फिर उमीदों का नया दीप जला रक्खा है.
हमने मिटटी के घरौंदे को सजा रक्खा है.
खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है.
एक ही छत तले रहते हैं मगर जाने क्यों
हमने घरबार पे घरबार उठा रक्खा है.
वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.
कितने पर्दों में छुपा रक्खा है चेहरा उसने
जिसने हर शख्स को उंगली पे नचा रक्खा है.
3 टिप्पणियाँ:
वाह वाह !!! क्या खूब गज़ल है ....सुन्दर..व सच के पहलुओं को उजागर करती ...
कितने पर्दों में छुपा रक्खा है चेहरा उसने
जिसने हर शख्स को उंगली पे नचा रक्खा है.
वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.bahuht sunder shabdon main likhi shaandaar gajal.badhai aapko.
please visit my blog.thanks.
कितने पर्दों में छुपा रक्खा है चेहरा उसने
जिसने हर शख्स को उंगली पे नचा रक्खा है
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बहुत सार्थक और सटीक ग़ज़ल।
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