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Written By अरविन्द शुक्ल on मंगलवार, 3 अप्रैल 2012 | 8:26 pm

तुम तुम थे हम हम थे 
अहलादों की अविरल धारा में 
निज को ही, निज धागे से 
हर ओर पिरोया करते थे 
तुम तुम थे हम हम थे !

होंठों पर से शब्दों की आहट से
दिल में सैलाब सा उठता था 
बंद जुबा के अनकहे लफ्ज
बिन कहे ही समझे जाते थे
तुम तुम थे हम हम थे !

सागर की घटाओं में खोकर
मन में आकाश सा उठता था
विस्वाश के नीले आँचल में 
तारो को पिरोया करते थे 
तुम तुम थे हम हम थे !
 
वह प्रणय काल की अभिलाषा 
वह मौन नयन की अविभाषा
बूंदों के सागर में अक्सर 
रिम झिम को संजोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !


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