इस लड़की को नहीं पता कि देश की राजधानी दिल्ली में किस बात की जंग अन्ना छेड़े हुए हैं। इसे ये पता है कि अगर शाम तक उसकी लकड़ी ना बिकी तो घर में चूल्हा नहीं जलेगा। पूरे शरीर पर लकडी की बोझ तले दबी इस लड़की की कहानी वाकई मन को हिला देने वाली है। मुझे लगता है कि देश की तरक्की को मापने का जो पैमाना दिल्ली में अपनाया जा रहा है, उसे सिरे से बदलने की जरूरत है।
ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, मैं आफिस के टूर पर उत्तराखंड गया हुआ था। घने जंगलो के बीच गुजरते हुए मैने देखा कि जंगल में कुछ लड़कियां पेड़ की छोटी छोटी डालियां काट रहीं थी और वो इन्हें इकठ्ठा कर कुछ इस तरह समेट रहीं थीं, जिससे वो उसे आसानी से अपनी पीठ पर रख कर घर ले जा सकें। दिल्ली से काफी लंबा सफर तय कर चुका था, तो वैसे भी कुछ देर गाड़ी रोक कर टहलने की इच्छा थी, जिससे थोड़ा थकान कम हो सके।
हमने गाड़ी यहीं रुकवा दी, गाड़ी रुकते ही ये लड़कियां जंगल में कहां गायब हो गईं, पता नहीं चला। बहरहाल मैं गाड़ी से उतरा और जंगल की ओर कुछ आगे बढा। हमारे कैमरा मैन ने जंगल की कुछ तस्वीरें लेनी शुरू कीं, तो इन लड़कियों को समझ में आ गया कि हम कोई वन विभाग के अफसर नहीं, बल्कि टूरिस्ट हैं। दरअसल लकड़ी काटने पर इन लड़कियों को वन विभाग के अधिकारी परेशान करते हैं। इसके लिए इनसे पैसे की तो मांग की ही जाती है, कई बार दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है। लिहाजा ये कोई भी गाड़ी देख जंगल में ही छिप जाती हैं।
हमें थोडा वक्त यहां गुजारना था, लिहाजा मैं इन लड़कियों के पास गया और उनसे सामान्य बातचीत शुरू की। बातचीत में इन लड़कियों ने बताया कि वो दिल्ली का नाम तो सुनी हैं, पर कभी गई नहीं हैं। बात नेताओं की चली तो वो सोनिया, राहुल या फिर आडवाणी किसी को नहीं जानती हैं। हां उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का नाम इन्हें पता है। मैने सोचा आज कल अन्ना का आंदोलन देश दुनिया में छाया हुआ है, शायद ये अन्ना के बारे में कुछ जानती हों। मैने अन्ना के बारे में बात की, ये एक दूसरे की शकल देखने लगीं।
खैर इनसे मेरी बात चल ही रही थी कि जेब में रखे मेरे मोबाइल पर घर से फोन आ गया, मै फोन पर बातें करने लगा। इस बीच मैं देख रहा था कि ये लड़कियां हैरान थीं कि मैं कर क्या रहा हूं। मेरी बात खत्म हुई तो मैने पूछा कि तुम लोग नहीं जानते कि मेरे हाथ में ये क्या है, उन सभी ने नहीं में सिर हिलाया। बहरहाल अब मुझे आगे बढना था, लेकिन मैने सोचा कि अगर इन्हें मोबाइल के बारे में थोड़ी जानकारी दे दूं, तो शायद इन्हें अच्छा लगेगा। मैने बताया कि ये मोबाइल फोन है, हम कहीं भी रहें, मुझसे जो चाहे मेरा नंबर मिलाकर बात कर सकता है। मैं भी जिससे चाहूं बात कर सकता हूं। मैने उन्हें कहा कि तुम लोगों की बात मैं अपनी बेटी से कराता हूं, ठीक है।
मैने घर का नंबर मिलाया और बेटी से कहा कि तुम इन लड़कियों से बात करो, फिर मैं बात में तुम्हें बताऊंगा कि किससे तुम्हारी बात हो रही थी। बहरहाल फोन से बेटी की आवाज सुन कर ये लड़कियां हैरान थीं। ये लड़कियां कुछ बातें तो नहीं कर रही थीं,लेकिन दूसरी ओर से मेरी बेटी के हैलो हैलो ही सुनकर खुश हो रही थीं।
अब मुझे आगे बढना था, लेकिन मैने देखा कि इन लड़कियों ने लकड़ी के जो गट्ठे तैयार किए हैं, वो बहुत भारी हैं। मैने पूछा कि ये लकड़ी का गट्ठर तुम अकेले उठा लोगी, उन सभी ने हां में सिर हिलाया। मैने उठाने की कोशिश की, मैं देखना चाहता था कि इसे मैं उठा सकता हूं या नहीं। मैने काफी कोशिश की पर मैं उठा नहीं पाया। इसके पहले कि मै इन सबसे विदा लेता, मेरी गाड़ी में खाने पीने के बहुत सारे सामान थे, जो मैं इनके हवाले करके आगे बढ गया।
मैं इन्हें पीछे छोड़ आगे तो बढ गया, पर सच ये है कि इनके साथ हुई बातें मेरा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। मैं बार बार ये सोच रहा हूं कि पहाड़ों पर रहने वाली एक बड़ी आवादी किस सूरत-ए-हाल में रह रही है। ये बाकी देश से कितना पीछे हैं। इन्हें नहीं पता देश कौन चला रहा है, इन्हें नहीं पता देश में किस पार्टी की सरकार है। राहुल गांधी और केंद्र सरकार अपनी सरकारी योजना नरेगा की कितनी प्रशंसा कर खुद ही वाहवाही लूटने की कोशिश करें, पर हकीकत ये कि जरूरतमंदो से जितनी दूरी नेताओं की है, उससे बहुत दूर सरकारी योजनाएं भी हैं।
अन्ना के साथ ही उनकी टीम अपने आंदोलन को शहर में मिल रहे समर्थन से भले ही गदगद हो और खुद ही अपनी पीठ भले ही थपथपाए, पर असल लड़ाई जो लड़ी जानी चाहिए, उससे हम सब अभी बहुत दूर हैं। हम 21 सदी की बात करें और गांव गांव मोबाइल फोन पहुंचाने का दावा भी करते हैं, लेकिन रास्ते में हुए अनुभव ये बताने के लिए काफी हैं कि सरकारी योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही मजबूत हैं।
1 टिप्पणियाँ:
humaare desh ki na jaane kitni aabadi gaon me isi haal me hain.aapne sahi kaha hai ki ye development ki baaten sirf peparon me hi hain.
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