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ग़ज़लगंगा.dg: बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था

Written By devendra gautam on शनिवार, 14 अप्रैल 2012 | 5:18 pm

जाने किस उम्मीद के दर पे खड़ा था.
बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था.

कोई मंजिल थी, न कोई रास्ता था
उम्र भर  यूं ही   भटकता फिर रहा था.

वो सितारों का चलन बतला रहे थे
मैं हथेली की लकीरों से खफा था.



मेरे अंदर एक सुनामी उठ रही थी
फिर ज़मीं की तह में कोई ज़लज़ला था.

इसलिए मैं लौटकर वापस न आया
अब न आना इस तरफ, उसने कहा था.

और किसकी ओर मैं उंगली उठाता
मेरा साया ही मेरे पीछे पड़ा था.

हमने देखा था उसे सूली पे चढ़ते
झूठ की नगरी में जो सच बोलता था.

उम्रभर जिसके लिए तड़पा हूं गौतम
दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था.

----देवेंद्र गौतम

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