मौलिक रचना
कविता का शीर्षक - पेट की आग
तप रहा है
सूरज बहुत
आग रही
है बरस ।
जला रहा
सब कुछ
नहीं करता
कोई तरस ।
पशु-पक्षी भी
दुबके पड़े हैं
किसी न किसी
छाँव में ।
गली – नुक्कड़
सुन्न हैं सब
जैसे रहता ही
न हो कोई
गाँव में ।
मुंह – सिर
गमछे से लपेटे
वो चला रहा
कुदाल है ।
अपने आप से
बातें करता
विचारों का बुन रहा
जाल है ।
सोचता है कभी
सब कुछ छोड़
जाऊं भाग ....
पर
जानता है वो
“कायत”
ये आग तो कुछ नहीं
सबसे बड़ी होती है
पेट की आग.....
कृष्ण कायत
मंड़ी डबवाली ।
कविता का शीर्षक - पेट की आग
तप रहा है
सूरज बहुत
आग रही
है बरस ।
जला रहा
सब कुछ
नहीं करता
कोई तरस ।
पशु-पक्षी भी
दुबके पड़े हैं
किसी न किसी
छाँव में ।
गली – नुक्कड़
सुन्न हैं सब
जैसे रहता ही
न हो कोई
गाँव में ।
मुंह – सिर
गमछे से लपेटे
वो चला रहा
कुदाल है ।
अपने आप से
बातें करता
विचारों का बुन रहा
जाल है ।
सोचता है कभी
सब कुछ छोड़
जाऊं भाग ....
पर
जानता है वो
“कायत”
ये आग तो कुछ नहीं
सबसे बड़ी होती है
पेट की आग.....
कृष्ण कायत
मंड़ी डबवाली ।
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