मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..
ख़ुशी की तलाश में क्यों गम मिल जाता हैं?
सुना हैं अब दुश्मनों के जिक्र में, दोस्तों का नाम भी आता हैं.
निकलता हूँ मग़रिब को, जब भी घर से.
रास्ते में मुआ, मयखाना मिल जाता हैं.
लगाये तो थे बागीचे में, अबकी बरस कुछ गुलाब 'राहुल'
कांटे ही छिलते हैं, कोई फूल नहीं खिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता..
हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
समंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं.
कसबे से दूर कही, तन्हा-गुमनाम बसर हम करते हैं.
सबके अपने मदीने हैं, कोई हमसफ़र नहीं मिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में अब ख़ुदा नहीं मिलता..
आज इतना ही.
राहुल..
*मग़रिब - शाम की नमाज
http://rahulpaliwal.blogspot.com/2011/10/blog-post_29.html#comment-form
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..
ख़ुशी की तलाश में क्यों गम मिल जाता हैं?
सुना हैं अब दुश्मनों के जिक्र में, दोस्तों का नाम भी आता हैं.
निकलता हूँ मग़रिब को, जब भी घर से.
रास्ते में मुआ, मयखाना मिल जाता हैं.
लगाये तो थे बागीचे में, अबकी बरस कुछ गुलाब 'राहुल'
कांटे ही छिलते हैं, कोई फूल नहीं खिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता..
हर पल सिलती बैचेनी का ये एहसास क्यों हैं.
समंदर के बाशिंदे को भी, इतनी प्यास क्यों हैं.
बरगद जिन्हें समझा था, बोनसाई निकल जाते हैं.
रिश्तो के भ्रम, अश्क बन बह जाते हैं.
फटेहाल, नंगे पैर ही सही, कुछ साथी हमेशा रहते थे.
बचपन के सुनहरे वो दिन याद आते हैं.
कसबे से दूर कही, तन्हा-गुमनाम बसर हम करते हैं.
सबके अपने मदीने हैं, कोई हमसफ़र नहीं मिलता.
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में अब ख़ुदा नहीं मिलता..
आज इतना ही.
राहुल..
*मग़रिब - शाम की नमाज
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1 टिप्पणियाँ:
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी नहीं मिलता..
मंदिर में पत्थर हैं बैठा, मस्जिद में ख़ुदा नहीं मिलता...
मुकद्दर में जो लिखा था, वो भी अब नहीं मिलता..बेहतरीन शब्द सयोजन.....भावपूर्ण रचना....
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