(कवि सुधीर गुप्ता "चक्र" कविता)
दरवाजे
हर रोज
अनगिनत बार
चौखट से गले मिलते हैं
साक्षी हैं कब्जे
इस बात के
जो
सौगंध खा चुके हैं
दोनों को मिलाते रहने की
जंग लगने पर
कमजोर हो जाते हैं कब्जे
और
चर्र-चर्र.....
आवाज करते हुए
कराहते हैं दर्द से
फिर भी
निःस्वार्थ भाव से
दोनों को मिलाते रहने का क्रम
जारी रखते हैं
जलते हैं तो
गिट्टक और स्टॉपर
मिलन के अवरोधक बनकर
कहने को अपने हैं
सहयोग करती है
हवा
अपनी सामर्थ्य के अनुसार
ललकारती भी है
और
चौखट से दरवाजे का
मिलन हो न हो
जारी रखती है प्रयास
उससे भी महान है
चटकनी
जो
ढूँढती है मौका
दोनों के प्रणय मिलन का
और
खुद बंद होकर
घंटों मिला देती है दोनों को।
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