उत्तरप्रदेश विधानसभा में हाल ही मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की पहल पर बहुजन समाज पार्टी की सरकार द्वारा पारित राज्य को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पारित किए जाने का मुद्दा इन दिनों गर्माया हुआ है। हालांकि प्रत्यक्षत: तो यही लग रहा है कि राज्यों के पुनर्गठन और छोटे राज्यों के लाभ-हानि को लेकर बहस हो रही है, मगर वस्तुत: इसके पीछे राजनीति कहीं ज्यादा नजर आती है।
छोटे राज्यों के पक्षधर यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था संभालना कठिन काम है और सरकार का अधिकतर समय उस व्यवस्था को कायम रखने में खर्च होता है, इससे विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सकता। जबकि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है। दूसरी ओर इसके विपरीत राय रखने वालों का कहना है कि छोटे राज्य के सामने संसाधनों का अभाव होने की आशंका रहती है, इस कारण केन्द्र अथवा अन्य राज्य के प्रति उसकी निर्भरता बढ़ जाती है। दोनों पक्षों के तर्क अपने-अपने हिसाब से ठीक ही प्रतीत होते हैं। मगर धरातल की तस्वीर कुछ और ही है। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तर्क सही बैठ रहे हैं।
बानगी देखिए। एक ओर मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे छोटे-छोटे राज्य विकास के मामले में पिछड़ रहे हैं, जबकि गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के नए आयाम छू रहा है। इसी प्रकार बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की हालत खराब है और वहां राजनीतिक अस्थिरता साफ देखी जा सकती है। विकास तो दूर की बात है। उधर मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्य कुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि दोनों की पक्षों की बातों में सामंजस्य बैठा कर धरातल के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया जाए। बीच का रास्ता निकाला जाए। मगर वस्तुत: ऐसा हो नहीं पा रहा। पुनर्गठन को लेकर होती सियासत के कारण टकराव की नौबत तक आ गई है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। अर्थात पुनर्गठन की सारी खींचतान सियासी ज्यादा है। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने जनता की मांग का ध्यान रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनका वर्चस्व हो। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक हो गया है। अन्य राजनीतिक दलों की परेशानी ये है कि ताजा निर्णय से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। एक तो जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा जनहित का ध्यान रखे जाने के निर्णय के कारण ज्यादा वोट बटोर सकती है और दूसरा ये कि यदि मायावती के मुताबिक बंटवारा होता है तो उनमें भी बसपा ही ज्यादा फायदे में रहने वाली है। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। वे छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, लेकिन उनक ऐतराज ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। बसपा ने एकतरफा निर्णय कर बिना बहस कराए ही प्रस्ताव पारित कर दिया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
tejwanig@gmail.com
छोटे राज्यों के पक्षधर यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था संभालना कठिन काम है और सरकार का अधिकतर समय उस व्यवस्था को कायम रखने में खर्च होता है, इससे विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सकता। जबकि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है। दूसरी ओर इसके विपरीत राय रखने वालों का कहना है कि छोटे राज्य के सामने संसाधनों का अभाव होने की आशंका रहती है, इस कारण केन्द्र अथवा अन्य राज्य के प्रति उसकी निर्भरता बढ़ जाती है। दोनों पक्षों के तर्क अपने-अपने हिसाब से ठीक ही प्रतीत होते हैं। मगर धरातल की तस्वीर कुछ और ही है। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तर्क सही बैठ रहे हैं।
बानगी देखिए। एक ओर मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे छोटे-छोटे राज्य विकास के मामले में पिछड़ रहे हैं, जबकि गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के नए आयाम छू रहा है। इसी प्रकार बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की हालत खराब है और वहां राजनीतिक अस्थिरता साफ देखी जा सकती है। विकास तो दूर की बात है। उधर मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्य कुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि दोनों की पक्षों की बातों में सामंजस्य बैठा कर धरातल के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया जाए। बीच का रास्ता निकाला जाए। मगर वस्तुत: ऐसा हो नहीं पा रहा। पुनर्गठन को लेकर होती सियासत के कारण टकराव की नौबत तक आ गई है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। अर्थात पुनर्गठन की सारी खींचतान सियासी ज्यादा है। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने जनता की मांग का ध्यान रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनका वर्चस्व हो। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक हो गया है। अन्य राजनीतिक दलों की परेशानी ये है कि ताजा निर्णय से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। एक तो जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा जनहित का ध्यान रखे जाने के निर्णय के कारण ज्यादा वोट बटोर सकती है और दूसरा ये कि यदि मायावती के मुताबिक बंटवारा होता है तो उनमें भी बसपा ही ज्यादा फायदे में रहने वाली है। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। वे छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, लेकिन उनक ऐतराज ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। बसपा ने एकतरफा निर्णय कर बिना बहस कराए ही प्रस्ताव पारित कर दिया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
tejwanig@gmail.com
1 टिप्पणियाँ:
आप की पोस्ट ब्लोगर्स मीट वीकली (२०) के मंच पर प्रस्तुत की गई है /कृपया वहां आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप हिंदी भाषा की सेवा इसी लगन और मेहनत से करते रहें यही कामना है / आभार /
http://hbfint.blogspot.com/2011/12/20-khwaja-gareeb-nawaz.html
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Thanks for your valuable comment.