हाल में मेरे चचेरे भाई नगेन्द्र प्रसाद रांची आये. उन्होंने एक मसला रखा जिसने कई सवाल खड़े कर दिए.. वे घाटशिला में रहते हैं. घाटशिला झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले का का एक पिछड़ा हुआ अनुमंडल है. यहां कुल आबादी में 51 % आदिवासी हैं. सिंचित ज़मीन 20 % भी नहीं. कुछ वर्षा आधारित खेती होती है लेकिन बंज़र ज़मीन काफी ज्यादा है. नगेन्द्र जी ने एक आदिवासी परिवार के बारे में बताया जिसके पास 250 बीघा ज़मीन है लेकिन आर्थिक स्थिति साधारण है. उस परिवार के युवक अपनी ज़मीन मोर्गेज रखकर यात्री बस निकालना चाहते हैं. इसमें वे मदद चाहते थे. जानकारी मिली कि आदिवासी ज़मीन मॉर्गेज नहीं होती. राष्ट्रीयकृत बैंक, प्राइवेट बैंक या प्राइवेट फाइनांसर भी इसके लिए तैयार नहीं होते. कारण है टेनेंसी एक्ट. जिसके प्रावधान के अनुसार आदिवासी ज़मीन उसी पंचायत और उसी जाति का कोई आदिवासी ही उपायुक्त की अनुमति लेकर खरीद सकता है. अन्यथा उसकी खरीद-बिक्री नहीं हो सकती. बिरसा मुंडा के आंदोलन उलगुलान के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह एक्ट बनाया था.
घाटशिला जैसे इलाके में भी इतनी ज़मीन का बाज़ार मूल्य आज की तारीख में करोड़ों नहीं अरबों में लगेगी. एक्ट की बंदिश नहीं होती तो थोड़ी ज़मीन बंधक रखकर या बेचकर वह परिवार कई बसें निकाल सकता था या नियमित आय का कुछ और स्रोत तैयार कर सकता था. एक आदिवासी वित्त निगम है जो उनकी मदद कर सकता था लेकिन बिहार से अलग हुए 11 वर्ष हो चुकने के बावजूद उसकी परिसंपत्तियों का बंटवारा नहीं हो सका है. लिहाज़ा मृत पड़ा है. अब इस परिवार के युवक बस निकालने के वैकल्पिक उपायों को ढूंढने में लगे हैं. वे सूबे के मुख्यमंत्री और सत्ता में बैठे अन्य आदिवासी नेताओं के पास आकर पूछना चाहते हैं कि जिस एक्ट ने अरबों की दौलत होने के बावजूद उन्हें पाई-पाई का मुहताज बना रखा है उस कानून में किसी तरह के संशोधन की ज़रुरत वे क्यों नहीं महसूस करते. सत्ता में बैठे आदिवासी नेता तो लाल हो गए लेकिन अलग राज्य बनने से आम आदिवासियों का क्या भला हुआ. जिस जमाने में यह कानून बना था उस ज़माने में इसकी ज़रुरत थी लेकिन आज तो यह आदिवासियों के विकास में ही बाधक बन गया है. आज किसी आदिवासी को दारू पिलाकर ज़मीन नहीं हडपी जा सकती. वे जागरूक हो चुके हैं. अब इस एक्ट की कोई ज़रुरत नहीं. लेकिन अभी आदिवासियों के बीच से यह मांग खुलकर उठ नहीं पा रही है. आदिवासी नेताओं में सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी इस बात को समझ रहे हैं और खुलकर बोल रहे है. बाकी नेता इसमें किसी तरह का परिवर्तन या संशोधन की बात उठने पर लाल कपडे के सामने सांड की तरह भड़क उठते हैं. उन्हें लगता है इससे आदिवासी नाराज हो जायेंगे और उनका वोट बैंक गड़बड़ हो जायेगा. लेकिन सैकड़ों एकड़ ज़मीन वाला आदिवासी उद्योगपति कैसे बनेगा इसका जवाब उनके पास नहीं है.
-----देवेंद्र गौतम
घाटशिला जैसे इलाके में भी इतनी ज़मीन का बाज़ार मूल्य आज की तारीख में करोड़ों नहीं अरबों में लगेगी. एक्ट की बंदिश नहीं होती तो थोड़ी ज़मीन बंधक रखकर या बेचकर वह परिवार कई बसें निकाल सकता था या नियमित आय का कुछ और स्रोत तैयार कर सकता था. एक आदिवासी वित्त निगम है जो उनकी मदद कर सकता था लेकिन बिहार से अलग हुए 11 वर्ष हो चुकने के बावजूद उसकी परिसंपत्तियों का बंटवारा नहीं हो सका है. लिहाज़ा मृत पड़ा है. अब इस परिवार के युवक बस निकालने के वैकल्पिक उपायों को ढूंढने में लगे हैं. वे सूबे के मुख्यमंत्री और सत्ता में बैठे अन्य आदिवासी नेताओं के पास आकर पूछना चाहते हैं कि जिस एक्ट ने अरबों की दौलत होने के बावजूद उन्हें पाई-पाई का मुहताज बना रखा है उस कानून में किसी तरह के संशोधन की ज़रुरत वे क्यों नहीं महसूस करते. सत्ता में बैठे आदिवासी नेता तो लाल हो गए लेकिन अलग राज्य बनने से आम आदिवासियों का क्या भला हुआ. जिस जमाने में यह कानून बना था उस ज़माने में इसकी ज़रुरत थी लेकिन आज तो यह आदिवासियों के विकास में ही बाधक बन गया है. आज किसी आदिवासी को दारू पिलाकर ज़मीन नहीं हडपी जा सकती. वे जागरूक हो चुके हैं. अब इस एक्ट की कोई ज़रुरत नहीं. लेकिन अभी आदिवासियों के बीच से यह मांग खुलकर उठ नहीं पा रही है. आदिवासी नेताओं में सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी इस बात को समझ रहे हैं और खुलकर बोल रहे है. बाकी नेता इसमें किसी तरह का परिवर्तन या संशोधन की बात उठने पर लाल कपडे के सामने सांड की तरह भड़क उठते हैं. उन्हें लगता है इससे आदिवासी नाराज हो जायेंगे और उनका वोट बैंक गड़बड़ हो जायेगा. लेकिन सैकड़ों एकड़ ज़मीन वाला आदिवासी उद्योगपति कैसे बनेगा इसका जवाब उनके पास नहीं है.
-----देवेंद्र गौतम
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