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Written By Surendra shukla" Bhramar"5 on रविवार, 1 अप्रैल 2012 | 8:53 am


झरना से सरिता बन जाऊं
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प्रभु जी मैंने पाल राखी है ज्योति पुंज की आशा
दुर्बल मूढ़ इतै उत भटकूँ ना समझूँ परिभाषा
तन का  मन का निज का उस का सुख क्या किसका अच्छा  ??
अच्छा सच्चा यदि ये कहिये उसको वो क्यों अच्छा ??
है आनंद रूप प्रभु तेरा तो वो नित तो पाता
फिर अनुचित कह जग रोता क्यों तुझ को भी ना भाता
स्वार्थ लिप्त तो सब ही दीखें कारण वश वो करता
काल नियंत्रक कारण जन क्यों अग्नि परीक्षा करता ??
है प्रकाश ही चरम विन्दु तो काली रात यहाँ क्यों आती
निर्बल दुखियारों को ही क्यों फिर आंधी रही उड़ाती ??
कल के सपनों की खातिर कुछ मोती रोज पिरोता
गूंथ न पाया माला प्रभु में झर -झर रह गया रोता
दिव्य दृष्टि तेरी तो प्रभुवर गुरु बन जा दे शिक्षा
खांई कहाँ ? कहाँ पथ दुर्गम आहट -दे -ये भिक्षा
कर्म लीन तो हूँ मै भी फल से विरत कहो कैसे हूँ
सत्कर्मों का फल त्यागूँ जो दुष्कर्मों का दोषी क्यों हूँ ?
सुख में दुःख में सब में समता रखता फिर भी अलग पड़ा
ऊँच नीच हर भेद भाव सब मेरे मत्थे यहीं जड़ा
मै अबोध -बालक हूँ अब भी कोरा मन है मेरा
चला मिटाता लिक्खा जग का प्रभु अब लिख तू तेरा
निर्मल जल सा होए जीवन सींचे तृप्त किये सुख पाऊँ
गड़ही - में बस  सडू  नहीं मै झरना से सरिता बन जाऊं !!


सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५


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