संसार के जंगल में रोज जाती है वो
गठरी मजबूरियों के भर-भर लाती है वो
चूल्हा धधकता तभी है पेट का
चुन-चुन बूंद जिंदगी को बुझाती हो वो
ओहदे, चेहरे, नाम, धर्म सबने कहा
चंद दिनों का और मुफलिसी का जीवन रहा
पर, मगर, सदियां बीत गईं सुनते-सुनते यही
अब तो बात बस उसके नहीं रही
बसें तो नहीं पर बस्तर पहुंचे लक्कड़. लोहा,
मिट्टी, गिट्टी, रेती, पानी, हवा,
पत्ते, पौधे, यहां तक कि जिंदगियों को चोर
मैना, कोयल, कूक, शाल, बीज
दशहरा, सल्फी, शहद, और मसूली भी
छोड़ हटरी उसकी बिक रही देश में चारो ओर
सियासत आती कहने मत रखो फूल पर
दुनियावी नाइंसाफियां भूलकर
रमन, रहनुमा है तुम्हारा
क्या नहीं जानते यह एहसान हमारा
छोड़ दो संस्कृति, संसार, मनाओ खैर कि
कम से कम बची तो है जान...
-सखाजी
गठरी मजबूरियों के भर-भर लाती है वो
चूल्हा धधकता तभी है पेट का
चुन-चुन बूंद जिंदगी को बुझाती हो वो
ओहदे, चेहरे, नाम, धर्म सबने कहा
चंद दिनों का और मुफलिसी का जीवन रहा
पर, मगर, सदियां बीत गईं सुनते-सुनते यही
अब तो बात बस उसके नहीं रही
बसें तो नहीं पर बस्तर पहुंचे लक्कड़. लोहा,
मिट्टी, गिट्टी, रेती, पानी, हवा,
पत्ते, पौधे, यहां तक कि जिंदगियों को चोर
मैना, कोयल, कूक, शाल, बीज
दशहरा, सल्फी, शहद, और मसूली भी
छोड़ हटरी उसकी बिक रही देश में चारो ओर
सियासत आती कहने मत रखो फूल पर
दुनियावी नाइंसाफियां भूलकर
रमन, रहनुमा है तुम्हारा
क्या नहीं जानते यह एहसान हमारा
छोड़ दो संस्कृति, संसार, मनाओ खैर कि
कम से कम बची तो है जान...
-सखाजी
2 टिप्पणियाँ:
च --
भावपूर्ण एवं सार्थक रचना...
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Thanks for your valuable comment.