भाग-भाग कर ही तो सभी ने संन्यास लिया है,
ऐसा कौन है जिसने बिना भागे संन्यास लिया है,
भागता न संसार से तो ज्ञानी न होता,
पड़ा रहता यही और अज्ञानी वो होता,
बिन भागे उसे ज्ञान कैसे होगा,
ज्ञान के लिए भागना तो पड़ेगा,
एक बार गर वो फंस गया गृहस्थी के चक्कर में,
सारी जिन्दगी फिर घनचक्कर बनना पड़ेगा,
ऐसा कौन है जिसने बिना भागे संन्यास लिया है,
भागता न संसार से तो ज्ञानी न होता,
पड़ा रहता यही और अज्ञानी वो होता,
बिन भागे उसे ज्ञान कैसे होगा,
ज्ञान के लिए भागना तो पड़ेगा,
एक बार गर वो फंस गया गृहस्थी के चक्कर में,
सारी जिन्दगी फिर घनचक्कर बनना पड़ेगा,
महल में रहकर किसने पाया है ?
एक नाम भी है जिसने महल में रहकर ज्ञान पाया है ?
एक नाम भी है जिसने महल में रहकर ज्ञान पाया है ?
महल में आदमी जागता नहीं है, महल में आदमी सोता है, कहा भी गया है, या सोवे राजा का पूत, या सोवे योगी निर्धूत, तो वो राजा के पूत थे तो महल में सोते ही, न की जागते, और स्त्री को तो महल ही चाहिए, उसे पुरुष के ज्ञान ध्यान से क्या लेना देना,
राजा जनक को ज्ञान नहीं हुआ था, अगर राजा जनक को ज्ञान होता तो वह अपने राजमहल में ज्ञानियों को बुला-बुला कर उनसे उपदेश नहीं सुनता, राजा जनक को ज्ञान होने का भ्रम मात्र था,
एक रात घर से बाहर, बिना किसी आश्रय के, बिना पैसे के, बिना किसी आधार के, रहकर देख लो, जो ज्ञान एक रात का होगा, घर से बाहर, अनजान जगह पर, वह घर पर रहकर, सौ रातें जागकर भी नहीं, पा सकते हो,
श्री कृष्ण को ज्ञान कैसे कह सकते हैं, जब वह अपने देह को बचाने के लिए लाख उपाय करता है, अगर ज्ञान हुआ था, कंस को उसको मारने की बुद्धि ही बदल देनी थी, यदि ज्ञान था तो पूतना को न मारना था, श्री कृष्ण को ज्ञान नहीं उस समय का गोड फादर कह सकते हैं, जो हर कार्य अपनी मर्जी से करवाना चाहता है, और अपने आप को भगवान् सिद्ध करवाना चाहता है, चाहे उसके लिए कोई भी कदम उठाना पड़े, ज्ञान में और गोड फादर में फर्क होता है,
किसी को जानने की इच्छा नहीं है, यह तो मात्र एक बहाना है, असली बात को छिपाने का, असली बात है भागने की वह अपने जो शक्ति है उसके पास वह शक्ति वह स्त्री में खर्च नहीं करना चाहता है, और अगर वह भागेगा नहीं तो निश्चित ही उसकी शक्ति स्त्री में खर्च हो जायेगी, और जब वह भागता है तो उसको भागने के लिए शक्ति चाहिए, और जब वह अकेले सुनसान जगहों पर रहता है, और किसी का आसरा नहीं रहता है तो फिर वह अपनी शक्ति को बचा लेता है, और इसी बची हुई शक्ति से वह ज्ञान को पा लेता है, क्यूंकि आज के संन्यास में तो बहुत से आवलंबन हैं, परन्तु जो पहले संन्यास लिया जाता था, उसमे कोई आवलंबन नहीं होता था, और संन्यासी को पैदल चलना होता था, वह पैर में जूता नहीं पहन सकता है, वह छाता नहीं ले सकता है, वह किसी वाहन का प्रयोग नहीं कर सकता है, वह वस्त्र नहीं पहन सकता है, वह धन को छू नहीं सकता है, वह भोजन के लिए किसी पात्र का प्रयोग नहीं कर सकता है, कर ही उसका पात्र है, मतलब की वह समाज से पूरी तरह काट दिया जाता था, और फिर जब वह वस्त्र ही नहीं पहनेगा तो फिर वह कैसे समाज में आएगा, जंगल में ही रहेगा, और जंगल में ही तपस्या करेगा, तो इसके लिए उसे अपनी उर्जा को तो बचाना ही पड़ेगा, और जब उसकी उर्जा बचेगी तो इसी उर्जा के सहारे तो वह, ज्ञान को पा लेगा,
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42 टिप्पणियाँ:
संन्यास एक आंतरिक अवस्था है, सही बात है, आंतरिक का अर्थ भी तो सही हो, अंत + अर + इक = अंत आरही है जो इक, यानी अंत में आने वाली इक अवस्था का नाम संन्यास है, यानी संन्यास एक आश्रम व्यवस्था की प्रक्रिया का नाम है जो अंत में आती है, जैसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, फिर संन्यास, और संन्यास शारीरिक स्थिति का ही होता है, जब व्यक्ति के शरीर की आयु 75 . वर्ष की हो जाती है तब वह आश्रम व्यवस्था के अनुसार संन्यास लेता है, संन्यास 75 .वर्ष की आयु के पहले निषिद्ध है,
और जो आपके के अनुसार आंतरिक अवस्था का जो अर्थ लगा रहे हैं, की विचारों की न्यासी, ही संन्यास है, तो विचारों का न्यास तभी होगा जब वह घर छोड़ेगा, घर पर रहकर कोई भी विचारों से मुक्ति पा जाए ऐसा तो आज तक नहीं सुना है,
शरीर पर डाली गई चीज़ें ही उसकी आंतरिक अवस्था का वर्णन करती हैं, शरीर पर डाली गई, चीज़ें ही बताती हैं की वह क्या विचार रखता है, जैसे एक सैनिक की वर्दी उसके हथियार आदि बता देते हैं की वह एक सैनिक है, और उसे युद्ध करने का अधिकार है, और अगर जिसके शरीर पर सैनिक की वर्दी न हो और वह हथियार रखे और युद्ध करे तो उसे कोई मान्यता नहीं देता है, उसे गलत ही समझा जाता है, और अगर सैनिक की वर्दी पहनने वाला युद्ध न करे तो वह भी फिर कायर समझा जाता है,
उसी तरह शरीर की स्थिति से पहलवान पहचाना जाता है, शरीर के मेक अप से कलाकार पहचाना जाता है, उसी तरह अपने भगवा वस्त्रों से संन्यासी पहचाना जाता है,
बस उसी एक क्रिया का तो सारा खेल है, संन्यासी वह एक क्रिया नहीं करना चाहता है, उसी एक क्रिया से पीछा छुड़ाकर तो वह भागा है, क्यूंकि वह जान गया ही की उसके पास जो उर्जा है वह किसी और भी काम आती है, और वह काम है साधना करने का, न की किसी की भोग की प्यास मिटाने का, बस उसी शक्ति को बचाने के लिए तो वह घूमता फिरता है, और न जाने क्या-क्या उपाय करता फिरता है, इस क्रिया में गृहस्थी अपने शक्ति को खो देता है, और संन्यासी इस क्रिया को न करके अपनी शक्ति को बचा लेता है, बात बस इतनी सी है, पर यही बात तो काम की है, और सबको यही करना पड़ता है, क्यूंकि गृहस्थ के बाद संन्यास आता है,
ज्ञान को उपलब्ध होने का मतलब होता है, अपने अंदर ही उस उर्जा को जलाने का साधन खोज लेना, नहीं तो इकठा करके वह उर्जा भी सड जायेगी, तो उसे कैसे अपने अंदर ही आग मिले की वह उसे जला ले और जब वह जल जाती है, तो फिर उसे अपने अंदर ही ज्ञान हो जाता है, उसे ज्ञान के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होती है, और फिर उर्जा की अधिकता में उसका ज्ञान बढता जाता है, उसका तेज़ और प्रकाश बढता जाता है,
गृहस्थ में रहकर भी आदमी यह काम कर सकता है, किन्तु फिर उसे वह क्रिया छोडनी पड़ेगी, और अगर वह क्रिया छोड़ता है तो जरूरी नहीं की उसका साथी भी वह क्रिया छोड़ दे, और फिर यही पर एक अनैतिकता का जन्म होगा, क्यूंकि गृहस्थ होते हुए भी वह संन्यासी का जीवन बिताएगा, तो फिर उसका साथी कहीं और तो जाएगा ही,
शरीर और आत्मा को अलग क्यूँ समझ रहे हो, शरीर और आत्मा एक ही है, जैसे बिजली के तारों में बिजली एक जगह नहीं सब जगह रहती है, उसी तरह शरीर में आत्मा एक जगह नहीं सब जगह रहती है, तो अगर आत्मा को ले जाना है तो फिर शरीर अपने आप साथ चल कर आएगा, वह शरीर को ले जाना भी नहीं चाहेगा, और आत्मा को ही ले जाना चाहेगा, किन्तु दोनों का जोड़ ऐसा है की दोनों साथ आयेंगे, क्यूंकि शरीर रुपी दिए में ही तो वह अपनी आत्मा रुपी अग्नि को खुद ही जलाने का रहस्य जानेगा,
गहनतम और पूर्णत्त्व यह बड़े-बड़े शब्दों की जरूरत नहीं है, बस साधना की जरूरत है, और अगर वह घर में रहकर साधना करेगा तो उसे समाज से दुश्मनी लेनी पड़ेगी, क्यूंकि समाज उसे कभी शादी में बुलाएगा, कभी मरने पर किसी के जाना पड़ेगा, और वह ध्यान में बैठा होगा, तो फिर समाज ही कहेगा की जब इतना ध्यान में बैठता है, और इतना बैराग्य है तो फिर संन्यासी क्यूंकि नहीं बन जाता है, समाज में जब तक रह रहे हैं तब तक समाज के नियम और क़ानून न चाहते हुए भी मानने पड़ेंगे, और जब एक बार भगवा कपडा ले लिया तो फिर कोई नहीं पूछेगा की उसके घर पार्टी है, इसके घर गोद भराई है, संन्यास लेने का मतलब ही है की वह समाज के नियमों से कट गया है, तो फिर समाज भी उसे अपने से दूर रखता है,
mere hisab se jinhe apne jimmedariyon ka ahsas nahi hota. ya jimmedari uthana nahi chahate we hi bagate hain.
aadhi adhuri jankari ke aadhar par pauranik charitron ka galat aklan kiya gaya he. Tathyatmak jankari ke anusar krishna ek behad chatur, veer aur vyvharik vyakti the. Unhe bhagvan logo ne bana diya aur ab aap jese log unse ye padvi chheen rahe he. krishna nishchit hi is rassakashi par khijte honge, ki mere anubhav ki upyogi baton ko chhodkar log mere pichhe pade he.
---बहुत सही कहा सन्गीता व मनु ने ---प्रहलाद जी आप बहुत बडे भ्रम के शिकार हैं एवं आपकी सभी विवेचनायें अधकचरे ग्यान का प्रतिरूप हैं.......सन्यासी वो नहीं जो घर से भाग जाता है अपितु जो सन्सार को जीत कर उसे त्यागता है....शन्कराचार्य कब घर से भागे थे ...मां से आग्या लेकर सन्यासी बने थे ..
----सन्सार से भागे फ़िरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे....
--- किसने कहा सन्यास का अर्थ है समाज से क गया ...फ़िर सन्यस का क्या अर्थ...विवेकानन्द, दयानन्द, शन्कराचार्य ..कब समाज से कटे ...समाज के लिये ही तो उन्होंने सब कर्म किया....
---आपका आधी-अधूरा ग्यान...क्रष्ण व राम ्को नहीं समझ पायेगा....
---अगर ग्यान प्राप्त करना है तो पहले ईशावास्योपनिषद के अर्थ समझिये ..तब आगे बढिये.....ऊल जुलूल अर्थ अनर्थ की पोस्टों पर सुन्दर जीवन का सुन्दर समय बरबाद मत करिये ..
या फ़िर-ये भगवा चोला-बोला छोडकर शादी कर डालिये, दुनिया का असली ग्यान लीजिये फ़िर बाद में सन्यास का अर्थ समझ में आजाय तब सन्यास कीजिये....
--एक दम मूर्खता की बात है ...शरीर व आत्मा एक कैसे होसकते हैं ....फ़िर शरीर के मरने पर आत्मा भी मर जायेगी ...आत्मा तो अजर अमर है ..शरीर मर्त्य..ये तो बच्चा भी जानता है....
---अपने अन्दर ऊर्ज़ा एकत्र की जाती है या जलाई जाती है ...क्या तुम एक्सरसाइज़ में केलोरी को जलाने को ऊर्ज़ा जलाना तो नहीं सम्झ रहे हो....अन्ग्रेज़ी किताबी ग्यान( बिना समझे) पढकर ...
--क्या मूर्खता है....कलाकार, सैनिक, पहल्वान, मेकप आदि से सन्यास की तुलना की जारही है...
------ वह शक्ति वह स्त्री में खर्च नहीं करना चाहता है, और अगर वह भागेगा नहीं तो निश्चित ही उसकी शक्ति स्त्री में खर्च हो जायेगी,
---तो फ़िर स्त्री भगवान ने बनाई ही क्यों...कोई जबाव है..?
---और हजारों भिखारी हर रात घर से बाहर, बिना आश्रय के, बिना पैसे के रहते हैं वे सब सन्यासी या ग्यानी होते हैं क्या ...
---जन्गल में नन्गा रहकर ऊर्ज़ा को बचाकर, ग्यान प्राप्त करके क्या उस ग्यान का अचार डालेगा....
manu shrivastav @ जिम्मेदारी उठाने की बात नहीं है, बात है वैराग्य की, जब वैराग्य होता है, तो फिर भरी महफ़िल भी वीरान लगती है, वैराग्य वो चीज़ है जो किसी को भी हो सकती है, इसमें जिम्मेदारी और नाजिम्मेदारी की कोई बात नहीं होती है, वैराग्य तब होता है, जब उसे संसार नीरस और अपने आप में रस लगता है, यानी जब वो संसार में रस नहीं पाता है, और अपने में ही रस पाता है, उसे एक-एक चीज़ का ज्ञान होता जाता है, उसे संसार के सही मायने का पता चलता जाता है,
sangita @ श्री कृष्ण का जीवन राजनितिक रहा, जैसे की इस तरफ के जीवन जीने वाले समाज में बहुत से लोग होते हैं, हर शहर, हर समाज का एक गोड फादर हमेशा होता है, और होते रहेंगे, जो की समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको और जिन्दगी के जीने के पहलुयों को और सामजिक मान्यताओ को बदलते रहते हैं, और अपने आप को भगवान् सिद्ध करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, और अपने आप को भी बदल सकते हैं, यह बस जीत के भूखे लोग होते हैं, जो हर हाल में जीतना चाहतें हैं, भले ही उस जीत के लिए इन्हें कुछ भी करना पड़े, और यह अपने लोगों को ही ऊपर लाना चाहते हैं, भले ही अपने लोगों को ऊपर लाने के लिए, किसी को भी कितना नीचे गिराना पड़े, क्यूंकि जब तक यह अपने लोगों की इच्छाओं को पूरा नहीं करेंगे, तब तक वह इन्हें भगवान् नहीं मानेंगे, और जो इनको नहीं मानते हैं, उनके साथ यह बहुत बुरा सलूक करते हैं, उसका तो जीना हराम कर देते हैं, फिर थक हारकर उसे भी इन्हें भगवान् मानना पड़ता है, फिर यही लोग कालांतर में भगवान् कहलाये जाते हैं, क्यूंकि यह लोगों की इच्छाओं को पूरा करते हैं, और जो लोगों की इच्छाओं को पूरा नहीं करते हैं, लोगों को बोलते हैं की मेहनत करो, मेहनत की खाओ तो लोग उन्हें कभी नहीं मांगता हैं, बोलते हैं क्या बकवास लगा रखी है, जब नाम लेने से ही सब कुछ मिल रहा है तो फिर मेहनत क्यूँ करें और फिर यही सारा समाज करता है, नाम जपता है और मेहनत से जी चुराता है, और जो मेहनत करते हैं, उनके बीच में अड़ंगे डालता है, क्यूंकि अगर वह मेहनत से कमा लेगा तो इनके भगवान् को कौन मानेगा तो फिर उसके जीवन को बद से बदतर कर देते हैं, और जब तक वह इनके हाँ में हाँ न मिला दे तब तक उसको सताते हैं, यह सताना ऐसा नहीं होता है की वह इसको कोड़े मारते हैं, यह सताना बहुत अलग तरह का होता है, अगर वह नौकरी चाहता है तो उसे नौकरी नहीं देंगे, अगर वह व्यापार करता है तो उसके कारीगर खरीद लेंगे, उसके माल को बिकने नहीं देंगे, उसको कच्चा माल नहीं लेने देंगे, और अगर वह कोई ज्ञान की बात करता है तो फिर उसकी बात को बकवास कहेंगे, और उसके लिखे सब को जला देंगे, फाड़ देंगे, यह सब चलता है, समाज में बहुत ही सूक्ष्म और गुप्त रूप से, जब तक उनके भगवान् को भगवान् न कहो तो फिर वह अपने साथ शामिल भी नहीं करते हैं, और फिर सारा संसार मानवता की दुहाई भी देता है, की मानव एक है, और यही संसार फिर उस मानव के लिए रोटी और सब्जी इतनी महंगी कर देता है, की वह उसके लिए भी मोहताज़ हो जाता है, फिर वह कहता है की यह धंधा है, और धंधे में कोई किसी का नहीं होता है, पर हर धंधे वाले की दुकान में किसी न किसी ऐसे ही गोड फादर का प्रतीक लगा रहता है, और उसके मुंह से भी उसका नाम पहले निकलता है फिर बात निकलती है,
Dr. shyam gupta @ ज्ञान तो ज्ञान होता है, आपको लगता है अध कचरा, क्यूंकि आप इसमें से अपने मतलब की चीज़ निकाल लोगो जो की आपको अच्छी लगती है, और फिर बाकी को कचरा कहोगे, फिर कहोगे की शास्त्र में लिखा है की हंस की तरह होना चाहिए दूध और पानी अलग कर देना चाहिए, पर एक बात ध्यान देने की है, की बिना पानी के प्यास बुझेगी नहीं और दूध तो निरा मांसाहार होता है,
संसार को न कोई जीत सका है, और न ही कोई जीत सकता है, अलबत्ता जी लोगों ने जो थोडा बहुत धरती जो अपने नाम से किया है, वह कोई नाम ऐसा नहीं है जिसने थोडा भी जीतकर इसे फिर त्याग दिया है, जीतकर तो किसी को भोग जाता है, और फिर उसके भोग की इच्छा बढती जाती है, और भी जीतने की इच्छा बढती जाती है,
घर से ही तो भागना था, फिर एक संन्यास के लिए क्यूँ मगरमच्छ की झूठी कहानी का सहारा लिया, और माँ को इमोसनल ब्लेक मेल किया, जब संन्यास लेना था, तो सीधा कह देते है, और घर पर ही रहते न, घर भी क्यूंकि छोड़ा, संन्यास के लिए भागना पड़ता है, चाहे कोई कैसे भी भागे पर उसे अपनों से भागना पड़ता है, दूर जाना पड़ता है, उसे उस परिधि से निकलना होता है जो उसके लोगों की परिधि है, नहीं तो उसे वह बार-बार अपने में घसीट लेंगे, इस लिए तो आदमी बार में बार-बार जाता है, क्यूंकि उसका जाना ही उसके नाम का प्रतीक है बार-बार, और बार्बर यानी बाल कटवाने भी बार-बार जाता है, तो उस माहोल को छोड़ने के लिए, और एक अनजान जिन्दगी की तरफ बढने के लिए, अपने आपको को जानने के लिए, अपने नाम, गोत्र, परिवार, गाँव, शहर से दूर और अपनी सही खोज के लिए उसे घर से भागना पड़ता है, की असलियत में वह कौन है, की जो परिवार बोलता है वह है वह या जो समाज बोलता है वह है वह, तो फिर वह खुद की खोज में जब निकलता है, तो फिर उसे संन्यास का रास्ता दिखता, जो उसे उसकी सही पहचान देता है,
संन्यासी को भगवान् को पाना नहीं होता है, संन्यासी को ज्ञान की प्यास होती है, भगवान् को उन्हें पाना होता है, जिन्हें भगवान् से कुछ चाहिए, संन्यासी तो ज्ञान चाहता है, वह भगवान् को नहीं चाहता है, संन्यासी और भगवान् का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है,
संन्यास का अर्थ क्या मात्र विवेकानंद और दयानंद और शंकराचार्य से ही लगा लेंगे, संन्यास तो बहुत बड़ी अवस्था है, संन्यासी का तो कोई नाम ही नहीं होता है, संन्यासी का कोई धाम नहीं होता है, संन्यासी के लिए जब सब कुछ ब्रह्म है तो फिर समाज क्या और संन्यासी तो कर्म का त्याग करके संन्यासी बनता है, की वह कोई कर्म नहीं करेगा, क्यूंकि किसी भी कर्म का फल होता है, तो फिर अगर वह कर्म करेगा तो उस कर्म के फल से बंध जाएगा, जब की संन्यास वह मुक्ति के लिए ले रहा है,
श्री कृष्ण और श्री राम को समझने के लिए ज्ञान की नहीं प्रकाश की जरूरत है,
किसी भी पुस्तक को पड़कर उस पर विश्वास कर लेना कहाँ तक सही है, जब आदमी बच्चे पैदा करने लिए पुस्तक नहीं पड़ता है, सब पुस्तकों को अश्लील कह कर जला देता है, और बिना किसी से पूंछे जांचे सीधे भोग में उतर जाता है, और भोग का अनुभव करके बच्चे पैदा करता है, तो फिर मैं क्यूंकि इन किताबों के चक्कर में पडूँ, मैं भी सीधे ध्यान को क्यूँ न करूँ, जिससे मुझमे प्रकाश होता है, और ज्ञान होता है, आज तक किसी ने नहीं किसी को बताया की बच्चे ऐसे पैदा किये जाते हैं, यह हैं पुस्तकें बच्चें पैदा करने की, बच्चे पैदा करने के लिए तो हर कोई सीधा मैंदान में कूदना चाहता है, और जब ध्यान की बात आती है, तो कहता है यह पुस्तक पड़ो, यह विधि करो, और फिर वह पुस्तकों के चक्कर में ही रह जाता है, और कभी भी ध्यान के मैदान में उतर नहीं पाता है, क्यूंकि पुस्तक से ही वह अपना ज्ञान का कटोरा भर लेता है, पर बिना प्रकाश के उसे क्या पता की वह ज्ञान के नाम पर क्या भर रहा है, बस भर रहा है, भरे जा रहा है, और बोलता है की प्रकाश मत करो, पता नहीं कटोरे में क्या-क्या भरा है, पर भरा ज्ञान ही है, बिना प्रकाश के कोई कैसे जानेगा की यह ज्ञान है की अज्ञान है,
ज्ञान मैंने पाना, तैरना मैंने सीखना तो मुझे प्रकाश तो जलाना पड़ेगा, किसी के ज्ञान से मुझे क्या मिलने वाला है, जब मैं जलूँगा तो अपने आप ज्ञान हो जाएगा, दुसरे के ज्ञान से अपने को क्यूँ भरूँ, अपना ही ज्ञान प्राप्त करूँ,
अब चोला तो ओड लिया सो ओड लिया, अब वापसी नहीं हो सकती है, न जाने कितने जन्मों से इस संसार का ज्ञान ले रहे हैं, इस जन्म में मौका मिला है, तो आत्म ज्ञान ले रहे हैं,
शरीर और आत्मा एक हैं यह मैंने कब कहा मैंने तो यह कहा की शरीर में आत्मा ऐसे है जैसे तार में बिजली, बिजली का स्विच बंद कर दो, बिजली बंद हो जायेगी, तार वैसे ही पड़ा रहेगा, वजूद तो तार का भी है, क्यूंकि बिना तार के बिजली का आनंद कैसे ले पायेंगे, ऐसे ही शरीर के बिना आत्मा का आनंद कैसे ले पायेंगे, शरीर है तभी तो आत्मा इस शरीर में बिजली की तरह है, और सब आनंद लेती है, और इसी शरीर से वह ज्ञान का ब्रह्मानंद भी लेती है,
नहीं कलोरी को जलना उर्जा को जलाने का जैसा कुछ नहीं है, यह तो ज्ञान को पाने के लिए प्रकाश तो चाहिए, तो जब अपने अंदर की उर्जा को आप खुद ही जलाना जान जाते हैं, और उसके जलाने पर जो प्रकाश होता है, उसमें ज्ञान को पा जाते हैं, चीज़े वह पड़ी है, पर अँधेरा है, और अगर प्रकाश करना आता है तो फिर वह चीज़ें दिखने लगेंगी, यही ज्ञान होता है, अन्धकार से प्रकाश की और जाना नहीं है, बल्कि वहीँ पर प्रकाश को जलाना है, और प्रकाश बिना उर्जा के जलेगा नहीं, और जिसकी जितनी ज्यादा उर्जा होगी उसका प्रकाश उतना ज्यादा होगा,
ज्ञान किताबी नहीं है, अनुभव का ज्ञान है,
तुलना नहीं की जा रही है, उदाहरण दिए हैं,
स्त्री भगवान् ने बनायी ही क्यूँ ? अरे एक बार भगवान् को अलग रख कर फिर सोचिये, की जब आप भगवान् नाम के किसी भी को नहीं जानते हैं न ही सुना है भगवान् के बारे में, फिर स्त्री का पता चलेगा की क्यूँ बनी है, स्त्री,
स्त्री एक अग्नि है, और पुरुष एक उर्जा है, पुरुष को अपनी उर्जा को जलाने के लिए अग्नि की जरूरत है, तो वह अपनी उर्जा को जलाने के लिए, स्त्री के पास जाता है, स्त्री से उसकी उर्जा जल जाती है तो फिर वह काम करता है, उसमे प्रकाश हो जाता है, और वह आनंद पाता है, पर इसमें उसकी उर्जा तो जल जाती है, पर इसमें उसे एक तो बार-बार स्त्री के पास जाना पड़ता है, दुसरे उसे अपनी उर्जा को जलाने के लिए कुछ उर्जा को खोना पड़ता है, और फिर उसे एक नशा सा हो जाता है, और उसके द्वारा स्त्री से अपनी उर्जा को जलाकर अपने को खोने में आनंद लेने का वक्त बढता जाता है, और वह खोखला होता जाता है, तब फिर वह उस खोखले पन को भरने के लिए शराब का सहारा लेता है, जो उसे एक ताकत देती है, शराब का इजाद दवाई के लिए हुआ था, यह तो सारा संसार जानता है, पर जब शबाब के नशे में आदमी अपने को खो देता है तो फिर वह शराब के नशे से अपने को पाना चाहता है, क्यूंकि शराब उसे ताकत देती है, यानी फिर यह सिलसिला चल पड़ता है, यह शबाब में खो और उधर शराब में पाओ, और फिर दोनों नशे हो जाते हैं, अब जब वह दोनों से ही अपने आप को खोने लगता है तो फिर एक चमत्कार की उम्मीद करता है, की जो मैंने खोया है वह एक साथ सब वापस मिल जाए, तो फिर जुए को इजाद होता है, जुए की आखरी बाज़ी यही होती है की सारा तेरा यह फिर सारा मेरा, तो शराब, शबाब, और जुआ, यह तीन चीज़ उसकी जिन्दगी में उतरती हैं, और फिर इनसे जब वह भागता है जब स्त्री उसे लात मार देती है, क्यूंकि अब वह उर्जाहीन हो गया, शराब भी नहीं मिलती क्यूंकि पैसा भी गया, और जुए में सब हार गया जो कुछ भी पास था, तो फिर वह चोर बनता है, और एक गुमनाम जिन्दगी जीता है, और दूसरों की अच्छी-अच्छी चीज़ों को चुरा कर अपना पेट भरता है, समाज में बहुत ही कम आता जाता है, धीरे-धीरे वह चोरी करते-करते लोगों के घर में रात में होने वाले काले कारनामों को जान जाता है, और उसके सामने समाज के एक अलग चेहरा आता है, जो समाज दिन के उजाले में कुछ और होता है, और रात के अँधेरे में हर घर की कहानी कुछ और होती है, तो फिर वह पैसे वाला होकर एक दिन सबके सामने आता है, और सब पर राज करने लग जाता है, क्यूंकि वह सबके राज जो जानता है, बस यही जिन्दगी का सच है, फिर उसके पास स्त्री अपने आप आती हैं, और वह फिर स्त्री के चक्कर में फंस जाता है, यही बस घूमता रहता है, जन्म दर जन्म,
चोरी केवल सामान की चोरी ही नहीं होती है, किसी की विद्या की चोरी भी चोरी कहलाती है, अब जिसने शास्त्र लिखे उसने तो हमें बताये नहीं तो फिर क्यूँ उसकी विद्या को चुरा कर उसके ज्ञान, उसकी मेहनत पर हम गुमान करें, जैसे किताब पड़कर कोई बच्चा पैदा नहीं होता है, उसके लिए भी मेहनत करनी पड़ती है, उसी तरह किताब पड़कर कोई ज्ञान नहीं होता है उसके लिए भी ध्यान करना पड़ता है,
भिखारी एक मजबूरी है न की अपनी स्वेछा से है, भीतर से वह भी महलों का ख्वाब देखते हैं, उनकी मजबूरियों ने उन्हें भिखारी बना दिया है, जब उनके हाँथ भी पैसा लगेगा तो वह भी फिर समाज में लौट आयेगे, उनको पैसा चाहिए न की ज्ञान,
सही कहा आपने अचार ही तो डालना है, अचार यानी चार को नहीं बताना है, चार कौन ? जो चार को मानते हैं, चार कौन ? चार वह जिसको चार्वाक कहते हैं, यानी चार वाक्यों को मानने वाले लोग, चार वाक्य यानी, ऋण लेकर, घी पियो, देह के भस्म होने पर, कौन कहाँ से फिर आता है, यह चार वाक्य, यानी ज्ञान की बातें, इनके सामने न कहो, इन चार से बचो, तभी तो जंगल में लिखे गए, योग सूत्र, ब्रह्म सूत्र, रामायण, महाभारत, और भी न जाने क्या-क्या जो अचार डालने के काम आ रहे हैं, अगर वे लोग जंगल न जाते और समाज में रहते तो क्या इतना कुछ दे जाते, जिनकी दुहाई देकर आप मुझे समझाना चाहते हैं, यह सारे ग्रन्थ, शास्त्र सब जंगल में ही तो लिखे गए, जो की अपने प्रकाश से आज तक प्रकाश कर रहे हैं, क्यूंकि इन्होने अपनी स्त्री को छोड़ा और अपनी अग्नि को जाना और अपने अग्नि से अपने को जलाया तो यह शास्त्र है, नहीं तो यह भी समाज में रहकर समाज की जिन्दगी जीते, कोई भी संन्यासी जंगल न जाता, तपस्या न करता, समाज में ही रहकर अपने आप को बड़ा तपस्वी समझता, देख लो समाज में रहकर किसकी ग्रन्थ को अचार डल रहा है, और किसके ग्रन्थ अभी तक कोई छू भी न पाया है,
ब्रह्मचारीजी ...आप को ये सारी बातें कहां से ग्यात हुईं....स्त्री लात मार देती है ....स्त्री अग्नि है , सन्यास क्या है ..राम=क्रष्ण कौन थे..रिणं क्रत्वा घ्रतं पिवेत....आदि आदि....अनुभव है या किताबी ग्यान ..या पैदा होते ही सब कुछ अपने आप जान गये... ...बिना दूसरों के लिखे शास्त्र आदि पढे ..???
---अरे भाई ..तब सारा समाज ही जन्गल मे रहता था ...आज भी बच्चे पढने के लिये हास्टल जाते हैं...जो प्रायः घर से दूर जन्गलों में ही होते हैं....अध्ययन के लिये ..साधना के लिये जन्गल जाया ही जाता है...
---और सारे रिशि-मुनि तो शादी-शुदा थे जिन्होंने महान ग्रन्थ लिखे ...कहां से बेपर की उडा रहे हो....
अनुभव से जानी हैं, और इस जन्म का अनुभव थोड़े ही है, न जाने कितने जन्मों का अनुभव है,
ऋषि मुनि शादी सुदा थे पर, संन्यासी शादी सुदा नहीं थे, और वो लोग संन्यास नहीं लेते थे, ऋषि मुनि अलग बात है और संन्यासी एक अलग बात है, याज्ञवल्क ने जब संन्यास लिया, उसके बाद याज्ञवल्क कहाँ गये किसी को पता नहीं,
-----किसी प्राचीन सन्यासी का नाम बतायें...देखें कितना पूर्व जन्म का ग्यान है ....कोई अपने पूर्व जन्म की कहानी सुनायें यदि कई जन्मों का अनुभव है तो...
---कई जन्मों का अनुभव है अर्थात मुक्ति नहीं हुई अभी तक...जन्मों के चक्कर में पडे हैं...इस जन्म में मोक्ष प्राप्त करने का विचार है या नहीं...
संन्यासी का कोई नाम नहीं होता है,
पूर्व जन्म का अनुभव आपको मेरी बातों से नहीं लगता है, मैंने तो कोई भी शिक्षा आदि नई पाई है, कहीं कुछ सीखा नहीं है फिर भी इतना सारा लिख दिया है, बिना किसी विशेष शिक्षा के कविता भी करता हूँ, और उर्दू तो मैंने पड़ी ही नहीं पर उसमे भी लिखता हूँ, और ध्यान के कई प्रकार जानता हूँ, बिना पड़े बिना कहीं से सीखे,
मुक्ति अभी बहुत दूर है, अभी तो ब्रह्मचारी हूँ, न जाने कितनों जन्मों में ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा, फिर जाकर कहीं ज्ञान होगा, फिर जाकर ज्ञान से मुक्ति होगी,
जब सब विचार शांत हो जायेगे, फिर न जाने कितने ध्यान में लगकर, समाधी को उपलब्ध होऊंगा, फिर समाधान होने पर ज्ञान होगा, और फिर मुक्ति, अभी तो बहुत साधना बाकी है,
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