जीवन की सबसे नाजुक सी भावना होती है, कमेच्छा। यह यूं तो बहुत दबे पांव मन में आती है, लेकिन गाहेबगाहे यह पूरे जीवन की निर्धारिका सी बन जाती है। इससे निपटने के लिए संवेदनशील होना आवश्यक हो जाता है। नतीजों को हर कसौटी पर कसकर सही-सही तय कर पाना कि क्या होगा, कैसे होगा, क्यों होगा, क्या हानि और लाभ हो सकता है, इस बात की ताकत पर कामेच्छाएं वार करती हैं। संवेदनशीलता इन्हीं सब बातों से निपटने के लिए इकलौता दिमागी सॉफ्टवेयर है, जिसके माध्यम से हम सही मायनों में कामेच्छा समेत तमाम असामाजिक बातों से बच सकते हैं। संवेदनशीलता को बनाए रखने और इसे और उन्नतशील बनाने के लिए क्या होना चाहिए, इस बात के लिए क्या करना श्रेयष्कर हो सकता है। बेलगाम घोड़े पर सवारी जितनी कठिन होती है, उतना ही कठिन कामेच्छाओं से भरपूर असंवेदनशील मन होता है। काम को जीवन से बेदखल नहीं किया जा सकता, न ही ऐसी किसी भी अंसतुलित भाव विचार या संभावनाओं को ही नकारा जा सकता है। मगर इसे संयमित जरूर किया जाना चाहिए। काम के विभिन्न अंगों में गंवारपन, स्वार्थ, बेईमानी, अच्छे और बुरे के बीच की बड़ी भारी फर्क लाइन आदि ऐसी चीजें हैं, जो मानव के सभ्य समाज को दूषित बनाती हैं। मगर क्या काम को संयमित करने के लिए संवेदनशीलता के अतिरिक्त भी कुछ है, चूंकि संवेदनशीलता मन की गहराइयों में छिपे वह तत्व हैं, जो अध्यात्म, चरित्र, विचार, व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, नैतिकता, विवेक, चेतना, प्रज्ञा, विधि, संयम और नियंत्रित इच्छाओं की कई सारी परतों से मिलकर बनी होती है। संवेदनशीलता में मजबूती प्रदान करने वाले अवयवों में परिवार और परिजन हैं, इसके बाद बारी आती है दोस्तों, लगाव और कोई काम करने के अपने अभीष्ट की। संवेदनशीलता में लगातार ह्रास होता है, जब मनुष्य एकाकी होता जाता है और उसके जीवन में एकांत और सफलताओं से होकर हवाएं चलती हैं। इनका असर कुछ यूं होता है कि वह या तो इस एकाकी को अध्यात्म बना ले या फिर स्वयं को नष्ट कर दे। चरित्र हारने वाले लोगों को लाख विद्वान, गुणी, विचारवान और संस्कारवान होते हुए भी अच्छा नहीं माना जाता है। चूंकि चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत है, जो मनुष्यों के बीच भरोसा पैदा करता है। जानवरों में समान जाति के प्रति प्रेम, संवाद और कुछ भावनाएं मिल सकती हंैं, किंतु भरोसा नहीं। मनुष्य में यह पाया जाता है, और इसका निर्माण होता है अच्छे चरित्र से। चरित्रहीन व्यक्ति अपनी बड़ी ऊर्जा को या तो इस पर काबू पाने में या इसकी पूर्ति में लगा देता है।
कुछ इस तरह की बातों के बीच लगातार एक ही प्रश्न तैरता है।
१. काम पर काबू पाने के लिए क्या किया जाए?
इसके उत्तर की तलाश में हम पहले तो काम की पृष्ठभूमि को जान लें, फिर इसकी संभावनाओं और प्रेरणाओं को जानें, फिर कारणों और कारकों पर बात करें और अंत में इनके समाधान पर। काम मनुष्य ही नहीं संपूर्ण जगत के प्राणियों की सहज प्राकृतिक इच्छा है। यह स्वयं ही एक तरह की संवेदनशीलता है। यह मनुष्य समेत सभी जीवों में दो रूपों में पाई जाती है, एक अनियंत्रित और दूसरी नियंत्रित। मनुष्यों में ईश्वर ने ऐसी सामाजिक, पारिवारिक और व्यस्था का तानाबाना दिया है, जो नियंत्रित कामेच्छा की जरूरत को पैदा करता है। जबकि शेष में अनियंत्रित प्राकृतिक योनाकांक्षाएं पाई जाती हैं। मनुष्य को इसे कभी अपनी कमजोरी नहीं बल्कि एक संपत्ति के रूप में देखना चाहिए। इसके सही, नियमित, संयमित, कानून सम्मत और सही दिशा व दशा देने वाले बिंदुओं से बांधकर खर्चना चाहिए। यह तो बात हुई काम की पृष्ठभूमि की, अब हम बात करें इसकी संभावनाओं और प्रेरणाओं की तो यह दोनों ही एक दूसरे की अनुपूरक हैं, मार्केट बहुत बड़ा व्याध है। इसमें तमाम कामेच्छा जगाने वाले माध्यम हैं, तो ऐसे में प्रेरणाओं और संभावनाओं से नहीं बचा जा सकता है, हां चिंतन निरंतर करके इससे बचा जा सकता है। यानी इन प्रेरणाओं और संभावनाओं से बचने का सही तरीका एक ही है कि हम चिंतन करें। इसके कारणों को यथासंभव न पनपने दें। इसके समाधान क्या और क्या हो सकते हैं।
१. अध्यात्म की शरण- 2. चिंतन निरंतर. 3. पारिवारिक परिवेश. 4. सामाजिक, जिम्मेदारना पेशा. 5. स्थान, समय, कर्मक्षेत्र से अटूट लगाव. 6. विवेक और चेतना की संप्रभूता. 7. बुद्धिमानी. 8. अध्ययन. 9. भय. 10. ईमानदारी.
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