बोल्डनेस छोड़िए हो जाइए कूल...खुशदीप के सन्दर्भ में
ख़ुशदीप सहगल किसी ब्लॉग पर अपनी मां का काल्पनिक नंगा फ़ोटो देखें तो उन्हें दुख होगा इसमें ज़रा भी शक नहीं है लेकिन उनकी मां का नंगा फ़ोटो ब्लॉग पर लगा हुआ है और उन्हें दुख का कोई अहसास ही नहीं है।...और यह फ़ोटो उनके ही ब्लॉग पर है और ख़ुद उन्होंने ही लगाया है।
उन्होंने चुटकुलों भरी एक पोस्ट तैयार की। जिसका शीर्षक है ‘बोल्डनेस छोड़िए और हो जाइये कूल‘
इस पोस्ट का पहला चुटकुला ही हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और अम्मा हव्वा अलैहिस्सलाम पर है। इस लिहाज़ से उन्होंने एक फ़ोटो भी उनका ही लगा दिया है। फ़ोटो में उन्हें नंगा दिखाया गया है।
दुनिया की तीन बड़ी क़ौमें यहूदी, ईसाई और मुसलमान आदम और हव्वा को मानव जाति का आदि पिता और आदि माता मानते हैं और उन्हें सम्मान देते हैं। ये तीनों मिलकर आधी दुनिया की आबादी के बराबर हैं। अरबों लोग जिनका सम्मान करते हैं, उनके नंगे फ़ोटो लगाकर ब्लॉग पर हा हा ही ही की जा रही है।
यह कैसी बेहिसी है भाई साहब ?
आदम हव्वा का फ़ोटो इसलिए लगा दिया कि ये हमारे कुछ थोड़े ही लगते हैं, ये अब्राहमिक रिलीजन वालों के मां बाप लगते हैं।
अरे भाई ! आप किस की संतान हो ?
कहेंगे कि हम तो मनु की संतान हैं।
और पूछा जाए कि मनु कौन हैं, तो ...?
कुछ पता नहीं है कि मनु कौन हैं !
अथर्ववेद 11,8 बताता है कि मनु कौन हैं ?
इस सूक्त के रचनाकार ऋषि कोरूपथिः हैं -
यन्मन्युर्जायामावहत संकल्पस्य गृहादधिन।
क आसं जन्याः क वराः क उ ज्येष्ठवरोऽभवत्। 1 ।
तप चैवास्तां कर्भ चतर्महत्यर्णवे।
त आसं जन्यास्ते वरा ब्रह्म ज्येष्ठवरोऽभवत् । 2 ।
अर्थात मन्यु ने जाया को संकल्प के घर से विवाहा। उससे पहले सृष्टि न होने से वर पक्ष कौन हुआ और कन्या पक्ष कौन हुआ ? कन्या के चरण कराने वाले बराती कौन थे और उद्वाहक कौन था ? ।1। तप और कर्म ही वर पक्ष और कन्या पक्ष वाले थे, यही बराती थे और उद्वाहक स्वयं ब्रह्म था।2।
यहां स्वयंभू मनु के विवाह को सृष्टि का सबसे पहला विवाह बताया गया है और उनकी पत्नी को जाया और आद्या कहा गया है। ‘आद्या‘ का अर्थ ही पहली होता है और ‘आद्य‘ का अर्थ होता है पहला। ‘आद्य‘ धातु से ही ‘आदिम्‘ शब्द बना जो कि अरबी और हिब्रू भाषा में जाकर ‘आदम‘ हो गया।
स्वयंभू मनु का ही एक नाम आदम है। अब यह बिल्कुल स्पष्ट है। अब इसमें किसी को कोई शक न होना चाहिए कि मनु और जाया को ही आदम और हव्वा कहा जाता है और सारी मानव जाति के माता पिता यही हैं।
ख़ुशदीप सहगल के माता पिता भी यही हैं।
अपने मां बाप के नंगे फ़ोटो ब्लॉग पर लगाकर सहगल साहब ख़ुश हो रहे हैं कि देखो मैंने कितनी अच्छी पोस्ट लिखी है।
अपनी मां की नंगी फ़ोटो लगा नहीं सकते और जो उनकी मां की भी मां है और सबकी मां है उसका नंगा फ़ोटो लगाकर बैठ गए हैं और किसी ने उन्हें टोका तक नहीं ?
ये है हिंदी ब्लॉग जगत !
कहते हैं कि हम पढ़े लिखे और सभ्य हैं।
हम इंसान के जज़्बात को आदर देते हैं।
अपने मां बाप आदम और हव्वा अलैहिस्सलाम पर मनघड़न्त चुटकुले बनाना और उनका काल्पनिक व नंगा फ़ोटो लगाना क्या उन सबकी इंसानियत पर ही सवालिया निशान नहीं लगा रहा है जो कि यह सब देख रहे हैं और फिर भी मुस्कुरा रहे हैं ?
रात हमने पोस्ट पब्लिश करने के साथ ही उनकी पोस्ट पर टिप्पणी भी की और इस पोस्ट की सूचना देने के लिए अपना लिंक भी छोड़ा लेकिन उन्होंने गलती को मिटने के बजाय हमारी टिप्पणी ही मिटा डाली.
उनकी गलती दिलबाग जी ने भी दोहरा डाली. उनकी पोस्ट से फोटो लेकर उन्होंने भी चर्चा मंच की पोस्ट (चर्चा - 840 ) में लगा दिया है.
एक टिप्पणी हमने चर्चा मंच की पोस्ट पर भी कर दी है.
यह मुद्दा तो सबके माता पिता की इज्ज़त से जुडा है. सभी को इसपर अपना ऐतराज़ दर्ज कराना चाहिए.
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/04/manu-means-adam.html
26 टिप्पणियाँ:
दैहिक चरम संतुष्टि को खुदा की इबादत मानने वाले और इसी मत के प्रचारक बंधु डॉ अनवर जमाल साहब, आप तो अपने इबादतगाहों का रूख पति-पत्नी की प्रणय संतुष्टि पर स्थापित कर रहे थे। अब अपने ही आदिम माता-पिता आदम और हव्वा के प्रणय-निवेदन बिंब (चित्र) से एतराज़ क्यों?, क्या आदम और हव्वा को खुदा की इबादत का अधिकार नहीं है?
आदि-नारी ‘जाया’ तो माँ-जायी के समान निर्वस्त्र ही इस धरा पर विचरी थी। निश्चित ही हव्वा व आदम के लिए वही परिस्थिति रही होगी। यदि आपको उनके नंगेपन से इतना ही एतराज़ करना था तो उनसे पहले पैदा हो जाना चाहिए था। और इन दोनो के लिए वस्त्र का इन्तज़ाम कर लेना चाहिए था।
@ भाई सुज्ञ जी ! कपड़े पहनने के दौर में भी सभी के मां बाप कपड़े उतारते भी हैं लेकिन कोई भी अपने मां बाप के नग्न चित्र बनाकर अपने ब्लॉग पर नहीं लगाता, आप भी नहीं लगाते।
शारीरिक, मानसिक और आत्मिक संतुष्टि इस्लाम में पत्नी का धार्मिक अधिकार है। नारी का जायज़ हक़ अदा करना उसके पति का फ़र्ज़ है। इस्लाम के ठहराए गए हक़ को अदा करना इस्लाम में इबादत ही कहलाता है।
आप भी इसे तुच्छ न समझें और इसकी अदायगी को ख़ुद पर लाज़िम जानें।
देखें यह पोस्ट-
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/04/foto.html
अनवर भाई - नमस्कार - सबसे पहले तो आपको बधाई दूँ कि आपने इतना विस्तार से, वो भी संस्कृत में अर्थ सहित जो आलेख प्रस्तुत किया है, सचमुच हृदय से आपके मेहनत और साधना की प्रशंसा करता हूँ। आप मेरी इस बात को अपने हृदय में स्थान देंगे, ऐसी आशा है। वैसे भी आदतन मैं औपचारिकताओं से प्रयः दूर ही रहता हूँ।
आपने जिस तथ्य को प्रकाश में लाया है, वस्तुतः पूरी तरह से अवगत नहीं हूँ। लेकिन जो भी जान पाया उसके अनुसार यह कहना चाहूँगा कि -
१ - एक सच्चे रचनाकार के लेखन से अगर किसी का अपमान हो तो वह रचनाकार सच्चा हो नहीं सकता, चाहे वो कोई भी हो। अगर भूलवश या भावातिरेक में ऐसा हो भी जाय और कोई ध्यान दिला दे तो एक सच्चा रचनाकार अपनी गलती मानते हुए अपेक्षित सुधार भी कर लेते हैं।
२ - मेरी दृष्टि में साहित्य-सृजन का एकमात्र उद्येश्य है कि हमेशा बेहतर से बेहतर इन्सान बनाना ताकि एक बेहतर समाज की संरचना हो सके और मानव, मानव को कम से कम मानव तो समझे।
३ - मैं प्रायः सोचता हूँ कि आज के समाज में कितनी विद्रूपताएं हैं। हर जगह उत्पीड़न-शोषण का एक भयंकर चक्र चल रहा अनवरत धर्म (हर धर्म में) और राजनीति ( सभी राजनैतिक दल) की आड़ में। जिस पर कई तरीके से लिखे जाने की जरूरत है ताकि समाज में अतिम पायदान खड़े लोगों में भी आशा की किरण जगे। क्या इन मुद्दों पर विषयों की कमी हो गई है? क्या हम साहित्य-सृजन के मूल उद्येश्य से भटक गए हैं? अगर नहीं तो इन विवादास्पद मुद्दों को चुनने का औचित्य क्या है?
४ - सभी धर्म, सभी संस्कृतियाँ, सभी भाषाएं मेरी दृष्टि में प्रणम्य है और प्रणम्य है हर इन्सान की सकारात्मक भावनाएं। फिर क्यों न ऐसा कहा जाए कि कुछ लोग साहित्य-सृजन के नाम पर साहित्य की ही आत्मा को निरन्तर घायल कर रहे हैं।
५ - और अन्त में - आज आपने बहुत लिखवा लिया अनवर भाई (कम लिखने के कारण ही तो कवि बना - हा -हा -हा) - मूलतः कवि हूँ - बिना अपनी कुछ पंक्तियाँ कहे बात खत्म कैसे करूँ? कुछ फुटकर शेर जो मेरी अलग अलग गज़लों के हैं, से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा --
मन्दिर को जोड़ते जो, मस्जिद वही बनाते
मालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत
रोटी बडी या मजहब हमको जरा बताना
और विज्ञान में पढाए गए "आक्सीजन-चक्र" की तरह एक आम आदमी की जिन्दगी-
खा कर के सूखी रोटी लहू बूँद भर बना
फिर से लहू जला के रोटी जुटाते हैं
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
http://meraayeena.blogspot.com/
http://maithilbhooshan.blogspot.com/
विशिष्ट इबादतगार जमाल साहब, ग्रहस्थी के संयमित व्यवहार को हम तुच्छ तो नहीं मानते लेकिन, लेकिन इस दैहिक उन्मादों को हम इबादत भी नहीं मानते। आपके कहे अनुसार यदि यही इबादत का मार्ग होता तो इबादतगाहों में विशाल हॉल की जगह मदोत्सक अलग अलग कमरे बने होते।
हम तो बखुबी जानते है कामुक तृष्णाएं स्थायी संतुष्टि कभी नहीं दे पाती और क्षमताएं सभी की अलग अलग होती है। यदि यही इबादत होती है तो कोई बंदा लाख शक्ति और प्रयत्नों के बाद भी अतिशय तृष्णावान साथी को संतुष्ट न कर पाए तो उसकी इबादत तो निष्फल ही हो जाएगी और वह बंदा तो नाहक ही काफिर हो जाएगा।
खैर यह जानकारी हमारे लिए चिर प्रतीक्षित कि इस्लाम में इबादत क्या है। आपने इस्लाम में इबादत को सुपरिभाषित किया, आभार!!
अब रही बात उस चित्र की तो उस पुराने चित्र में कोई नग्नत्व नहीं था। यह तो खुशदीप जी का साम्प्रदायिक सौहार्द ही कहिए कि तर्क देने की जगह उन्होने चित्र बदल कर कुत्सित मंशाओं को विराम देना सही समझा। अन्यथा इसी तरह अक्सर सौहार्द का शोषण ही होता है। उस विवादास्पद चित्र में आदम और हव्वा के चहरे ही दृष्टिगोचर होते थे और हव्वा के शरीर को आदम के चहरे से आवरण प्राप्त था। कहीं से भी विचलित करे ऐसा चित्र नहीं था। अनावश्यक हौवा खड़ा करना भी मंशाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
@ श्यामल सुमन जी ! समाज के सरोकार के प्रति आपकी चिंता देखकर अच्छा लगा।
समाज में बहुत से विकार हैं।
ये विकार क्यों हैं ?
और इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है ?
अव्वल रोज़ से ही यह हमारी ब्लॉगिंग का केन्द्रीय विषय है।
आज का इंसान नकारात्मकता में जी रहा है। वह भूल गया है हम सब एक ही मां बाप की औलाद है और वह यह भी भूल गया है कि हम जो कुछ कर रहे हैं, उसे ईश्वर देख रहा है।
ये दो तत्व हम जान लें कि हम सब एक मां बाप की औलाद हैं तो हमारे अंदर आपस में प्यार पैदा होगा और जब हम यह जानेंगे कि हम अपने पैदा करने वाले के प्रति अपने कर्मों के लिए जवाबदेह हैं तो हम सत्कर्मी बनेंगे।
हमसे पूर्व जो सत्कर्मी हुए हैं। वे यह दोनों बातें जानते थे।
यह जानकारी आम होनी चाहिए। वेद क़ुरआन और बाइबिल, हरेक धर्मग्रंथ की शिक्षा यही है।
जब तक हम समान सूत्र पर सहमत होकर अपनी सोच को सकारात्मक नहीं बनाएंगे तब तक न तो हमारे चरित्र का विकास होगा और न ही हम अपने साहित्य से समाज को कोई मार्ग और दिशा ही दे पाएंगे।
अपने शोध से हमने यह जाना है।
अपनी ग़लती छोड़ने के लिए हम सदैव ही तत्पर हैं। परिष्कार का मार्ग यही है।
आपकी विस्तृत टिप्पणी के लिए हम आपके शुक्रगुज़ार हैं।
@ भाई सुज्ञ जी ! पति पत्नी के संबंध को दैहिक उन्माद का नाम आप क्यों दे रहे हैं भाई ?
सारे इबादतगुज़ार इसी संबंध से पैदा होते हैं। इबादतगुज़ारों को पैदा करना इबादत नहीं माना जाएगा क्या ?
जब बच्चा पैदा करना अभीष्ट न हो तब भी पत्नी की भावनात्मक संतुष्टि के लिए उसके साथ सहवास किया जा सकता है। इस्लाम यह व्यवस्था देता है।
आप जिस दर्शन को मानते हैं, वह क्या कहता है, यह आप बताइये।
कामुक तृष्णाएं स्थायी संतुष्टि कभी नहीं दे सकतीं तो क्या अस्थायी जगत में अस्थायी संतुष्टि पर्याप्त नहीं है ?
जब जब प्यास लगती है तो हम तब तब पानी पीते हैं। पानी पीने से प्यास स्थायी रूप से नहीं बुझेगी यह सोचकर पानी पीना कौन छोड़ता है ?
आप सही कह रहे हैं जमाल जी....तो फ़िर आदम-हब्बा के नग्न चित्र पर इतना हल्ला क्यों...समझने वाले समझगये हैं आपकी मन्शा...सारे बवाल क्यों...
किस वेवकूफ़ ने कहा पानी पीने से वह प्यास स्थायी रूप से नहीं बुझती...वह तो बुझ जाती है , यह वो प्यास नहीं होती जो पीने से और बढती है....
@पति पत्नी के संबंध को दैहिक उन्माद का नाम आप क्यों दे रहे हैं भाई ?
अनवर जमाल साहब,
इसलिए कि दैहिक उन्माद के बिना पति पत्नी के बीच भी सहवास ही सम्भव नहीं होता। और संतुष्टि की मांग तो और अधिक होती है।
@इबादतगुज़ारों को पैदा करना इबादत नहीं माना जाएगा क्या ?
अनवर जमाल साहब,
संतति पैदा करना समाजिक उत्तरदायित्व है कोई आध्यात्मिक आवश्यकता नहीं कि उसे इबादत का सर्वोच्छ स्थान दिया जाय। और यह जरूरी भी नहीं कि इस आयोजन से इबादतगुज़ार ही पैदा हों, इसलिए भी इसे इबादत नहीं कहा जा सकता। यदि इस कथित 'इबादत' से क्रूर, हिंसक,लोभी,बे-ईमान पैदा हुए तो पैदा करना किसकी इबादत हुई? ईश्वर की या शैतान की?
इसलिए भी शान्ति आराधकों की यह इबादत नहीं हो सकती।
@कामुक तृष्णाएं स्थायी संतुष्टि कभी नहीं दे सकतीं तो क्या अस्थायी जगत में अस्थायी संतुष्टि पर्याप्त नहीं है ?
@जब जब प्यास लगती है तो हम तब तब पानी पीते हैं। पानी पीने से प्यास स्थायी रूप से नहीं बुझेगी यह सोचकर पानी पीना कौन छोड़ता है ?
अनवर जमाल साहब,
प्यास के साथ इस तृष्णा की आपकी तुलना सही है। शारिरिक सुखों की प्रतिपूर्ति की अस्थायी संतुष्टि पर्याप्त है,पर्याप्त ही नहीं आवश्यक भी है। क्योंकि इन सब की अस्थायी प्रकृति ही नियमबद्ध है। किन्तु इबादत शाश्वत सुखों के लिए की जाती है। ऐसी संतुष्टि जो आकर फिर न जाए। जिन्हें शान्ति अभिष्ट है ऐसे आध्यात्म के विवेकीजनों की आराधना (इबादत) तो श्रेष्ठ व स्थायी सुख की मांग ही होगी।
इसलिए भी क्षणिक सुख की लालसा इबादत नहीं हो सकती।
श्यामल सुमन जी... विद्रूपतायें सदा..हर युग में..हर समाज में रही है..
--बहुत सुन्दर कविता......यह विष्णु का चक्र है...विश्व-चक्र...भव-चक्र...
---अन्ग्रेज़ों ने भी भारतीय सन्स्क्रिति की जडें खोदने के लिये वेदों पुराणों का अध्द्ययन किया था....
@ भाई सुज्ञ जी ! इबादत यह है कि ख़ुदा के फ़रमान के मुताबिक़ जिसका जो हक़ है वह अदा हो जाए।
पत्नी का पति पर जो हक़ है, उसमें शारीरिक संबंध भी हैं और उसके प्रति दूसरी ज़िम्मेदारियां भी। एक चीज़ दूसरी से जुड़ी हुई है। पत्नी का हक़ अदा करने के लिए आदमी को कृषि व व्यापार आदि भी करना पड़ता है और यह भी इबादत है। इबादत के बदले में क्षणिक सुख मिलता है या स्थायी या फिर दुख ?
यह अहमियत नहीं रखता। पत्नी का पालन पोषण करने में कितना भी कष्ट क्यों न उठाना पड़े उठाना चाहिए क्योंकि मालिक का फ़रमान यही है।
ऐसा न किया जाए तो घर परिवार सब कुछ टूट जाएगा।
रिश्तों को टूटने से बचाना भी इबादत है।
@ अनवर जमाल साहब,
दूसरों के हक़ अदा करना इबादत हो सकती है। किन्तु ख़ुदा के फ़रमान मनमुताबिक अर्थघटन और उसका बेज़ा इस्तेमाल कभी इबादत नहीं हो सकती।
आपने जिस तरह के तर्क प्रस्तुत किए है वे बालबुद्धि सहज बहस मात्र है। इसतरह तो हर क्रिया और कर्म इबादत कहलाएगा। तब तो कहा जा सकता है मूत्र विसर्जन भी इबादत है मूत्र विसर्जन से व्यक्ति स्वस्थ रहता है एक स्वस्थ व्यक्ति ही पत्नी के हक़ अदा कर सकता है ऐसा न किया जाए तो घर परिवार सब कुछ टूट जाएगा।
रिश्तों को टूटने से बचाना भी इबादत है।
बिमारी, तनाव व विपदा के समय पति, पत्नि के 'हक़' अदा नहीं कर पाता, तब वह यह 'इबादत' कैसे सम्पन्न करे?
@ पत्नी का हक़ अदा करने के लिए आदमी को कृषि व व्यापार आदि भी करना पड़ता है
अनवर साहब,
व्यपार-धधा आदमी पत्नी के हक़ अदा करने के लिए नहीं बल्कि अपना स्वयं का पेट पालने के लिए करता है। पत्नी घर में आए या नहीं, पेट पालने के लिए छडा भी व्यापार धंधे में लग जाता है। पेट की इबादत ईश-उपासना नहीं है।
मैं मानता हूँ कि जीवन भी मनुष्य के लिए जिम्मेदारी है। जीवन-कर्म और जीवन-यापन एक प्रमुख आवश्यकता है और करणीय-आदरणीय भी है और ग्रहस्थ के उत्तरदायित्व भी। इन सभी का निर्वाह करने में इन्सान को कई अच्छे-बुरे, सहज- असहज,क्रिया कलापों से गुजरना पदता है। आँख बंद करके सभी कर्मों को इबादत नहीं कहता।
ऐसे तर्क लगाकर तो धूर्त व्यक्ति भी दूसरे की रोटी छीन कर कहेगा मैं इबादत कर रहा हूँ मेरे रोटी छीनने से वह भूखा बंदा महनत मजदूरी में लग गया। किसी को महनत के लिए प्रोत्साहित करना इबादत ही है न? फिर कर दो यह कर्म खुदा के नाम- किसी को रोजी-रोटी का हक अदा करना ख़ुदा का फ़रमान है।
@ भाई सुज्ञ जी ! इबादत के लिए जितने कामों से सहायता मिलती है, उन्हें अंजाम देना भी इबादत होता है।
ईश्वर ने मन के साथ शरीर और वस्त्रादि को भी पाक रखने का हुक्म दिया है।
इसलिए शरीर को पाक रखने के लिए अगर हम उसके आदेश के पालन में शौच करते हैं तथा वुज़ू और स्नान करते हैं तो वास्तव में यह मालिक की इबादत है। स्नान को हिंदू धर्म में भी इबादत ही माना जाता है। तब आप क्यों नहीं मानना चाहते ?
आप किस दर्शन में आस्था रखते हैं ?
हम यहां अविवाहित व्यक्ति की बात कर ही नहीं रहे हैं। हम यहां पति पत्नी की बात कर रहे हैं और आप कह रहे हैं कि पति अपना पेट पालने के लिए काम करता है पत्नि का पालन पोषण करने के लिए नहीं।
अगर आदमी केवल अपना पेट पालने के लिए काम धंधा करता है तो फिर पत्नी को भोजन और वस्त्रादि का ख़र्चा कौन देता है ?
जनाब अनवर साहब,
कोई भी बात रखते हुए यह संज्ञान में रखें कि पोस्ट को विद्वान पढ़ रहे होते है, और तर्को का मर्म खूब समझते है।
वस्त्रादि पाक रखना या शौच रखना इबादत को पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया जाता है, न कि शुचिता स्वयं में इबादत है। स्नान को हिन्दु-धर्म में आराधना कोई नाबालिग भी नहीं कहता। हां प्रार्थना आदि शुभ कार्य के पूर्व स्वच्छ होना इसलिए आवश्यक है ताकि इबादत भी पवित्र रहे। साधन को हिंदुधर्म में कभी साध्य नहीं कहा जाता।
लेकिन जैसा कि आपने इस्लाम के दृष्टिकोण से बताया- "इबादत के लिए जितने कामों से सहायता मिलती है, उन्हें अंजाम देना भी इबादत होता है।"
तब तो जीवन के सभी निकृष्टतम कार्यों से भी कहीं न कहीं सहायता मिल ही जाती है। और इबादत होती रहती है। ऐसे में नमाजरूपी अलग से इबादत की क्या आवश्यकता? जीते रहो मित्र!! इस्लाम के यथार्थ की काफी जानकारी हमें मिल रही है। और कईं यकसां वाले विभ्रम स्पष्ट हो रहे है।
पति-पत्नी की बात हो रही है तब भी पति कोई मात्र पत्नी के लिए नहीं कमाता। यह बात आईने की तरह साफ है।
@ भाई सुज्ञ जी ! इस्लाम में इबादत की अवधारणा को पहले समझ लीजिए।
इबादत करने वाले को अरबी में ‘अब्द‘ कहते हैं। ‘अब्द‘ का अर्थ है दास। हमारा रचयिता परमेश्वर हमारा स्वामी है और हम उसके दास हैं। वह आदेश देने का वास्तविक अधिकारी है और हमारे लिए उसके आदेश का पालन अनिवार्य है। उसने अपने रसूल भेजे और उनके अंतः करण में अपनी वाणी का अवतरण किया। हमारे लिए वैध-अवैध निश्चित किया। हमारे लिए अनिवार्य है कि हम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के सिखाए हुए तरीक़े के मुताबिक़ ईशवाणी का पालन करें।
जब नमाज़ का समय हो जाए तो नमाज़ अदा करें और जब रमज़ान का महीना आए तो रोज़े रखें और इसी तरह ज़कात और हज की भी स्थिति है।
इंसान पर अल्लाह का भी हक़ है और बंदों का भी हक़ है और ख़ुद अपने प्राण का भी हक़ है।
किसी की भी हक़तल्फ़ी जायज़ नहीं है। जिन कामों को लोग महज़ सामाजिक या निकृष्ट काम समझते हैं। वे काम भी अगर किसी का हक़ हैं और उन्हें अदा करना ज़रूरी है तो उन्हें अदा करना भी इस्लाम में इबादत है।
नमाज़ इबादत है लेकिन नमाज़ के लिए पाक होने के लिए वुज़ू और ग़ुस्ल करना भी इबादत है।
जब देश और समाज संकट में हो और उसकी रक्षा के लिए युद्ध करना पड़े तो वह युद्ध करना भी इबादत है। इनमें फ़र्क़ यह है कि नमाज ‘हसन लिज़ातिहि‘ है जबकि युद्ध ‘हसन लिग़ैरिहि‘ है।
इसी तरह कुछ काम अपने अंदर इबादत हैं और कुछ ‘इम्तसाले अम्र‘ की वजह से इबादत बन जाते हैं।
हलाल तरीक़े से रोज़ी कमाना भी इबादत है क्योंकि अल्लाह ने ऐसा करने का हुक्म दिया है।
जीवन के जितने भी पक्ष हैं और उन पक्षों में इंसान अल्लाह की नाफ़रमानी न करके उसे याद रखता है, उसके हुक्म को याद रखता है और उसके हुक्म का पालन करता है तो इंसान का दिल हर वक्त अल्लाह के ज़िक्र और सुमिरन से भरा रहता है। दिल उस मालिक के ज़िक्र से भरा हो और वह गुनाह और नाफ़रमानी की हालत से बचा हुआ हो तो वास्तव में वह बंदा अपने मालिक का सच्चा दास है। यही भाव इबादत है।
जब लड़का जवान हो जाए और उसमें सामर्थ्य भी हो तो उसके लिए निकाह करना वाजिब हो जाता है। इस्लाम में निकाह सुन्नत है और सन्यास लेना हराम है। जिस औरत को निकाह में लिया है। उसके कुछ हक़ मर्द पर वाजिब हो जाते हैं, उन्हें भी क़ुरआन व हदीस में बता दिया गया है। क़ुरआन व हदीस के हुक्म के मुताबिक़ अपनी पत्नी का हक़ अदा करना इस्लाम में इबादत ही है।
अस्ल हैसियत यहां मालिक के हुक्म की है। जैसा वह कहे, उसे पूरा करना इबादत है। अब इस इबादत में सुख मिले या दुख मिले। सुख दुख की अपने अंदर कोई अहमियत नहीं है।
अब आप भी अपने दर्शन के अनुसार बताएं और यह भी बताएं कि ये आपकी निजी मान्यताएं हैं या कोई हिंदू धर्म ग्रंथ या गुरू भी इन्हें स्वीकार करता है ?
@ इस्लाम में इबादत की अवधारणा को पहले समझ लीजिए।
अनवर जमाल साहब,
इबादत की इसी अवधारणा के अन्तर को समझने का प्रयास है। इसी अवधारणा की भिन्नता से बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि यकसां जैसा कुछ नहीं है। परमेश्वर को नाथ और स्वयं को दास समझने की धारणा तो हिन्दु-धर्म में भी है जिसे भक्ति कहा जाता है।
वैसे मैं किसी मत को अनावश्यक श्रेष्ठ या हीन का वर्गीकरण नहीं करता, पर वस्तुस्थिति रखने से भी परहेज नहीं करता। मेरा स्वयं का दर्शन या मत विशेष करके इस 'इबादत'के विषय में हिन्दु अवधारणा से भिन्न नहीं है। आपने तुलना आरोपित की है तो अब स्पष्ट तुलना प्रस्तुत करना सार्थक प्रतिक्रिया है।
यह मेरा निजी अभिमत नहीं है, स्वयं ईश-उपदेश व हिंदू धर्म ग्रंथ उसके अनुयायियों को स्वविवेक से चिंतन मनन का अधिकार देते है, धर्म-गुरू भी अपनी ज्ञान प्रदान करने की सीमा में रहकर मात्र विवेक जाग्रत करने का कार्य करते है कोई फतवे की तरह आदेश आरोपित नहीं किया जाता।
जारी है अवधारणा अन्तर…………
१-हिन्दुत्व इबादत किसे मानता है?
२-ईश-उपदेश और आज उसके पालन की व्यख्याओं में अन्तर।
३- आदेश की तरह पालन,या विवेकपूर्वक आराधन
४- सुख दुख की अहमियत्।
हिंदू धर्म गुरू किस तरह के फ़तवे आदेश आरोपित नहीं करते ?
@ भाई सुज्ञ जी ! आपका कहना है कि
‘दैहिक उन्माद के बिना पति पत्नी के बीच सहवास संभव ही नहीं होता।‘
पूछने पर आपने बताया कि यह आपका निजी विचार नहीं है बल्कि हिंदू धर्मग्रंथों में ऐसा कहा गया है।
हमने यह विचार वेद, स्मृति और गीता-रामायण में तो पढ़ा नहीं है, तब आपने यह कहां पढ़ लिया ?
बता देंगे तो कृपा होगी।
दूसरी बात यह है कि आप ‘फ़तवा‘ से क्या समझते हैं ?
और हिंदू धर्म गुरू किस तरह के फ़तवे आदेश आरोपित नहीं करते ?
कृप्या स्पष्ट करें।
अनवर जमाल साहब,
मुझे पता था आप इसी तरह का व्यवहार करेंगे।
कई की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा!!
लगभग शरुआत की टिप्पणी में मैनें यह कहा था उसे आपने लगभग अन्तिम टिप्पणी में कही गयी मेरी बात से जोड़ दिया। खैर मैनें यह दावा नहीं किया कि मैं कहीं भी कोई भी शब्द बोलता हूँ वह परम-पावन हिन्दु शास्त्रों के शब्द ही होते है। कोई बात नहीं फिर भी वितंड़ावाद को भी प्रत्युत्तर तो अवश्य दिया जाएगा। और विवेक को सजग रखकर। जरूरी भी है।
हिन्दु आध्यात्म ग्रंथ में यह बातें इसतरह नहीं होती, पर संकेत अवश्य होते है काम आवेग है उन्माद पैदा करता है आदि आदि, मैं क्या कोई भी समझदार व्यक्ति इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि कामावेग कामोन्माद के बिना शरीर काम तृप्ति नहीं पा सकता। पत्थर की लकीर के समान। इसके लिए धर्म-शास्त्रों की ओर टक-टकी लगाने की आवश्यकता नहीं, फिर भी मेरी बात से सन्तुष्टि न हो तो अध्यात्म से इतर 'काम-शास्त्र' देख लें।
हालांकि आपके पूर्व प्रश्नों पर प्रत्युत्तर बाकि है। फिर भी आपके वर्तमान प्रश्न के उत्तर्…
@ दूसरी बात यह है कि आप ‘फ़तवा‘ से क्या समझते हैं?
यह मानकर कि ईश्वर ने कुछ आदेश दे रखे है, उन बातों का कोई कथित जानकार 'अपनी व्याख्या' से आदेश प्रसारित करे उसे ‘फ़तवा‘ कहते है।
@ हिंदू धर्म गुरू किस तरह के फ़तवे आदेश आरोपित नहीं करते?
हिंदू धर्म गुरू किसी भी तरह के अपनी व्याख्या से आदेश प्रसारित नहीं करते, अगर संदेश कहे भी तो मनना न मानना फोलोअर के विवेकाधीन होता है।
इतना ही नहीं कोई नास्तिक, एकेश्वरवादी या बहुदेववादी, कभी एक भी हिन्दु शास्त्र न पढ़ने वाला, दूसरे मत के पूजा-अर्चन,रिति-रिवाजों और आराधना पद्धति में भाग लेने वाला भी न तो हिन्दु धर्म से बाहर हो जाता है न काफ़िर कहलाता है। यहां तक कि 'अ'धर्मी या धर्मनिरपेक्ष सबकेलिए भी हिन्दु संस्कृति में सम्मानजनक स्थिति है। (भेद-भाव व वर्ण की बात अब तो इतिहास में दफन है, इसलिए पुरानी बात न करें) तमसो मा ज्योतिर्गमय!!
जारी……
१-हिन्दुत्व इबादत किसे मानता है?
अनवर जमाल साहब।
हिन्दु धर्म आराधना, भक्ति, ध्यान, आध्यात्मचिंतन को ही इबादत मानता है। वह लघुशंका, शौच व स्नान को आराधना नहीं कहता और न ही मानता है। वह कहता है शौच स्नानादि के 'नित्यकर्म' से निवृत होकर…… वह यह नहीं कहता कि लघुशंका की इबादत, शौच की इबादत करने के बाद……… जैसे कि आप अपने इस्लाम के संदर्भ से सभी नित्यकर्मों को इबादत कहते है।
२-ईश-उपदेश और आज उसके पालन की व्यख्याओं में अन्तर।
हिन्दु बेशक ईश्वर के उपदेशों को सर्वोपरि मानता है, फिर महापुरूषों के कथन को सम्मान देता है उपरांत ज्ञानियों की बात पर मनन करता है।पर जड-भाव से अंधानुकरण नहीं करता। वह जानता है ईश्वर ने उसके कल्याण के उद्देश्य से ही उपदेश फरमाए है उसने निर्देश ही दिए है, मजबूर करने के लिए नहीं। ईश्वर ने यही बता कि हे मानव तेरे लिए तेरे लिए क्या उचित-अनुचित है जान ले, फिर अपने ही भले के लिए उचित मार्गानुसरण कर्।
अगर कोई अडियल उचित का चुनाव न भी करे तो कर्मानुसार जो नियति होगी सो होगी,ईश्वर के कथन की मनमर्जी व्याख्या करके किसी को बंधनयुक्त करने का किसी को अधिकार नहीं है। और इसीलिए हिन्दु मान्यता में में कोई सर्वमान्य सवोच्च धर्म-गुरू नहीं है।
३- आदेश की तरह पालन,या विवेकपूर्वक आराधन
इस प्रश्न का भाव भी उपरोक्त टिप्पणी में अन्तर्निहित है।
४- सुख दुख की अहमियत्।
आपने कहा इस्लाम में सुख-दुख की कोई अहमियत नहीं है।
किन्तु हिन्दु मान्यता में धर्म ही मानवता के शाश्वत सुख के लिए ही कहा गया है। सच्चा सुख पाने का मार्ग ही धर्म है, इसे मानव ही नहीं समस्त भूत-प्राणी के कल्याण व सुख पाने का महामार्ग बताया गया है। धर्म मानव के दुखों को दूर करने के लिए ही उपदेशित होता है। धर्म के सारे उपदेश देखेंगे तो हम पाएंगे कि यह सारे अच्छे व नैतिक कर्म दूसरों को सुख और शान्ति प्रदान करने के नियम है। बांध कर दुखी दुखी बनाने के लिए नहीं। संयम का मार्ग मानव की उछ्रंखलता पर स्वनियंत्रण के लिए कहा, क्योंकि किसी भी तरह की तृष्णाओं का कोई अंत नहीं कोई सन्तुष्टि नहीं। अन्ततः संयम और सन्तोष ही सुख का उपाय है।
दुख सुख के मायने न होते तो जहन्नम में दुख और जन्नत में सुख का वास्ता क्यों दिया जाता?
अनवर जमाल साहब,
आपके इस प्रश्न "कि आप ‘फ़तवा‘ से क्या समझते हैं ?" के प्रत्युत्तर मे यह उदाहरण कि- "इस्लामी अवधारणा में यौन सम्बंध इबादत है"
आपका यह कथन 'फतवा' है।
इसी के साथ आपके प्रतिपादित 'यौन-सम्बंध इबादत है' विषय का उपसंहार करते है-
यदि यौन सम्बंध इबादत है तो यह इबादत मदरसे में पढ़ी-पढ़ाई जानी चाहिए। (यौन शिक्षा का अतिरिकत लाभ)
इस्लाम में निकाह के बाद ही यौन संबंध बनाने का विधान है। निकाह जायज़ है और व्याभिचार नाजायज़ है। क़ुरआन व हदीस में यह बात आई है और मदरसों में यही बात पढ़ाई जाती है।
गुरूकुलों में क्या पढ़ाया जाता है?
यह आप बताएं ।
...और हिंदू धर्म गुरू किस तरह के फ़तवे आदेश आरोपित नहीं करते ?
कृप्या स्पष्ट करें।
उसी निकाह बाद के यौनाचार रूपी आपके कथनानुसार 'इबादत' की बात हो रही है उसी विषय पर रहते हुए इस 'इबादत' के इल्म को पढ़ाने की बात थी। यदि क़ुरआन व हदीस में यह बात आई है और मदरसों में यही बात पढ़ाई जाती है। तो हमें कोई एतराज़ नहीं है। यह तो जानने के लिए प्रश्न था फ़तवा जानने की तरह।
और आपके दूसरे प्रश्न पर कई तरीके से स्पष्ट कर चुका हूँ। फिर भी विषय के साथ न्याय करते हुए "हिन्दु धर्म-गुरू फ़तवे ही नहीं देते, और यौनाचार को आराधना मानने का फ़तवा तो कत्तई नहीं देते।
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