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एक वो ज़िफन थी, जो आपसे न कह सके

Written By Brahmachari Prahladanand on शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011 | 11:11 am

एक वो ज़िफन थी, जो आपसे न कह सके,
ना आज है, इसमें न रियाज़ है इसमें,
ये तो वो आफ्तियान्गी है जो सब न सह सके,
आती है उफान पर तो सागर भर जाते हैं,
न जाने इससे कितनों के गागर भर जाते हैं,

बन सँवरकर न रियाज़, इसका किया करते हैं,
ये तो वो कफ़न है, जिसको पहनकर जिया करते हैं,
रहते हैं जब उसी में शाम-ओ-सुबह दिन-ओ-रात,
तो फिर क्यूँ करें दिखावे वाली हर बात,

उतर आती हैं, ग़ज़लें, उतर आती हैं, नज्में,
उतर आते हैं, शेर, उतर आतें हैं अश्हार,
न ये रियाज़ से आते हैं, न इस पे नाज़ खाते हैं,
ये तो वो कफ़न हैं, जो न जाने कब फनकार बना जाते हैं,

फन जब आता है, तो कफन भी साथ लाता है,
हर कोई यूँ ही फनकार नहीं बन जाता है,
फरमाईश पे वो किसी की न गाता है,
जब भी फन उसका आता है, वो सबको भाता है,

तुकबंदी सबको नसीब नहीं होती है,
देख लो कर के, कितना ही रियाज़,
ये तो वो बला है, तो दिल की टुक-टुक में बंद होती है,
जब दिल की टुक-टुक ही तो उसकी तुकबंदी होती है,

                                                                           ------- बेतखल्लुस
 


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