो
न्योछावर कर वार दिया !
कुछ गड्डी नोटों की दे के
इस माई से मुझे लिया !!
भौंचक्का सा बना खिलौना
“उस माई ” के संग चला
देख चुका मै कितनी नारी !!!
कितने रूप धरे तू नारी !!
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
१७.५.२०११ जल पी. बी .१०.४१ मध्याह्न

Founder

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Saleem Khan