आदरणीय अन्ना अंकल,
बेटी बचाओ के नारों के इस दौर में एक नारे ने मेरी नींद हराम कर रखी है . यह नारा लगभग हर मंच से गूंजने लगा है ”बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे ?“
देखने में यह नारा बेटियां बचाने के पक्ष में लगता है जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं . इसमें चिंता बेटी बचाने को ले कर नहीं बल्कि अपने लाड़ले के लिए बहू लाने को ले कर है कि बेटियां अगर नहीं बचाई गई तो आपके बेटे रण्डुए रह जायेंगे और आपने दहेज़ में एक किलो सोना और कार लेने का या बाद में बहू को जला कर आनन्द लेने का जो सपना देख रखा है, वह अधूरा रह जाएगा. कोई माने या न माने, लेकिन नारा साफ कह रहा है कि और लोगों को बेटियां बचानी ही चाहिए ताकि हमारे बेटे को बहू आसानी से मिल जाए. क्योंकि भारत ने अभी इतनी तरक्की तो की नहीं कि कोई अपनी ही बेटी को बहू बना ले .तो मतलब साफ है कि ये नारा यह नहीं कहता कि बेटियां हम बचाएं बल्कि यह सुझाव दे रहा है कि जहाँ हमारे बेटे का रिश्ता हो सकता है, वे परिवार बेटियां बचाएं ताकि हम बहू ले आएं . यानि, कुला जामा बात तो यह हुई कि सारा मामला बहुओं को बचाने का है, बेटियों को बचाने का नहीं . शायद इसी बात पर गालिब ने कहा था :
” वो कहते हैं मेरे भले की
लेकिन बुरी तरह “
दूसरी बात ये कि यह नारा चुनौती देता है कि बहू कहां से लाओगे ? चुनौती जब भी कोई देता है, हम भारतवासी आगे बढ कर स्वीकार कर लेते हैं. सारे भारतवासी न सही हमारा पड़ौसी राम दुलारे तो स्वीकार कर ही लेता है. कल ही हमारे मोहल्ले के मंच से नारा गूंजा ” बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे ?“ राम दुलारे तुरंत चिल्लाया ” बिहार से, बंगाल से, उड़ीसा से . और अब तो इंटरनेट, फेसबुक का ज़माना है तो चैटिंग-सैटिंग करके पोलैंड या होलैंड से भी ले आयेंगे .“
मंच-संचालक को राम दुलारे का जवाब बहुत बुरा लगा . लेकिन राम दुलारे समझाने लगा कि इसी सवाल को ऐसे पूछो ”बहुएं नहीं बचाओगे तो बेटी कहां से लाओगे? यानी, पहले बहुओं को तो बचाना सीख लो , बेटियाँ तो खुद हो जायेंगी .
इस बात पर भीड़ में बैठी कुछ सास टाइप औरतें नाराज़ हो गई कि यह मुआ भी ज़ोरू का गुलाम निकला ! कोई हम बूढियों का पक्ष भी तो ले, सास को बचाने की बात क्यों नहीं कहते, हरामियो ?
तब से बेचारा मंच-संचालक अपना सर पकड़े बैठा है कि बेटियां बचाने के लिए वह क्या नारा लगाए ? इतना तो वह भी जानता है कि बेटियां नारे लगाने या उनकी घुड़चढी करवा देने से नहीं बचती . खुद जब वह पिछले साल अपनी पत्नी को मैटरनिटी होम ले कर जा रहा था तो उसकी मां ने कहा था ” चांद सा बेटा ले कर आना . ईंट-पत्थर मत ले आना .“
ऐसे में आप ही हमारी मदद कर सकते हैं यह समझा कर कि बेटियां ईंट-पत्थर नहीं होती बल्कि वे तो छुई-मुई का पौधा होती हैं जिन्हे खाद-पानी और खुला आसमान तो चाहिए ही, अनचाहे स्पर्श से भी दूर रखे जाने की भी वे मांग करती हैं .
आपका अपना बच्चा,
मन का सच्चा,
अकल का कच्चा
- प्रदीप नील
6 टिप्पणियाँ:
बहू कहाँ से आयगी, बेमानी हैं बात |
मूल प्रश्न है बेटियां, दर्द भरे हालात |
दर्द भरे हालात, मर्द यूँ ही जी लेगा |
भूला रिश्ते नात, भला विज्ञान करेगा |
है उन्नत विज्ञान, जात मानव ना नाशे |
पुत्र पाल निज गर्भ, जरुरी बहू कहाँ से ??
kuchh bhi kahlo n beti kee sthiti me sudhar aane vala hai n bahu ko uska hak milne vala hai..nice presentation.संघ भाजपा -मुस्लिम हितैषी :विचित्र किन्तु सत्य
सटीक और सार्थक लेख ....
बहुत सार्थक प्रस्तुति...
श्री रविकर फैजाबादी, कैलाश शर्मा जी ,डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण), शालिनी जी कौशिक एवम संगीता स्वरुप जी ( गीत )
आप सब का आभारी हूँ कि आपाधापी के युग में आपने रुक कर न केवल मेरी पोस्ट को ही पढ़ा बल्कि उत्साहवर्धक टिप्पणियां देने के लिए भी समय निकाला.
इस कलयुग में आपका यह अंशदान पर्याप्त से भी ज्यादा है
मेरा ब्लॉग तो आपने देखा ही है www.neel-pardeep.blogspot.com
पुन: आभार सहित,
प्रदीप नील
अच्छा लेख |
आशा
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Thanks for your valuable comment.